भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से…
उद्योगपित दिवालिया होने लगता है तो हंगामा मच जाता है. उसे फटाफट राहत देने की कवायद शुरू हो जाती है. उद्योगपति टैक्सचोरी में फंसा जाता है तो सरकार साहिब माफी देने में यह कहते हुए जुट जाती है कि ऐसा न करने से देश में निवेश और विकास का माहौल प्रभावित होगा. लेकिन जब खेती-किसानी संकट में पड़ जाए तो कोई नहीं बोलता. सत्ता का चरित्र बिलकुल साफ तौर पर सामने है इन दिनों. कारपोरेट मीडिया का बड़ा हिस्सा एक बड़े दलाल की भूमिका में है जो सत्ता को बचाने की खातिर मुख्य मुद्दों से ध्यान डायवर्ट करने में लगा रहता है. एक गजेंद्र के मरने पर आम आदमी पार्टी को घेरने के लिए इतना हायतौबा हुआ लेकिन देश भर में किसान जगह जगह धड़ाधड़ आत्महत्याएं कर रहा है तो कोई दिन भर इस पर लाइव मुहिम नहीं चला रहा.
खेती-किसानी को लेकर यह देश महासंकट से गुजर रहा है. आपातकाल की सी स्थिति से दो-चार है. हम सब जानकर अनजान बने हुए हैं, चुप्पी साधे हुए हैं. नेपाल में भूकंप पर हमारी सक्रियता प्रशंसनीय है. पर हम क्यों नहीं ऐसी ही तत्परता अपने देश में भी दिखा रहे. लगातार मर रहे किसानों को लेकर हम बिलकुल निष्ठुर बने हुए हैं. गेंद इस पाले से उस पाले लुढ़काई जा रही है. जो किसान जिंदा हैं और मुश्किल में हैं, उनकी सुध लेनी चाहिए. सरकारों को अपना खजाना इन किसानों को राहत प्रदान करने के लिए खोल देना चाहिए. नीचे तीन रिपोर्ट्स को शेयर कर रहा हूं. पढ़ लीजिए. आंखें खुल जाएंगी. कई लोग अपनी अपनी सरकारों (कोई नरेंद्र मोदी भक्त तो कोई अखिलेश यादव भक्त ) को प्रोटेक्ट करने के लिए किसानों को गालियां दे रहे हैं. किसान की आत्महत्याओं को सामान्य मौत बता रहे हैं. ऐसे दलाल और सामंती मानसिकता वाले लोगों से कहना चाहूंगा कि दिन रात फेसबुक पर कलम चलाने से खेत में फसल नहीं उग जाती. एनजीओ के धंधे से आए पैसे से आपका परिवार तो चल सकता है, लेकिन जो सिर्फ खेत व खेती पर निर्भर है, वह अगर जिंदा है तो जीते जी मरणासन्न है.
आत्महत्या करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए. आत्महत्या आखिरी विकल्प के तौर पर व्यक्ति अपनाता है. किसान शौक से सुसाइड नहीं कर रहा है, वह अपनी इज्जत और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए जान दे रहा है. वह कर्ज और विपन्नता के कारण परिवार में मुंह न दिखा पाने की स्थिति को महसूस कर प्राण त्याग रहा है. किसानों के मसले को सोशल मीडिया पर शेयर करिए दोस्तों. साथियों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करिए. मैं किसानों की पीड़ा इसलिए शिद्दत से महसूस कर पाता हूं क्योंकि कक्षा आठ तक की पढ़ाई गांव से की है और अब भी गांव जाना लगा रहता है. फसलों के खराब या ठीक होने पर परिजनों के आंखों में दुख या खुशी का भाव गहराई से महसूस किया है. उन घरों की स्थिति ज्यादा खराब होती है जिनके यहां कोई युवा नौकरी में नहीं है और जिनका सब कुछ किसानी पर ही निर्भर है. ऐसे परिवारवाले फसल तबाह होने पर बिजली और खाद में खर्च की गई रकम तक नहीं निकाल पाते और कर्ज दर कर्ज लेते हुए एक अंतहीन दुष्चक्र में फंस जाते हैं.
हम सभी वे लोग जो गांव से आए हैं, उन्हें किसानों की पीड़ा, दुख को बहुत प्रमुखता से सोशल मीडिया पर उठाना चाहिए अन्यथा हमारी धरती, हमारी माटी, हमारे खेत, हमारे पुरखे हमें माफ नहीं करेंगे. आबादी, भोजन और परिजनों की निर्भरता के लिहाज से किसान इस देश का बहुमत है. जब बहुमत संकट में है तो समझिए पूरा मुल्क संकट में है. किसान कोई धर्म या जाति या क्षेत्र नहीं. किसान राष्ट्रीयता है. किसान भारत की ताकत है. भारत की पहचान है. पर हम सब बहुत बेशर्मी से किसानों की बदहाली के मुद्दे को इगनोर कर रहे हैं क्योंकि किसान किसी एक जाति, किसी एक धर्म, किसी एक क्षेत्र का नहीं है. वोटबैंक वाले इस लोकतंत्र में किसान का कोई धर्म, जाति, क्षेत्र न होना सचमुच बहुत पीड़ादायी है… अन्यथा अगर किसान कोई जाति या धर्म या क्षेत्र होता तो उसकी आत्महत्या पर पूरे देश में बवाल मच चुका होता.
तीन रिपोर्ट्स ये हैं…
किसान ने डीएम ऑफिस के बाहर लगाई फांसी
http://goo.gl/Oph5pE
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किसान आत्महत्या पर डीएम का गैर-जिम्मेदाराना बयान
http://goo.gl/LyxN4T
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हफ्ते भर में राजस्थान में चौथे किसान ने आत्महत्या की
http://goo.gl/uG82Wm
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.