यूं तो नेताजी पत्रकारों के बहुत बड़े नेता हैं. इतने बड़े हैं कि बहुत बड़े वाले हैं, ऐसा कई लोग मानते हैं. हमारे उत्तर प्रदेश में तो उनकी पहचान ही पत्रकार एवं पत्रकारिता के लिये जूझते रहने की है. पहले प्रादेशिक स्तर के जुझारू थे, अब राष्ट्रीय स्तर के जुझारू हैं. भगवान का आशीष बना रहा तो अंतराष्ट्रीय स्तर के भी जुझारू बनेंगे किसी दिन. वैसे, जुझारूपन उनमें कूट-कूट कर भरा है. किसने कूटा, इसकी कोई पुख्ता और ऐतिहासिक जानकारी तो किसी किताब में उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनके दौर के लोग बताते हैं कि अक्सर कूट दिये जाने के चलते ही वह जुझारू बने.
एक बार एक ढाबे पर सोमरस के झोंके में एक पुलिस वाले से जूझ गये, लेकिन पुलिस वाला उनसे भी ज्यादा जुझारू निकल गया. नेता जी जान बचाने के लिये जूझते हुए आगे-आगे भागे, पुलिस वाला पीछे गाड़ी दौड़ाकर उनके घर तक छोड़ आया. उनके हम उम्र बताते हैं कि वह गली में नहीं घुंसे होते तो फिर घूंसे ही घूंसे होते. इस तरह की उनकी जूझने की तमाम किस्से लोगों की जुबान पर है. उनके एक परिचित कहते हैं कि अगर इन किस्सों को लयबद्ध कर दिया जाये तो एक ऐतिहासिक किताब बन सकती है, लेकिन मुई कामचोर पीढ़ी कुछ लिखना ही नहीं चाहती.
खैर, किताब भले ना लिखी जा सकी हो, लेकिन उनके जुझारूपन की तमाम कहानियां हमारी उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर मुंहजुबानी सुनाई जाती हैं, ठीक बुंदेले हरबोलों की तरह. कहा जाता है कि उनके जूझने के लपेटे में जो भी आ जाये उसे छोड़ते नहीं हैं. एक बार तो जूझते-जूझते अपने प्रदेश के सीएम को केक खिला डाला, उनके हैप्पी वाले बर्थडे पर. नेताजी के इस जूझारू प्रवृत्ति का तो किसी को पता भी नहीं चलता, अगर इसकी ऐतिहासिक तस्वीर सामने नहीं आई होती. इसकी बाकायदा तस्वीर हिंची गई थी. यह तस्वीर कितने काम आई यह भी अपने आप में ऐतिहासिक है.
बाद में सीएम से जूझने वाली यह तस्वीर इनके उसी सरकारी घर वाले ड्राइंगरूम की शोभा बनी, जिसका किराया जमा करना इन्हें कतई पसंद नहीं है. और जो काम इन्हें पसंद नहीं है कोई माई का लाल इनसे नहीं करा सकता. जूझ जायेंगे, बेईज्जत हो जायेंगे, एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे, लेकिन जो नहीं पसंद है तो नहीं पसंद है. वैसे, पसंद तो इन्हें बिजली का बिल जमा करना भी नहीं है, लेकिन मजाल है कि कोई सरकार इनके जुझारूपन पर उंगली उठा दे. वैसे भी, सुरक्षाकर्मी के साथ चलते हैं तो सरकार भी इनसे डरी ही रहती है.
लाल टोपी वाली सरकार में भी नेताजी का जुझारूपन पूरा झूम के चला. तब बात-बात में सीएम साहब इनके मित्र पाये जाते रहे. मौके-बेमौके इनके फोटो हींचने वाले सहयोगियों के प्यार से इनके जुझारूपन की दुकान जमकर चल निकली. लाल टोपी वाली सरकार में एक पत्रकार जल कर मर गये. कहने वाले कहते रहे कि आग एक मंत्रीजी के कहने पर पुलिसवालों ने लगाई. लाल टोपी वाली सरकार की किरकिरी होने लगी. मामला पत्रकार से जुड़ा था तो बात बिगड़ने लगी. नेताजी तो पत्रकारों के नेता थे, लिहाजा पत्रकार हित में सरकार की किरकिरी पसंद नहीं आई.
उन्हें तो पत्रकार के पक्ष में सरकार से जूझना ही था. लगे जूझने. गजबै जूझे. इतना जूझे कि पूछिये मत. सरकार की तरफ से जूझकर-जूझकर पत्रकार के मौत की कीमत भी तय कराई, लेकिन जल मरे उस पत्रकार का दोस्त मुंआ उनकी तरह जुझारू नहीं निकला. नासपीटा अपनी तथा मरे दोस्त की कीमत लेने से ही इनकार कर दिया, ईमानदार कहीं का. खैर, अब नई सरकार में नेताजी जूझ नहीं पा रहे हैं. नये वाले सीएम साहब केक-वेक से जन्मदिन भी नहीं मनाते हैं तो नेताजी को जूझने में पूरी दिक्कत हो रही है.
इस सरकार में नेताजी के जुझारूपन पर पाबंदी लगाने की साजिश रची जा रही है. उन्हें कहीं भी, किसी भी विभाग में जूझने नहीं दिया जा रहा है. नेताजी के मुंये कुछ घोषित-अघोषित दुश्मन भी हैं, जिसके चलते नेताजी का पूरा मुंह गुस्से से लाल है. वैसे, मुंह को पान भरकर हमेशा ‘लाल’ रखने वाले नेताजी का मुंह गुस्से से ‘लाल’ होने के बाद इतना ‘लाल’ हो गया है कि हम इस कलर पर जोर देने के लिये अंग्रेजी का ‘The’ जोड़कर इसे ‘The लाल’ कह सकते हैं. ‘लाल’ में अंग्रेजी के ‘द’ लग जाने से पूरा कलर-रंग चटख होकर उभर आता है.
हां, यूपी में नेताजी को जूझने का मौका नहीं मिल रहा है तो मुंबई निकल लिये हैं. बताते हैं वहां चुनाव आ गया है, तो वहां जूझ रहे हैं. एक अखबार के अपने सजातीय मित्र के सहयोग से अब वहीं से जुझारूपन में बाधक बनी सरकार से हर मोर्चे पर दोपहर में ‘सामना’ कर रहे हैं. मुंबई से ही उत्तर प्रदेश को हिलाने में जुटे हुए हैं. यूपी वाले वजीर-ए-आला से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले एक डिप्टी-आला, जिनको महाराष्ट्र की जिम्मेदारी मिली है, को साधकर विधायकी टिकट के लिये जूझने वाले नेताओं की हेल्प कर रहे हैं. टिकट दिलाने में मदद कर रहे हैं. इतने हेल्पफुल और मददगार पत्रकार नेता धरती पर बिरले ही जन्म लेता है. नई पीढ़ी को पत्रकारिता के असली मायने बताते-समझाते इस महानायक को कई बार अपने चरण से स्पर्श!
इस व्यंग्य के लेखक अनिल सिंह लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
मनीष दुबे
October 3, 2019 at 6:16 pm
वाह ! अईसे नेताजी को अपने भी चरणों का परनाम पहुचे, यहाँ आ न पाएं तो अपना धाम बताएं!
Avinash Singh Gautam
October 3, 2019 at 6:17 pm
शानदार लेख अनिल भाई साहब को लाख-लाख बधाई
वैसे तिवारी और उनकी चाटुकार पत्रकारिता मुझे कभी पसंद नहीं थी
पत्रकारिता जगत के प्रत्येक खंभे पर बारीकी से अपनी आरी चलाता है यह आदमी
मनीष दुबे
October 3, 2019 at 9:53 pm
सहमत