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सुख-दुख

पृथ्वी दिवस : जीवन बचाने का सूत्र है ‘30 बाई 30’!

चंद्रभूषण-

दुनिया को एक साझा बस्ती मानने की जिस समझ के तहत 2016 में पैरिस जलवायु समझौते पर दस्तखत हुए थे, कार्बन उत्सर्जन में तेज कटौती सुनिश्चित करके धरती का तापमान इस सदी के बीतने तक सन 1850 की तुलना में डेढ़ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने देने का वैश्विक संकल्प लिया गया था, वह समझ और साथ में वह समय भी बहुत पीछे छूट गया-सा लगने लगा है। बीच में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अपने देश को इस जलवायु समझौते से बाहर ही लेते गए।

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उनके चुनाव हार जाने के बाद उनकी जगह आए जोसफ बाइडेन ने कुछ मामलों में अमेरिका को संवेदनशीलता की पटरी पर वापस लाने की कोशिश की है, लेकिन दो परस्पर विरोधी खेमों में दुनिया जितनी बुरी तरह उनके समय में बंटी हुई है, वैसी तो यह ट्रंप के दौर में भी नहीं थी। ऐसे में यह कहना कठिन है कि जो काम समूची धरती को एक बस्ती मानकर ही किए जा सकते हैं, वे फिलहाल हो पाएंगे या नहीं। फिर भी ऐसी कोशिशों का स्वागत किया जाना चाहिए।

फार्मूले का मतलब

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‘30 बाई 30’ जैव विविधता को बचाने के लिए प्रस्तावित एक ऐसी ही पहल है। अच्छी बात है कि भारत समेत 90 से ऊपर देशों के अलावा दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका भी उत्साह के साथ इसमें शामिल होने के लिए तैयार है। किसी तकनीकी मुहावरे जैसी शक्ल वाले इस नाम की तह में जाएं तो इसका मतलब सन 2030 तक धरती के 30 फीसदी जमीनी और समुद्री इलाके को औद्योगिक गतिविधियों से मुक्त रखते हुए वन्य और जलीय जीवों के लिए सुरक्षित छोड़ देना है। इस सिलसिले में बातचीत लगातार जारी है और 2022 के ही उत्तरार्ध में किसी दिन इस मुद्दे को लेकर चीन के दक्षिणी शहर कुनमिंग में एक ग्लोबल कॉन्फ्रेंस होनी है।

जैव विविधता के मामले में इसे पैरिस जलवायु सम्मेलन के ही समकक्ष बताया जा रहा है, हालांकि व्यावहारिक रूप से यहां तक पहुंचने के लिए अभी और ज्यादा बड़ी सहमति की जरूरत है। यूक्रेन युद्ध से थर्राया हुआ मौजूदा दौर इसके लिए बहुत उपयुक्त नहीं लगता। 30 फीसदी धरती को इंसानी छेड़छाड़ से मुक्त रखने की बात सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन इसे लागू करने में सरकारों के पसीने छूट जाएंगे। अभी दुनिया के 17 प्रतिशत जमीनी और 7 प्रतिशत समुद्री इलाके को अभयारण्य का दर्जा देकर कम से कम कानूनी तौर पर इसे बड़े इंसानी दखल से बाहर रखा गया है। लेकिन इस बारे में पंगे की खबरें बीच-बीच में आती रहती है।

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संरक्षण के नाम पर

जिस सरकारी अमले को अभयारण्यों की देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई है, वह यहां रह रहे गरीब-गुरबा को सांस भी नहीं लेने देता, जबकि बड़ी पूंजी से जुड़े हितों के सामने सीधा लंबलेट हो जाता है। जंगलों में रातोंरात रिजॉर्ट खड़े हो जाते हैं जबकि आदिवासी औरतें अपने घर के आसपास सूखी लकड़ी तोड़ने के लिए हवालात में बंद कर दी जाती हैं। सुरक्षित समुद्री इलाकों में स्थानीय मछुआरों की डोंगियां जब्त कर ली जाती हैं, जबकि बड़े-बड़े फिशिंग ट्रॉलर जलजीवों के अंडों-बच्चों सहित तटीय समुद्रों की तली तक उधेड़ डालते हैं।

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सोचा जा सकता है कि जिस दिन जमीन पर अभयारण्यों का दायरा दोगुना करने और समुद्रों में इसे चार गुने से भी ज्यादा बढ़ा देने का फैसला लिया जाएगा, उस दिन कितना बड़ा बवाल होगा, और इस फैसले को लागू करने में कितने बड़े घपले देखने को मिलेंगे। मामले का दूसरा पहलू यह है कि जिस चीज को हम लंबे समय से ‘विकास’ मानते आ रहे हैं, उसकी धारणा पर भी करारी चोट पड़ेगी। कोयला और अन्य खनिजों की खदानें कम खोदी जा सकेंगी। सड़क, रेलवे, बंदरगाह, बिजलीघर और बाकी इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स खड़े करने में भी एहतियात बरतने होंगे।

हकीकत यह है कि अभी तो पैरिस जलवायु समझौते से जुड़ी शर्तों को लागू करने में ही सरकारों ने धोखाधड़ी के तमाम तरीके खोज निकाले हैं। धरती का 30 फीसदी इलाका इंसानी दखल से अछूता छोड़ दिया जाए, यह अलग लेवल की चीज है। हमारे ग्रह पर जीवन के अस्तित्व के लिए क्या यह कार्बन उत्सर्जन में कटौती जितना ही जरूरी है, इसके जवाब को लेकर भी कहीं न कहीं कुछ दुविधा है। ‘कुछ जीव न भी रहें तो इंसान का क्या बिगड़ जाएगा?’

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वैज्ञानिक दायरों में इस विषय को लेकर काफी काम हुआ है। ऐसे बहुत सारे जीव हैं जो हमारे देखते-देखते विलुप्त हो गए हैं, या उनकी तादाद इतनी कम रह गई है कि उनके कभी भी विलुप्त हो जाने का खतरा बना हुआ है। हाथी हाल तक हमारे जीवन का अभिन्न अंग हुआ करते थे। आज आप याद करने की कोशिश करें कि सड़क पर चलता हुआ सचमुच का हाथी आपने कब देखा था, तो शायद इसमें भी अच्छा-खासा समय लगे। यह सोचना और भी मुश्किल है कि हाथी के होने या न होने से हमारे जीवन पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं। लेकिन अभी जिस एक जीव पर मंडरा रहे संकट से लोगों के जीवन पर फर्क पड़ने लगा है, वह है मूंगा।

कुनमिंग में क्या होगा

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कम गहरे समुद्रों में सतह के थोड़ा ही नीचे पहाड़ों (मूंगा भित्तियों) की शक्ल में मौजूद इस जीव की बस्तियों पर मछलियों की कई जातियों और कुछ अन्य जलजीवों का भी अस्तित्व निर्भर करता है। ग्लोबल वॉर्मिंग और इंसानी हलचलों के मिले-जुले प्रभाव से पूरी दुनिया में मूंगा भित्तियां नष्ट हो रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जल्दी कुछ किया नहीं गया तो सन 2050 तक धरती से मूंगों की जाति मिट जाएगी। यह जब होगा तब होगा, समुद्र से मछलियों की पकड़ घटने की शिकायत मछुआरे वर्षों से करते आ रहे हैं।

‘सभी जीवधारी एक-दूसरे पर निर्भर हैं’- ऐसा एक आदर्श वाक्य हमें रटाया जाता रहा है। लेकिन इसे व्यवहार में जांचने का मौका तब मिलता है, जब कैलिफोर्निया जैसे समृद्ध अमेरिकी राज्य में एक दिन बादाम और कुछ अन्य बेशकीमती फसलों की पैदावार में तीखी गिरावट की खबर आती है। खोजबीन के बाद वजह यह पाई जाती है कि इन पेड़ों का परागण मधुमक्खियां ही करती थीं, जो पता नहीं क्यों वहां दिखनी बंद हो गई हैं। ऐसे न जाने कितने नजदीकी रिश्तों की हमें जानकारी भी नहीं है।

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अभी दुनिया को झकझोर रहा कोरोना वायरस कैसे इतना विध्वंसक रूप ले बैठा, इसका ग्लोबल वॉर्मिंग या किसी और इंसानी गतिविधि से कोई संबंध है या नहीं, यह जानने में समय लगेगा। वैज्ञानिकों का आकलन है कि धरती का 30 फीसदी हिस्सा अगर जानवरों और पेड़-पौधों के स्वाभाविक जीवन के लिए छोड़ दिया जाए तो उनकी संततियां विलोप से बच जाएंगी और इंसान भी अपने दायरे में सुरक्षित रहेगा। यह बात सरकारों और प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से उन्हें संचालित करने वाले बड़े औद्योगिक हितों को कैसे समझाई जाए, असल चुनौती यही है। उम्मीद करें कि इस साल कुनमिंग में ‘30 बाई 30’ पर दुनिया की मोहर लग जाएगी।


वल्लभ पांडेय-

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आज पृथ्वी दिवस पर हम निम्न में से कम से कम कोई एक या दो संकल्प ले सकते हैं और धरती माँ के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हैं:

  1. पर्यावरण के प्रतिकूल एकल प्रयोग वाली पोलीथिन और प्लास्टिक का उपयोग करना बंद कर देंगे …. इसके लिए 4R (Reduce, Reuse, Recycle, Refuse) फार्मूला अपनाएंगे और हमेशा झोला लेकर ही बाजार जायेंगे.
  2. घर, वाहन और कार्यालय आदि में ए.सी. का न्यूनतम प्रयोग करेंगे, अगर किया भी तो तापमान 27 डिग्री सेंटीग्रेड से कम नही रखेंगे.
  3. कूड़ा, प्लास्टिक कचरा, इलेक्ट्रोनिक कचरा आदि नही जलाएंगे
  4. गीला कचरा और सूखा कचरा अलग अलग कूड़ेदान में डालने की आदत बनाएंगे
  5. लान, छत, बालकनी, टेरेस आदि को यथा संभव हरा भरा रखेंगे साथ ही आस पडोस के पार्क आदि में यथासंभव हरियाली के लिए प्रयास करंगे.
  6. निजी चार पहिया वाहन का प्रयोग कम से कम करेंगे और कोशिश करेंगे कि जब सवारी क्षमता का 75% लोगों को कहीं जाना हो तभी वाहन बाहर निकालें.
  7. सप्ताह में कम से कम एक दिन कोई वाहन का प्रयोग न करने की कोशिश करेंगे.
  8. नदियों, कुंडों और तालाबों आदि जल स्रोतों में किसी भी प्रकार का प्रदूषण न करेंगे और दूसरों को भी ऐसा करने से टोकेंगे.
  9. सौर ऊर्जा और वर्षा जल संचयन इकाइयों की अधिकाधिक स्थापना के लिए कोशिश करेंगे
  10. आस पडोस के बच्चों को पर्यावरण के संकट और बचाव के बारे में सचेत करेंगे और इस विषय पर उनसे नियमित संवाद करेंगे.
  11. आस पास के विद्यालयों में पर्यावरणीय शपथ दिलवाने का प्रयास करेंगे, क्यूंकि यदि बच्चे पर्यावरण के प्रति सचेत हो गये तो सकारात्मक परिणाम आयेंगे.
  12. पानी, विद्युत् या अन्य ऊर्जा स्रोतों का दुरूपयोग नहीं करेंगे.
  13. अनावश्यक रूप से तेज रोशनी करने से बचेंगे और जरूरत न होने पर प्रकाश बंद कर देंगे.
  14. लाउडस्पीकर से तेज आवाज करने, अनावश्यक हार्न बजाने, पटाखा जलाने आदि से यथासंभव बचेंगे.
  15. कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग को कम करते हुए यथासंभव जैविक / प्राकृतिक कृषि पद्धति को अपनाएंगे. अतिरिक्त भूंसा, पुआल आदि को खेत में न जला कर इसकी कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया अपनाएंगे.
  16. प्रदूषण नियंत्रण के लिए बने सभी कानूनों / प्राविधानो का पालन करेंगे.
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