सिंहस्थ पर्व जैसे विशुद्ध धार्मिक आयोजन मे सरकार की भूमिका कानून व्यवस्था और यातायात प्रबंध के अलावा ज्यादा से ज्यादा साफ सफाई और पानी की आपूर्ति तक सीमित रहनी चाहिए। इसके बरक्स उज्जैन मे सिंहस्थ सरकारी आयोजन बन कर रह गया है और साधु संत और अखाड़े अतिथि की भूमिका मे सिमट गए हैं। सब जानते हैं कि सिंहस्थ आस्था का पर्व है और धर्मप्रेमी जनता तथा अंधभक्ति और अंधविश्वास मे डूबे श्रद्धालु खुद ब खुद वहाँ पहुँचते हैं।उन्हे बुलाने के लिए प्रचार की कतई जरूरत नहीं होती है। पिछले तीन सिंहस्थ के समय मैं मध्यप्रदेश के सरकारी प्रचार विभाग में कार्यरत था और पर्व के समय वहाँ जाता भी रहा था। तब केवल नाम मात्र की सरकारी विज्ञापनबाजी होती थी.
इस बार ऐसा लग रहा है कि सिंहस्थ में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी को सरकार ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है। तभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर मीडिया मे विज्ञापनबाजी पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। मोटी रकम खर्च कर डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिक जैसे चैनलों को भी विज्ञापन दिए गए हैं। अखबारों और न्यूज़ चैनलों की खूब चाँदी है। इसके बावजूद पहले शाही स्नान मे सरकारी अनुमान से नब्बे प्रतिशत कम लोग ही पहुंचे! जो पहुंचे भी उनकी भीषण गर्मी में 10 किमी पैदल चलने से हुई दुर्दशा का हम और आप अनुमान ही लगा सकते हैं।
उधर गर्मी के इस मौसम मे पूरा प्रदेश जल संकट से जूझ रहा है पर सरकार सिंहस्थ की आस्था मे डूबी हुई है। इंडियन एक्सप्रेस ने अपने भोपाल संवाददाता मिलिंद घटवई की रिपोर्ट पहले पेज पर छापी है जो बुंदेलखंड का दर्द बयान कर रही है। दैनिक भास्कर ने मालवा के धार मे जल संकट की खौफनाक खबर फोटो के साथ पहले पेज पर प्रकाशित की है। भास्कर ने ही भोपाल के कोलार इलाके मे गंदे पानी की पूर्ति की खबर छापी है। पत्रिका ने मंडला जिले के गाँव का फोटो छापा है जहां लोग बच्चों को कुएं में उतार कर पानी भरवा रहे हैं. नईदुनिया ने बैतूल जिले के दूरदराज़ का फोटो छापा है जिसमे एक महिला गड्ढा खोद कर पानी की तलाश कर रही है। ऐसे मे पूरी सरकार का उज्जैन तक सिमट कर रह जाने का क्या अर्थ है..? प्रदेश के सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की दुर्दशा और उनमे डाक्टरों और मास्टरों की कमी पर खबरें छपती ही रहती हैं!
भोपाल से श्रीप्रकाश दीक्षित की रिपोर्ट.