आलोक कुमार-
शुभम कुमार आईएएस टॉपर हुए । जात पात से ऊपर उठने की इच्छा रखने वाले समस्त समष्ठियों के लिए यह गर्व का विषय है। उनका ” कुमार” सरनेम अर्थात कुलनाम किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह जात पात के दलदल में धंसे समस्त हिंदी पट्टी की कलुषित भावना को करारा जवाब है।
कुमार कुलनाम के नाम के आधार पर उनसे कोई अनुराग या विद्वेष नहीं पाला जा सकता है। यह जाति भंजक परिकल्पना की आदर्श स्थिति है।
यह ठीक उसी तरह है जैसा कि कबीर की “जात न पूछो साधु की” आह्वान को जब नहीं सुना गया तो कृपाण के बल से हिंद के दुश्मनों से मुक़ाबिल गोविंद सिंह जी ने पांचों वर्ण को इकट्ठा किया और सबको “सिंह” साहिबान के रूप में दीक्षित कर दिया। ठोस जातीय असंवेदनशीलता को पिघलाने में विफल रहे बाबा अंबेडकर ने हारकर नव बौद्ध बनने का निर्णय कर लिया था।
इसबार यूपीएससी के सिविल सेवा परीक्षा में चयनित 25 अभ्यर्थियों में से 13 पुरुष और 12 महिलाएं के सरनेम देखने से ज्यादातर के बारे में स्पष्ट नहीं है कि वह किस जाति से हैं।
हां, खंगालने पर यह जरूर पता लगा है कि सिविल सेवा अधिकारियों के चयन परीक्षा से निकले ज्यादातर मेधावी ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। ये औसत सामान्य परिवार से आने वाले हैं। इनके लिए महंगी कोचिंग की व्यवस्था में पल बढ़ना मुश्किल था। मेधावियों का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ सिविल सेवा परीक्षा में टॉपर बनना था।
कुछ प्रमुख टिप्पणियाँ-
Praveen jha- दुनिया भर में उपनाम है, मगर जाति-बोध नहीं। Joe Biden या Donald Trump या Vladimir Putin या हों Pablo Diego Jose ….Picasso. मेरे विचार से उपनाम हटाना हल नहीं, इसका फॉर्मैट बदलना चाहिए, जो मूल फॉर्मैट था। दक्षिण में पिता का प्रथम नाम, ग्राम नाम लगता है, जाति नहीं लगती। जैसे मुतुवेल (ग्राम) करुणानिधि (पिता) स्तालिन। यही स्पेन आदि में भी है। इससे ट्रैकिंग बनी रहती है, ख़ास कर अगर migratory या mixed family हो। जाति-बोध हटे, यह तो जरूरी है ही।
Pradeep Shrivastva- आलोक जी जाति और जातिवाद अभी भी सच्चाई है। सैकड़ो साल से ऊंची जातियों का, शहरी लोगों वर्चस्व था। यह माना जाता रहा कि आनुवांशिक प्रतिभा उनमें है। आज पिछड़ो की खुशी उसी तरह जैसे ओलंपिक मे एक गोल्ड मेडल पर भारत इतना बड़ा देश छाती ठोकने लगता है।पीएम से सीएम तक ईनाम बांटने लगते है। सैकड़ो साल बाद यह हो रहा है तो इसे रेखांकित किया ही जाएगा। क्यो दलित राष्ट्राध्यक्ष या मुख्यमंत्री पर इतनी खबर बनती है। जाति है, काई की तरह जमी है, हम लोग इसे पालते पोसते रहे है। आईएएस मे किसी पिछड़े या दलित, ग्रामीण पृष्ठिभूमि से आए लड़के का टाप करना ऐतिहासिक घटना है।
Pramod kumar suman– आप लोगों की जानकारी के मैं शुभम कुमार की जाति का उल्लेख यहां कर दे रहा हूं सुभम जाति से कुशवाहा है। उनके पिता जी ग्रामीण बैंक में मैनेजर हैं और बहन साइंटिस्ट है। रही बात जाति छुपाने और बताने की तो इस देश में जाति के नग्न सच्चाई हैं। हमलोग स्वस्थ बहस की जगह उस पर राख डाल कर सोच लेते है की आग खत्म हो गया, लेकिन इसके उलट वह आग सुलगते रहता है।
Taufeeq khan– हर साल UPSC एग्जाम होता है। लोग टॉप करते हैं। हम बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन खूब बधाई और शुभकामनाएं देने लग जाते हैं। कभी उस आइएएस आइपीएस के ऑफिस जाकर देखिएगा, मुंह लगाना तो दूर मिलेगा भी नहीं आपसे। ई टॉपर उपर कुछ नहीं होता यही लोग योजनाओं में लूट मचाते हैं और देश के खजाने को चूना लगाकर अवैध संपत्ति का साम्राज्य खड़ा करते हैं। 500 लोग सेलेक्ट होते हैं तो उनमें से 499 भ्रष्ट साबित होते हैं।
दीपांकर-
हिंदी माध्यम से UPSC की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों के पास बहुत ज्ञान है, “दिव्य दृष्टि” है, कंटेंट भी है, अनुभव है और स्किल भी है.
लेकिन अफसोस वो स्टूडेंट्स को IAS अफसर नहीं बना सकते वो IAS अफसरों से ज्यादा बाबा बनाने के संस्थान बन चुके हैं.
और क्योंकि आजकल बाबा लोग मल्टीटैलेंटेड हो चुके हैं, वो मोटीवेशनल स्पीकर हैं,गायक हैं,लेखक हैं , स्टैंडअप कॉमेडियन हैं सब कुछ हैं बस अफसर नहीं हैं. भले अफसरों से ज्यादा उनका नाम है, अच्छा काम है, लेकिन फिर भी ये बाबा लोग अफसर ना बन पाने के अफसोस में हैं. इसलिए ये बाबा बनने और नाम कमाने के बाद भी बाबा कर्म को साइड में रख देते हैं, इम्तिहान में बैठ जाते हैं, फेल हो जाते हैं, दो महीने गुस्सा करते हैं, बाबा कर्म को साइड में रखकर अध्ययन करते हैं.
इस अध्ययन से उन्हें फिर फिर साल भर बाबा कर्म पर फोकस रखने का कंटेंट मिल जाता है. और फिर इम्तिहान में बैठ जाते हैं, फिर फेल हो जाते हैं, ये बाबा सायकिल है, जो उन्हें मोह- माया मुक्त बाबा बनने से रोके हुए है.
बाबा बनना बुरा नहीं है, ये तो व्यक्तित्व का और आत्मा का विस्तार है. लेकिन कुंठित होकर बाबागीरी करने में आनंद कैसे आ सकता है.
अब असली बात ये है कि ये हिन्दी पट्टी के विद्यार्थियों को ही तय करना है कि वो हिन्दी माध्यम के इन दिव्य दृष्टि का “विजन” रखने वाले संस्थानों को डेढ़-दो लाख रूपए देकर बाबा बनना चाहते हैं या अफसरी में “वाजी” मारना चाहते हैं.
च्वाइस की बात है.
बाबा बनने के बाद भी अगर आदमी में अफसर बनने की इच्छा बची रहे तो कुंठा आ सकती है, अफसर बनने के बाद आदमी बाबा बन जाय तो मोक्ष महसूस हो सकता है.
फिर अंत में इतनी सारी कहानियों का दोष एक भाषा बन जाती है.
हिंदी पखवाड़ा मनाकर अभी-अभी उठे इस देश के हिन्दी माध्यम वाले परिक्षार्थियों को पता चला कि UPSC रिजल्ट के बाद उनके एक ख़ास जगह कील चुभ गई है. कील देखने के लिए इंग्लिश शीशा चाहिए. निकालने के लिए इंग्लिश पिलास चाहिए, घाव भरने के लिए अंग्रेजी दवाई चाहिए.
दवाई और इलाज तो हिंदी में है लेकिन रिजल्ट तो अंग्रेजी में ही है. इस चिंता का ट्रीटमेंट हो जाता है लेकिन अफसोस इलाज नहीं हो पा रहा, इसलिए रिजल्ट तो दिखता है लेकिन परिणाम निराशाजनक है.
lav kumar singh
September 25, 2021 at 7:08 pm
सिविल सर्विस परीक्षा में सफल होने वाले सभी उम्मीदवारों को शुभकामनाएं। आगे आपसे बस यही कहना है कि इंटरव्यू में किया गया वादा ध्यान रखना। इसी वादे पर देश की तरक्की टिकी हुई है। कौन सा वादा? अरे इतनी जल्दी भूल गए?