मेरी और मेरे तीन मित्रों की मध्य अप्रैल 2018 में कश्मीर की यात्रा ऐसे समय हुयी जब कश्मीर अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। वहां हिंसा है, अविश्वास, नफरत, भय और डर है। जो कश्मीर अपनी सुन्दरता के लिये विख्यात था, सैलानियों से गुलजार रहता था, वहाँ आज उदासी और सूनापन है। सैलानियों की संख्या मनोहर मौसम में बहुत कम है। जिस कारण वहाँ की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है।
देश भर में वहाँ की बहुत डरावनी स्थित दिखायी जा रही है जिस कारण लोग वहां जाने से डर रहे हैं। परन्तु वहां जाने पर हमें ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ क्योंकि सैलानियों से उनका व्यवहार बहुत ही सौहार्दपूर्ण है। जहां भी जाते थे सब जगह लोग प्रेम से मिलते थे। उदाहरण के लिये बताऊं कि होटल का मालिक एक नौजवान था जिसने न केवल आदर दिया वरन चलते समय मुझे उपहार स्वरूप हिन्दी में अनुवादित कुरान भेंट की और कहा-ष्यह मेरी मुहब्बत की निशानी आपके पास रहेगी।
मैं अपने तीनों साथियों के साथ जम्मू से टैक्सी में रवाना हुआ। श्रीनगर के रास्ते में टैक्सी के 28 वर्षीय कश्मीरी युवक जो कि टैक्सी चला रहा था ने पूरे रास्ते हमको कश्मीर की स्थित की जानकारी दी! उसके दो भाई फौज की गोली से मारे गये थे इस कारण उसके भीतर फौज के लिए घृणा के भाव थे जो कि स्वाभाविक भी था! उसने जितनी बातें बतायी लगभग सभी कश्मीरी जिनसे हम लोग मिले वहीं बाते बता रहे थे। उसने बताया हम लोग 2-3 महीने में आजादी ले लेगें। उसके इस दावे पर हम मन ही मन मुस्करा रहे थे। हम लोग लगभग अपरान्ह 3 बजे अनंतनाग पहुंचे वहां से अकड़ गांव जो लगभग 30 किलोमीटर दूर था के लिये रवाना हुये। अकड़ गांव में जिनके यहां हम जा रहे थे वे हमारे एक मुस्लिम साथी के नजदीकी मित्र थे।
वे लोग काफी सम्पन्न थे। उनके एक भाई गाड़ी से हम लोगों को लेकर अपने घर गये। मार्ग में उनसे जो बातचीत हुयी कमोबेश वही थी जो टैक्सी ड्राईवर ने बतायी थी। उसके मन में भी केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार के प्रति काफी आक्रोश था। उनके घर में अखरोट व बादाम के बाग थे। उनके घर में हम लोगों का स्वागत किया गया था और जबरदस्त मेहवान नवाजी हुयी थी। दूसरे दिन हम श्रीनगर आ गये जहां एक होटल में ठहरे। वहां भी काफी सन्नाटा था। रास्ते में एक बड़ा सूर्य मंदिर जो अनंतनाग के पास था वहां हम लोगों ने दर्शन किया। वहां पर कुछ हिन्दू स्त्री-पुरूष तथा सिक्खों से बात हुयी।
उन्होंने बताया कश्मीर में उन लोगों को किसी प्रकार की परेशानी नहीं है तथा सभी जाति के लोगों में प्रेम-भाव स्थापित है। परन्तु कश्मीरियों का दर्द असहनीय हो गया है और एक जख्म की तरह पक गया है जो छूते ही फूटकर बहने लगता है दहशत तनाव और तबाही के इस दौर में कश्मीरी निडर होते जा रहे है जो स्वयं में एक खतरनाक स्थिति है। बातचीत में उनका कहना था कि चाहे जितने लोगों को मार दें हम अपनी आजादी के कदम को पीछे नहीं हटायेंगे। दिन प्रति दिन नये-नये मिलिटेन्ट पैदा होते जा रहे हैं। अधिकांश उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवक हैं। शायद ही कोई घर बचा हो जहां एक-दो नौजवान मारे या घायल न हुये हों।
हम लोगों ने बहुत कम समय में कश्मीरियों के विभिन्न वर्गों के लोगों से जो बातचीत की उससे यह जानकारी मिली 1987 में हुये कश्मीर विधानसभा चुनाव कश्मीर के चुनावी इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह हैं। इस चुनाव में नौजवानों तथा सभी लोगों में बड़ा उत्साह था। मुस्लिम युनाइटेड फ्रन्ट पार्टी को चुनाव में अच्छा समर्थन मिल रहा था। मुताहिदा मैहास पार्टी के मुहम्मद यूसुफ शाह(जो बाद में सैय्यद सलाहुद्दीन के नाम से जाना गया) जीत रहे थे परन्तु षडयन्त्र करके हरवा दिया गया। इसी का एजेंट था यासीन मलिक।
यही लोग तथा अन्य संगठन के लोग पाकिस्तान चले गये और वहां से मिलिटेन्सी की ट्रेनिंग और हथियार लेकर कश्मीर आये। 1988 से मिलीटेन्सी की शुरूआत हुयी। उसी समय प्रभुसत्ता की लड़ायी लिबरेशन फ्रंट ने शुरू की। उसी समय से अनेक संगठन आजादी की जद्दोजहद में लग गये। 30 वर्ष से आज तक मिलीटेन्सी और पाकिस्तान की फौज से बराबर भारत सरकार का छद्म युद्ध चल रहा है जो अब तक समाप्त नही हुआ। यद्यपि देश की फौज अनेक आतंकी संगठनों को समाप्त करती रही। परन्तु बीच-बीच की घटनाओं ने कश्मीर के माहौल को विषाक्त बनाया।
1987 के चुनाव में जो गड़बड़ियां की गयी उससे हुर्रियत के नेताओं ने उसके बाद से सभी चुनावों का वहिष्कार किया। वहां का लोकतंत्र सेना और सुरक्षा कर्मियों के अधीन हो गया। कश्मीरी पंडितों का 1990 के आस-पास से जो पलायन हुआ उसने भी कश्मीर की धर्मनिरपेक्षता को चोट पहुंचायी। कैसे वहां से पलायन हुआ इस पर वहां के लोगों की राय एक नहीं है। कुछ तो डर से भागे और अधिकांश लोग किसी षड्यन्त्र के अन्र्तगत वहां से निकाले गए। इसके पीछे उस समय के राज्यपाल जगमोहन की भूमिका भी सदिंग्ध है। उनके समय में वहां के हालात को खराब करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उस समय बहुत कश्मीरी मारे गये थे।
वर्ष 2008 में उभरे अमरनाथ श्राइन विवाद ने फिर से वहां की स्थिति में असिहष्णुता पैदा कर दी। जिस पर काफी आंदोलन चला और उसमें भी काफी लोग मारे गये थे। अंततः उसको वापस लिया गया। 2010 में एक बार पुनः वहां पर जबर्दस्त हिंसा हुयी। एक बालक जो कि साइकिल पर था उसको सेना के किसी जवान ने गोली मार दी जिससे कश्मीर में हिंसा भड़क उठी और लगभग 6 महीने तक कर्फ्यू लगा रहा। इसमें भी काफी लोग मारे गये। उसके बाद एक साल तक हालात ठीक रहे। 2016 में एक बार फिर वहां के हालात बद से बदतर हो गये। बुरहान वानी को मारे जाने से उपजी हिंसा ने कश्मीर को ऐसा अभिशाप दिया कि आज की तारीख तक वहां हिंसा रुकी नही। 30 वर्ष की अवधि कोई कम नही होती जब देश की सेना को अपने देश के भूभाग पर एक प्रकार का युद्ध करना पड़े।
यद्यपि आतंकवादी संगठन तथा पाकिस्तान द्वारा भेजे गये आतंकवादियों को कश्मीरियों का कोई समर्थन नहीं है। कुछ अलगाववादी नेताओं को हो सकता है। वहां पर जो बीच-बीच में पाकिस्तानी झण्डे दिखते हैं वह फौज को चिढ़ाने के लिए हो सकते हैं, परन्तु स्थानीय लोगों का उनको कोई व्यापक समर्थन नहीं है। वहां की जनता पाकिस्तान से किसी भी कीमत पर नहीं मिलना चाहती है परन्तु केन्द्र और राज्य सरकारों को पसंद न करने के कारण वह भारत से भी नहीं मिलना चाहते हैं। वह मुकम्मल आजादी चाहते हैं। वहां के लोग पत्थरबाजी जो करते है वह भी अपने लोगों को फौज से छुड़ाने के लिए करते हैं। इसमें वहां के छात्र और लड़कियां बुरका पहनकर हिस्सा लेती हैं और जोश पैदा करने के लिए आजादी का नारा लगाते हैं। इन सब बातों को हमें समझना पड़ेगा।
वहां पर अस्पताल में कुछ उन लड़कों से मिला जो पैलेटगन से आहत होकर अंधे हो गये हैं। उन्होंने बताया हजारोें युवक अंधे हो चुके हैं। क्या यह ठीक होगा कि हमारे देश के कश्मीरी नवयुवक अंधे हो जाये? मैं अलगाववादी नेता मीर वाइज से मिला जो हुर्रियत (एम) के अध्यक्ष हैं। उनका व्यवहार मुझसे काफी अच्छा था। मुलाकात बहुत थोड़ी देर के लिए हुयी थी क्योंकि वह कहीं जा रहे थे। उन्होंने मुझको दूसरे दिन आने को कहा तथा देर तक बात करने की बात कही परन्तु मुझे दूसरे दिन सुबह वापस आना था इसलिए मैंने मना कर दिया। परन्तु मेरी डायरी में देशवासियों के लिए एक संदेश लिखकर दिया और अपने हस्ताक्षर किये। हम कश्मीर के लोग अपने भारतीय भाई-बहनों से आग्रह करते हैं कि कश्मीर के इनोसेंट लोगों की किलिंग को रोकने के लिए आवाज उठायें और सरकार से शांति पूर्वक कश्मीर के लोगों से बात करने की अपील की, जिससे कोई समाधान निकल सकें।
अंत में जो कुछ भी मैंने लिखा वह सब कश्मीरियों से बातचीत के बाद लिखा। क्या सच है क्या झूठ है इसकी मीमांसा पाठक स्वयं करें! मैं तो यह जानता हूं कि हम कहते हैं कश्मीर हमारा अभिन्न अंग हैं, तो क्या केवल भूभाग ही अभिन्न अंग है, वहां के लोग नहीं। यदि वे हमारे अभिन्न अंग हैं तो फौज का दबाव कब तक? यदि पूरी कौम नहीं रही तो भूभाग लेकर क्या करेंगे। अपने देश वासियों को फौज के दबाव से आहत तो कर सकते हैं, परन्तु अपना नही बना सकते।
इस यात्रा संस्समरण के लेखक मृदुल कुमार सिंह से संपर्क 7499843500 के जरिए किया जा सकता है.
https://www.youtube.com/watch?v=55NezS4H4_4
AA RAM
July 24, 2018 at 4:34 pm
जनता तो पलायन कर गई है, राष्ट्रवादी दोगली नीतियों के कारण अपने देश में शरणार्थी बन गये हैं, कथित बुद्धिजीवी आतंकियों को जनता बताने में लगे हैं. ये नहीं बताते हैं कि कैसे 370 को खत्म करके कश्मीर का अलगाव खत्म किया जाए
Ambrish Pathak
July 25, 2018 at 5:10 am
कश्मीरियों का बर्ताव आपके साथगर्मजोशी से भरपूर रहा, यह एक एक बात है, और वह मुक्कमल आज़ादी चाहते हैं यह बिल्कुल अलहदा। सवाल यह है कि क्या उनके लिए आज़ादी के मायने कुछ अलग हैं? और अगर हैं, तो वह क्या हैं? कैसे उनकी आज़ादी, एक दिल्ली, मुम्बई, पटना और अन्य किसी भारतीय नगर के बाशिंदे से कम है? जैसे आपको और मुझे अपना-अपना रिलीजन, रीति-रिवाज, संस्कृति फॉलो करने की आज़ादी है, उन्हें भी है। अन्य हुक़ूक़ जैसे सरकारी मुलाज़िमत हासिल करने का हक़, मतदान का अधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता, व्यापार, मकान, दुकान, विवाह, संपत्ति, नागरिकता, पासपोर्ट व दूसरे सारे हुक़ूक़ जो हमारे-आपके पास हैं, उनके पास भी हैं। …..नहीं क्या? तो उन्हें आखिर आज़ादी का कौन सा ऐसा म्यार हासिल करना है, जिसे वह समझा नहीं पा रहे और हम समझ नहीं पा रहे…..???? क्या इस बिंदु को समझने का आपने कश्मीर प्रवास के दौरान कुछ प्रयास किया?????
अगर किया तो इसे जानने की उत्सुकता है।