संजय कुमार सिंह
इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने की लीड आज यह बताती है कि छत्तीसगढ़ चुनाव से पहले ईडी ने दावा किया है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बेटिंग ऐप्प समूह से 508 करोड़ रुपये लिये। भूपेश बघेल ने इसका जवाब यह दिया है कि भाजपा चुनाव के लिए केंद्रीय एजेंसियों की मदद ले रही है। कांग्रेस उससे लड़ेगी और जीतेगी। पर भारत में चुनाव पैसे के बिना नहीं लड़े जा सकते हैं और यह संभव होता तो आम लोग भी चुनाव लड़ रहे होते या उन्हें भी लड़ाया जाता पर वह अलग मुद्दा है। मेरा मानना है कि केंद्र सरकार अगर राज्य सरकारों के आय के स्रोत पर इस तरह हमला करेगी तो बाकी पार्टियां चुनाव कैसे लड़ेंगी और लेवल प्लेइंग फील्ड का क्या होगा? यही नहीं, क्या यही रवैया रहा तो जहां डबल इंजन की सरकार नहीं है वहां केंद्र सरकार सामान्य ढंग से काम कर पायेगी या युद्ध ही चलता रहेगा। ये सब चिन्ता के कुछ मुद्दे हैं, होने चाहिये जो मीडिया से गायब हैं। कारण आप जानते हैं।
ठीक है कि ईडी के छापों का बहाना भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई है। पर उसे नियंत्रित करने वालों का भ्रष्टाचार कौन देखेगा? पहले माना जाता था कि अगली सरकार देखेगी और भले अगली सरकार नहीं देखती थी और आप इसे मिलीभगत मान लें। लालू यादव को जेल भेजने, चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराये जाने का श्रेय इस सरकार या संघ परिवार या नरेन्द्र मोदी को दें पर हेमंत बिस्व सरमा से लेकर अजीत पवार भी तो फल-फूल रहे हैं। भ्रष्टाचार रोकने और नियंत्रित करने की जिम्मेदारी क्या वाशिंग मशीन पार्टी अथवा केंद्र सरकार की ही है? क्या चुनाव जीतने वाली एक पार्टी दूसरी पार्टी के जनप्रतिनिधियों को ईडी के आरोप या जांच के लिए जेल में रख सकती है? मुझे लगता है कि व्यवस्था में कुछ भारी गड़बड़ है।
भाजपा सत्ता में नहीं थी तो कांग्रेस या दूसरी पार्टी जो सत्ता में थी, ने ऐसा नहीं किया। इसके अलावा भारत में भ्रष्टाचार चुनावी खर्चों के कारण है – यह कोई नई बात नहीं है। पहले चुनाव के समय ईडी के छापे नहीं पड़ते थे और नकद बरामद किये जाने के मामले कम होते थे। अब यह सब ज्यादा हो रहा है तो इसका मकसद सत्ता में बने रहना या विपक्षी दलों को कमजोर करना भी है। अगर नहीं भी हो, तो खबरों में इसका अहसास कराना मीडिया का काम है न कि भूपेश बघेल का कि वे बोलें तो छपे और नहीं बोलें तो पाठकों को बताया ही नहीं जाये। वह भी तब जब प्रधानमंत्री के हेलीकॉप्टर की तलाशी लेने वाले अधिकारी के खिलाफ जांच हो जाए। यह पता ही नहीं चले कि हेलीकॉप्टर से उतारकर ले जाये गये बक्सों में क्या था।
यही नहीं, अगर केंद्र सरकार ईडी का प्रयोग कर रही है तो राजस्थान सरकार ने एसीबी का प्रयोग किया है और एसीबी के अधिकारी ने जयपुर में ईडी के अधिकारी को रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया है। मेरे ख्याल से यह जवाबी राजनीति है। ऐसा नहीं होना चाहिये। सरकारी एजेंसियों का चुनावी या राजनीतिक प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। पर केंद्र सरकार के कारण या वैसे भी अगर ईडी के अधिकारी रिश्वत लेते पकड़े जा रहे हैं और वही विपक्षी नेताओं पर आरोप लगा रहे हैं तो यह रिश्वत लेकर (वह किसी भी तरह का हो सकता है, भविष्य में कुछ मिलने का लालच भी) नहीं किया जा रहा है इसकी क्या गारंटी है और ऐसी खबरों का क्या महत्व? या वही महत्व है जो आम खबरों का होता है?
उल्लेखनीय है कि इंडियन एक्सप्रेस के ही साइट पर 2 नवंबर 2023 की खबर है जो 23:59 पर अपलोड की गई है। लेकिन 3 नवंबर को यह खबर पहले पन्ने पर नहीं थी। इसके अनुसार 15 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए ईडी के अफसर जयपुर में गिरफ्तार हुए। राजस्थान के एंटी करप्शन ब्यूरो ने जयपुर में ईडी के दो लोगों 15 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया था। इसका मतलब यह भी हुआ कि भाजपा की नरेन्द्र मोदी की सरकार के ईडी के अफसर को जयपुर में कांग्रेस की अशोक गहलौत की सरकार के एसीबी के अफसर ने गिरफ्तार किया। मुझे लगता है कि इसके बाद यह खबर राजनीति हो जाती है और खबर की तरह नहीं रह जाती है। ऐसे में इसे कैसे छापा जाता है यह दिलचस्प है। इंडियन एक्सप्रेस यह सब खुलकर कर रहा है इसलिए मेरी दिलचस्पी इसमें है और मैं यही अपने पाठकों को बता रहा हूं।
इंडियन एक्सप्रेस में तीन नवंबर को पहले पन्ने पर खबर छापी थी कि चुनाव से कुछ दिन पहले ईडी ने करीब 5 करोड़ रुपए रायपुर, भिलाई में नकद जब्त किये। कहने की जरूरत नहीं है कि इसी दिन ईडी अफसर के जयपुर में गिरफ्तार होने की खबर थी। 15 लाख की घूस लेते ईडी अफसर का पकड़ा जाना और पांच करोड़ रुपये नकद बरामद होना दो अलग खबरें हैं और कौन महत्वपूर्ण या कौन कम यह तय करना संपादकीय विवेक का मामला है और मैं उसमें नहीं जाता पर तथ्य यह है कि इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को पहले पन्ने पर छापा और ईडी के अफसर की गिरफ्तारी की खबर को पहले पन्ने पर नहीं छापा। खबर 12 बजे रात की है और मैं जानता हूं कि 12 बजे के बाद की खबरें भी जरूर समझी जायें पहले पन्ने पर ली जा सकती हैं। पर मुद्दा यह नहीं है।
मुद्दा यह है कि 20,000 करोड़ रुपये और फिर 12,000 करोड़ रुपये से संबंधित आरोपों की जांच क्यों नहीं हो रही है जो इन छोटे मामलों की खबर चुनाव के समय छपवाई जा रही है। क्या यह सरकार और सरकारी पार्टी का हेडलाइन मैनेजमेंट है कि जो भी सरकारी सेठ के खिलाफ सवाल करता है उसे परेशान किया जाता है। दूसरी ओर, चुनाव के समय ईडी ने नकद बरामद किया उसे महादेव ऐप्प से जोड़ा और खबर पहले पन्ने पर छपी। अगले दिन यानी आज, 4 नवंबर की खबर आप ऊपर पढ़ चके हैं। अगर यह मान लिया जाये कि पैसे लिये-दिये गये हैं तो भी यह तथ्य है कि केंद्र सरकार के तमाम दावों और उपायों के बावजूद लिये-दिये गये हैं। आप जानते हैं कि कानूनन एक सीमा से ज्यादा नकद रखा नहीं जा सकता है, लिया-दिया नहीं जा सकता है बैंकों में जमा कराने, निकालने के लिए पैन नंबर देना होता है और आजकल बैंक से नकद निकाले या जमा किये जाएं तो अलर्ट किया जा सकता है। यह सब इस सरकार ने किया है या इसके राज में संभव हुआ है। ऐसे में इतनी नकदी इधर-उधर हो कैसे रही है और उसके लिए कोई जिम्मेदार या लापरवाह है? अगर इसे लागू ही नहीं किया जा सकता है, कोई फायदा नहीं है तो यह सब करने का श्रेय क्यों और जनता को परेशान क्यों करना?
दिल्ली सरकार, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और आम आदमी पार्टी के खिलाफ मामला ऐसा ही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को ईडी का समन ऐसे ही या इसी मामले में मिला हो सकता है। और यहां भी आरोपों पर ईडी की कार्रवाई चल रही है। मनीष सिसोदिया जेल में हैं और पार्टी को बदनाम करने के साथ उसपर प्रतिबंध लगाने की मांग और कार्रवाई चलने की चर्चा है। सरकार के निर्णय और काम से किसी ना किसी को फायदा होता ही है और वही चुनावी चंदा देता है या फायदे की उम्मीद में चंदा देता है। इस सरकार ने इसे व्यवस्थित करने के नाम पर इलेक्ट्रल बांड और संबंधित नियम बनाए और वो नियम ऐसे हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी को किससे किसलिये पैसे मिल रहे हैं इसका अंदाजा ही नहीं लगे और दूसरी पार्टी को लोग इस डर से चंदा न दें कि सत्तारूढ दल को पता लग जाएगा और वह परेशान करेगी। इस तरह भाजपा की चली तो देश में ऐसी व्यवस्था हो जाएगी कि सत्तारूढ़ दल को ही दान, चंदा मिले और दूसरे दल ले ही नहीं सकें। ना नकद ना इलेक्ट्रल बांड के रूप में।
यूट्यूब पर एक चर्चा में मेरे साथी पैनेलिस्ट और एक अनुभवी अधिवक्ता ने कहा कि अमूमन सुप्रीम कोर्ट कानून बनाने के सरकार के अधिकार को मानता है और कानून का अनुपालन सुनिश्चित करता है। हर बार सरकार के खिलाफ फैसला नहीं देता है। हालांकि मैं यह मान रहा था कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था ने जिस तरह पत्रकारों को संयमित और संतुलित दिखने के लिए मजबूर किया है तथा जो ऐसा नहीं है उसे पक्षकार घोषित कर दिया गया है और इस दबाव में कुछ लोग कई बार सरकार का फूहड़ समर्थन करते खते हैं वैसा ही कुछ दबाव अदालतों पर भी होगा। और जो फैसले समझ में न आयें उसे उसी वर्ग में रख देता था। पर साथी पैनेलिस्ट से वह भ्रम दूर हुआ। पर वह अलग मुद्दा है। हालांकि, इससे लगता है कि सरकार मनमाने कानून बना सकती है और तब चुनाव के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड का क्या होगा?