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सुख-दुख

लिव डेंजरसली, खतरनाक ढंग से जिओ : ओशो

-ओशो-

जो आदमी चैबीस घंटे खतरे और असुरक्षा में जीता है उसकी आत्मा में चमक आ जाती है। ऐसी चमक, जिस चमक का हमें कोई भी पता नहीं। जो आदमी चौबीस घंटे भाव से जीता है कि अगली घड़ी क्या लाएगी मुझे पता नहीं। मैं पहले से कैसे तय करूं, जो आएगा उसको रिस्पांड करूंगा। जो आएगा उसके साथ संवाद करूंगा, जो होगा, हो सकेगा, वह हो जाएगा। ऐसा आदमी चौबीस घंटे जागा हुआ जीता है। उसके भीतर विवेक पैदा होता है।

सिद्धांतवादी के भीतर विवेक कभी पैदा नहीं होता। क्योंकि उसके पास हर परिस्थिति का उत्तर पहले से तैयार है, उसे किसी परिस्थिति को कोई उत्तर देने के लिए अब सोचने की कोई जरूरत नहीं। उसका विवेक मर जाता है। इस सूत्र को खयाल में रख लें। अगर अपने विवेक को जगाना है तो असुरक्षा में जीएं, खतरे में जीएं।

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नीत्शे ने अपनी टेबल पर एक वाक्य लिख रखा था। छोटे से दो शब्द थे, लेकिन बड़े कीमती और सभी धार्मिक आदमियों को समझ लेने जैसा है। उसने लिख रखा था-लिव डेंजरसली, खतरनाक ढंग से जीओ।

लेकिन खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होगा? जहर पीओ, खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? वृक्षों के ऊपर मकान बनाओ। खतरनाक ढंग से जीने का मतलब क्या होता है? सड़क पर सो जाओ, खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? कि जब वह लाल राक्षस जैसी घूमती हुई बसें जोर से हार्न बजाएं तो खड़े रहो, हटो मत।

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नहीं, खतरनाक ढंग से जीने का यह मतलब नहीं होता। खतरनाक ढंग से जीने से एक ही मतलब होता है कि, सुरक्षा में मत जिओ। सुरक्षा का इंतजाम मत करो। बंधे हुए सिद्धांतों से बचो, खतरनाक ढंग से जीने का मतलब है जिओ, जीने को पहले से नियोजित मत करो। उसके लिए फाइव ईयर प्लान मत बनाओ। जीने के लिए, अपने जीने के लिए कोई पूर्ववद्ध योजना मत करो। कोई पहले सक्त ढांचा मत बनाओ जिसमें कि जीना है जीओ सीधे और पाओ, और जहां जिंदगी है वहां संघर्ष है। और जो संघर्ष से निकले, उसमें आगे बढ़ो।

इसका एक ही परिणाम होता है कि विवेक जाग्रत होता है। जहां विवेक जगा वहां आत्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। जहां विवेक अपनी पूर्णता में जगता है वहां परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जितनी ज्यादा सुरक्षा, उतनी ही आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। सुरक्षावादी शरीरवादी होता है। सिद्धांतवादी शरीरवादी होता है। हां, आत्मा का अनुभव उसे कभी नहीं हो पाता। जैसे ही आत्मा की चमक पैदा होती है भीतर, जो कि हो ही जाती है जैसे हम छुरी को पत्थर पर घिसें और और उसमें धार आ जाए, ऐसा ही जो आदमी रोज जिंदगी की नई-नई परिस्थितियों से टक्कर लेता रहता है, उसके विवेक में धार आ जाती है। उस धार और चमक के परिणाम हैं। वही प्रतिभा है, वही जीनियस है। वही आभा है, वही हम जिसे कहें कि व्यक्ति के मुखमंडल के चारों ओर जो प्रकाश घेर लेता है, वह उसी पैनी धार की चमक है। उस चमक को पाए बिना कोई आदमी परमात्मा को नहीं पा सकता।

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ये मरे हुए लोग परमात्मा को नहीं पा सकते। जो चारों तरफ सिद्धांत की गठरी बांध कर जी रहे हैं, बिलकुल सुरक्षित। जिन्हें स्वर्ग-नरक का भी पता है, मोक्ष का भी पता है; जिन्हें यह भी पता है कि क्या करने से नरक जाएंगे और क्या करने से स्वर्ग जाएंगे। जो एक-एक कौड़ी का हिसाब करके कैल्कुलेशन करके जी रहे हैं। जो एक पैसा भिखमंगे को दे रहें हैं, तो बही में लिख रहे हैं कि स्वर्ग में इंतजाम करना है कि एक पैसा भिखमंगे को दिया। एक चार दाने किसी गरीब को दिए हैं तो जाकर भगवान से बदला ले लेना। जो इस भांति जी रहे हैं इन मरे हुए लोगों के लिए, कोई मोक्ष नहीं है। इन मरे हुए लोगों के लिए कोई भगवान नहीं हो सकता।

असल में जहां कैलकुलेशन है, जहां गणित है, वहां जिंदगी नहीं होती। जिंदगी के रास्ते गणित-मुक्त, जिंदगी के रास्ते तर्क-मुक्त, जिंदगी बड़ी बेतर्क है। जिंदगी है तर्कातीत। जिंदगी के गणित कुछ और ही हैं। जो हमारे हिसाब से नहीं चलते। इसलिए आदमी कपड़ा कितना पहनना है कि कहीं नरक न चला जाऊं, खाना कितना खाना है, कि कहीं नरक न चला जाऊं क्या बोलना है क्या नहीं बोलना, कैसे उठना, कैसे बैठना, इस भांति सब तरह से जोड़-तोड़ करके जी रहा है। इस गरीब आदमी का नरक में भी जगह मिल जाए तो बहुत है। इस गरीब आदमी को कहीं भी जगह नहीं मिल सकती। यह बहुत दीनहीन है। यह जी ही नहीं रहा है।

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साभार- मैं कौन हूं? (ओशो)

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