दिल्ली आज किसानों की हो चुकी है. हर ओर किसान. रंग-बिरंगे झंडों से लैस किसान. कर्ज माफी और फसलों का वाजिब मूल्य इनकी मुख्य मांगें हैं. लेकिन मीडिया खामोश है. मीडिया इसलिए खामोश है क्योंकि ये गोदी है. मीडिया इसलिए खामोश है क्योंकि यह पेड है. मीडिया इसलिए खामोश है क्योंकि बाजारू हो चुका यह चौथा खंभा भ्रष्ट सत्ताधारियों से कुछ टुकड़े पाने की लालसा में तलवे चाटने को बाध्य है.
अखबार हों या चैनल, सबने फिलहाल किसानों को हाशिए पर डाल रखा है. अखबार वाले तो हमेशा की तरह किसानों के आंदोलन से शहरियों को होने वाली कथित दिक्कतों को छाप कर अपने किसान विरोधी चरित्र को ही उजागर करते रहते हैं. देश के लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उनकी आर्थिक हालत बेहद खराब है. उन्हें तरह-तरह से लूटा जा रहा है, बीमा के नाम पर, फसल खरीद के नाम पर, कर्ज लेने-देने के नाम पर. ये किसान जब अपनी बात अंधी-बहरी सरकारों को सुनाने आते हैं तो अखबार वाले बजाय इन किसानों की समस्याओं की गहनता से पड़ताल कर उनकी वास्तविक पीड़ा को उजागर करने के, वे किसानों के अनुशासित मार्च से कथित तौर पर लगने वाले जाम को लेकर हल्ला मचाते हैं. देखिए जरा दैनिक जागरण के इस सत्ता परस्त और किसान विरोधी कवरेज को…
टीवी वाले तो आश्चर्यजनक तरीके से किसानों के आंदोलन पर मौन हैं. केवल एनडीटीवी ही इस मसले पर दिखा रहा है. इस चैनल के चर्चित एंकर रवीश कुमार किसानों के साथ कदमताल कर उनकी समस्याओं से खुद रुबरु हो रहे हैं और पूरे देश को बता रहे हैं.
इस सबके बीच सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन हर ओर छाया हुआ है. हर कोई किसानों के सपोर्ट में लिख रहा है. दूसरे का लिखा शेयर कर रहा है. सोशल मीडिया पर किसानों के दुख के साथ सबने खुद को कनेक्ट किया हुआ है. दो चीजें खासकर वायरल हो रही हैं. किसान आंदोलन और सत्ता परस्त मीडिया के चरित्र से जुड़ा एक कार्टून व दिल्ली नगर निवासियों से किसानों के अपील का पर्चा.
इन दोनों को लाखों लोगों ने शेयर किया हुआ है. अगर आप भी किसान परिवार से हैं या खेती-किसानी आपके परिजनों का काम रहा है अथवा परिवार-रिश्तेदार किसी भी रूप में खेती-किसानी से जुड़े हैं तो जरूर इन दोनों चीजों को अपने अपने तरीके से शेयर, फारवर्ड, अपलोड कर अपना फर्ज निभाना चाहिए.
देखें मीडिया पर कार्टून और किसानों का परचा….
वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार किसान मार्च की कई तस्वीरें साझा करते हुए फेसबुक पर लिखते हैं-
Ravish Kumar : झंडे के रंग से नहीं मार्च को किसानों की रंगत से देखिए… किसान मार्च में सबको एक ही रंग दिखा। एक ही रंग की राजनीति दिखी। लेकिन दो सौ संगठनों के इस मार्च में झंडों के रंग भी ख़ूब थे।
योगेन्द्र का स्वराज इंडिया पीला-पीला हो रहा था तो राजू शेट्टी का शेतकारी संघटना हरा और सफ़ेद लहरा रहा था। तेलंगाना रैय्य्त संघ का झंडा हरा था। तमिलनाडु के जो किसान निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन कर रहे थे उनका झंडा और गमछा हरा था। सरदार वी एम सिंह का राष्ट्रीय किसान मज़दूर संगठन लाल सफ़ेद और हरे रंग के झंडे के साथ आगे चल रहा था। आसमानी रंग का भी झंडा देखने को मिला।
देश के कई इलाक़ों से आए किसान सिर्फ लाल या हरा झंडा लेकर नहीं आए। वहाँ किसी को एक रंग का प्रभुत्व दिखता होगा मगर कई तरह की बोलियाँ थीं। वैसे लोग थे जो सोशल मीडिया और टीवी के ज़माने में दिखने वालों के जैसे नहीं लगते थे। बहुत से ऐसे थे जो हममें से कइयों से हाल फ़िलहाल के अतीत की तरह नज़र आ रहे थे। समस्याओं का अंबार लगा था।
हर समस्या को सुनकर दिलो दिमाग़ में लाल बत्ती ही जलती थी। लाल बत्ती कम्युनिस्ट नहीं होती। ख़तरे का निशान कम्युनिस्ट नहीं होता। एक किसान से पूछा तो कहा कि जब भी हम भू अधिग्रहण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते हैं तो लाल पार्टी ही आती है। हम तो उन्हें वोट भी नहीं देते मगर आते वही हैं। अब कोई आता नहीं तो हम किसान सभा का झंडा लेकर आए हैं।
सवाल है कि इन चार सालों में मुख्यधारा की किस पार्टी ने किसानों की लड़ाई लड़ी है? इसमें कुछ दलों के झंडे नहीं थे। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, रालोद, राजद, जदयू, आप, तृणमूल, अकाली। क्या किसान इन्हें वोट नहीं देते हैं? इन्हीं को तो देते रहे हैं।
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