यौन उत्पीड़न की जांच विशाखा दिशानिर्देश के अनुरूप करने की पीड़िता की मांग… चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों की जाँच के लिए जस्टिस बोबडे की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय समिति से जस्टिस एनवी रमन ने अपना नाम वापस ले लिया है। जस्टिस रमन ने उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री को आधिकारिक रूप से पत्र लिखकर पर इस सप्ताह के शुरू में गठित पैनल से अपना नाम वापस लेने की जानकारी दी है।
यह घटनाक्रम उस पीड़ित महिला द्वारा समिति के सदस्यों के बारे में सवाल उठाये जाने के बाद सामने आया है जिसमें जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रमन और इंदिरा बनर्जी भी शामिल हैं। महिला ने विशेष रूप से पैनल में जस्टिस रमन को शामिल करने पर ऐतराज जताया था। महिला का कहना है कि वह जस्टिस गोगोई के काफी करीब हैं। 20 अप्रैल को, जिस दिन उसका हलफनामा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को भेजा गया था, जस्टिस रमन ने हैदराबाद में बोलते हुए उसके आरोप को खारिज कर दिया था।
दरअसल चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला ने मामले की जांच के लिए बनाए गए उच्चतम न्यायालय के जस्टिस बोबडे पैनल को चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी में आरोप लगाने वाली महिला ने कई सवाल उठाए थे। कानून के मुताबिक इन हाउस जांच पैनल में महिला सदस्य का बहुमत व बाहरी व्यक्ति नहीं हैं। महिला ने कहा कि मैं सिर्फ यह कह रही हूं कि सुनवाई के दौरान आप मेरे डर और आशंकाओं को ध्यान में रखें। मैंने काफी कुछ झेला है। मुझे पता है कि मेरे पास कोई पद या स्टेटस नहीं है। आपके सामने रखने के लिए मेरे पास सिर्फ सच है।मुझे न्याय तभी मिलेगा, जब मेरे मामले की निष्पक्ष सुनवाई होगी।महिला ने कहा है कि इस मामले की जांच विशाखा दिशानिर्देश के अनुरूप की जानी चाहिए। महिला ने कहा कि शनिवार की सुनवाई के दौरान जजों व कानूनी अधिकारियों ने इसके पीछे साजिश की टिप्पणी की, जिससे वह भयभीत है।
गोगोई पर लगे आरोपों की जांच के लिए मंगलवार को बोबड़े और जस्टिस एनवी रमना और इंदिरा बनर्जी की तीन सदस्यीय समिति नियुक्त की गई। बोबडे मुख्य न्यायाधीश के बाद उच्चतम न्यायालय में सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं।
शुक्रवार को समिति के समक्ष उपस्थित होने के लिए कहने पर महिला को एक नोटिस भेजा गया था। महिला ने समिति के तीन न्यायाधीशों को संबोधित अपने जवाब में कहा कि उसे पूछताछ पैनल की रचना के बारे में जानकारी नहीं थी।कार्यस्थल (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में विशाखा दिशानिर्देशों और महिलाओं के यौन उत्पीड़न का हवाला देते हुए, महिला ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति में महिला सदस्यों का बहुमत नहीं है और एक बाहरी सदस्य को कानूनन अनिवार्य हैरूप से समिति में होना चाहिए।
महिला ने कहा कि वह शनिवार को गठित विशेष पीठ की सुनवाई के दौरान गोगोई और अन्य न्यायाधीशों द्वारा दिए गए बयानों को लेकर चिंतित है। महिला ने केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के एक ब्लॉग पोस्ट का भी हवाला दिया है । उसने कहा कि मेरा चरित्र बिना किसी कारण के और मुझे सुने बिना ही खराब घोषित कर दिया गया। इन घटनाओं के कारण मैं बहुत डरी हुई हूं और अलग-थलग और उदास महसूस कर रही हूं।
महिला ने समिति से अनुरोध किया है कि सुनवाई के दौरान एक वकील और एक सहायक व्यक्ति के साथ रहने की अनुमति दे और समिति की कार्यवाही को वीडियो रिकार्डिंग किया जाए और रिकॉर्डिंग की एक प्रति उसे दीन की जाए “ताकि बाद में इस बारे में कोई विवाद न हो।
क्या है विशाखा दिशा-निर्देश
वर्ष 1997 में उच्चतम न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिए ये दिशा-निर्देश जारी किए थे और सरकार से आवश्यक कानून बनाने के लिए कहा था। उन दिशा-निर्देशों को विशाखा के नाम से जाना गया और उन्हें विशाखा दिशा-निर्देश कहा जाता है। ‘विशाखा दिशा-निर्देश ‘ जारी होने के बाद वर्ष 2012 में भी एक अन्य याचिका पर सुनवाई के दौरान नियामक संस्थाओं से यौन हिंसा से निपटने के लिए समितियों का गठन करने को कहा था, और उसी के बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल, 2013 में ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वीमन एट वर्कप्लेस एक्ट’ को मंज़ूरी दी थी।
‘विशाखा दिशा-निर्देश’ के तहत किसी महिला को काम की जगह पर किसी पुरुष द्वारा मांगा गया शारीरिक लाभ, उसके शरीर या रंग पर की गई कोई टिप्पणी, गंदे मजाक, छेड़खानी, जानबूझकर किसी तरीके से उसके शरीर को छूना,महिला और उससे जुड़े किसी कर्मचारी के बारे में फैलाई गई यौन संबंध की अफवाह, पॉर्न फिल्में या अपमानजनक तस्वीरें दिखाना या भेजना, शारीरिक लाभ के बदले आपको भविष्य में फायदे या नुकसान का वादा करना, महिला की तरफ किए गए गंदे इशारे या उससे की गई कोई गंदी बात, सब शोषण का हिस्सा है।
उच्चतम न्यायालय की ओर से जारी की गई विशाखा दिशा-निर्देश के मुताबिक ऐसा जरूरी नहीं कि यौन शोषण का मतलब केवल शारीरिक शोषण ही हो। उसके काम की जगह पर किसी भी तरह का भेदभाव जो एक महिला को एक पुरुष सहकर्मियों से अलग करे या उसे कोई नुकसान सिर्फ इसलिए पहुंचे क्योंकि वह एक महिला हैं, तो वो शोषण है।
दिशानिर्देशों में कहा गया है कि कानूनी तौर पर हर संस्थान जिसमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं वहां, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के तहत अंदरूनी शिकायत समिति होना जरूरी है।इस कमेटी में 50 फीसदी से ज्यादा महिलाएं होना आवश्यक है और इसकी अध्यक्ष भी महिला ही होगी। इस कमेटी में यौन शोषण के मुद्दे पर ही काम कर रही किसी बाहरी गैर-सरकारी संस्था की एक प्रतिनिधि को भी शामिल करना ज़रूरी होता है।
अगर किसी को भी लगता है कि उसका शोषण हो रहा है तो वह लिखित शिकायत कमेटी में कर सकती हैं और उसे इससे संबंधित सभी दस्तावेज भी देने होंगे, जैसे मैसेज, ईमेल आदि। यह शिकायत 3 महीने के अंदर देनी होती है। उसके बाद कमेटी 90 दिन के अंदर रिपोर्ट पेश करती है। इसकी जांच में दोनो पक्ष से पूछताछ की जा सकती है। शिकायतकर्ता की पहचान को गोपनीय रखना समिति की जिम्मेदारी है। इस दिशानिर्देश के तहत कोई भी कर्मचारी चाहे वो इंटर्न भी हो, वो भी शिकायत कर सकता है। उसके बाद अनुशानात्मक कार्रवाई की जा सकती है।