अरुण सिंह-
जब किसी लेखक-विचारक को बार-बार यह कहना पड़े कि “मेरी किसी से निजी शत्रुता नहीं है, मैं जो कुछ भी है कहता हूँ वह वैचारिक और तर्कसंगत है।” तो हमें अपने आस-पास जमा लोगों के बारे में सोचना होगा।ख़ासकर प्रगतिशील कहे जाने वाले लोगों के बारे में।
हिन्दी के वरिष्ठ कवि-आलोचक कृष्ण कल्पित 11 मार्च को किसी निजी प्रयोजन से जयपुर से लखनऊ आये। यहाँ कई दिन रहे। लखनऊ में जम कर रहे। तमाम साहित्यिक लोगों से मिले। उनके साथ तीन दिन खूब बतकही हुई। तमाम विचारों पर उनकी राय दो टूक है। वे सर्रा जवाब देते हैं। खूब पढ़ते हैं।लगभग सभी विषयों को पढ़ते हैं। साहित्य में “तीखापन” उनकी अभिरुचि है या कहिए कि उनका स्थायी भाव है, ऐसा मुझे लगा। लेकिन इस तीखेपन के भीतर एक सच्चा मन भी है। कदाचित् यह सब उसी मन का विद्रोह हो।
कल्पित जी अपने समकालीन साहित्य-समाज में लगभग सबसे किसी-ना-किसी रूप में जुड़े हुए हैं। अच्छे व्यक्ति हैं, फिर भी बहुतों से ठनी रहती है। इस “ठने रहने” के लिए वे कहते हैं, “मैं सिर्फ़ तार्किक तरीक़े से अपनी बात रखता हूँ और इसी तरीक़े से सामने वाले की बात लेना चाहता हूँ।” उनकी यह बात भी सच है। फिर भी विवाद है। वे जरा कड़वी बात करते हैं या कहिए कि सीधे-सीधे सच कह देते हैं। यह बिलकुल सच है कि उनमें किसी से भी निजी शत्रुता नहीं झलकती। वे कई “बड़ी” हस्तियों के मुखर आलोचक हैं।
उनसे मुलाक़ात होती है तो बहुत से अवान्तर प्रसंग चल निकलते हैं, जिन्हें दर्ज नहीं किया जा सकता है, किन्तु वे महत्त्वपूर्ण हैं।
शिवमूर्ति जी के साथ, सुभाष राय जी व अखिलेश जी के साथ उनकी घंटों बातें हुईं। अजित प्रियदर्शी, कुमार सौवीर, दिव्य रंजन पाठक बाँदा के नरेंद्र पुण्डरीक आदि से घंटों बातें।खूब मज़े में।वे प्रो. रमेश दीक्षित से, वंदना मिश्रा से, कौशल किशोर, भ.स्व. कटियार आदि तमाम लोगों से मिलते हैं। वीरेंद्र सारंग और नवीन जोशी से मुलाक़ात होती है उनकी। शिवमूर्ति के उपन्यास “अगम बहै दरियाव” और सुभाष राय की ताज़ा किताब “दिगम्बर विद्रोहिणीः अक्क महादेवी…” के बहाने चर्चा का एक बड़ा वितान तन जाता है। शिवमूर्ति जी से उनके आवास पर मिलते ही कल्पित कह उठते हैं, “भीखम वाणी अगम की, हर कोई जानत नाय।
जानत है सो कहत नहीं, कहत सो जानत नाय॥” और हँस पड़ते हैं। तो भला शिवमूर्ति जी कहाँ रुकते, और प्रसंग आते ही उन्होंने भी एक टुकड़ा अपनी लय में जोड़ दिया।
पत्रकार व कवि सुभाष राय वहीं शिवमूर्ति जी के यहाँ मिलने आ जाते हैं।बातचीत “अगम बहै दरियाव” से होते हुए वाया मीराबाई, “महादेवी अक्क” तक पहुँचती है। घंटे भर साहित्य की विभिन्न सरणियों से गुजरते हुए हम वापस हुए। हिन्दी साहित्य में इन दोनों रचनाओं से खूब धूम मची है। अक्क देवी से मीराबाई तक की चर्चा चल निकली।यहाँ चाय-पानी, फ़ोटू-फाटू के बाद पत्रकार कुमार सौवीर के ठिहे पर वापसी। थोड़ा विश्राम। शाम को तद्भव के सम्पादक कथाकार अखिलेश के साथ संगत हुई। अखिलेश जी से एकाध घंटे का तय मिलन तीन-साढ़े तीन घंटे चला। प्रेमचंद, ग़ालिब, फ़िराक़, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि से होते हुए क्या मध्यकाल, क्या आधुनिक अथवा आर्ष साहित्य, सब कुछ तो आया इन चर्चाओं में कल्पित जी के साथ। ग्राम्य-जीवन की बातें, हिन्दी साहित्य में अक्क देवी से लेकर मीराबाई तक की तमाम श्रेष्ठ और अनाम रह गईं स्त्री-रचनाकारों की बातें होती हैं। ऐसी सार्थक बातें जो बहुत बार मंचों से भी नहीं हो पाती हैं।
साहित्य के तमाम अनछुए और “अनपेक्षित” पहलुओं पर खूब बातें आयीं।कुछ तो नायाब प्रसंग आये।ऐसे भी प्रसंग जिन पर सार्वजनिक बातें नहीं हो सकती हैं। ऐसे लोगों पर बातें हुईं जिन पर हमारी हिन्दी ठसक करती है। उनकी आदतों-कुआदतों की चर्चा हुई, जिस पर यक़ीन नहीं किया जा सकता है। पत्रकार साथी कुमार सौवीर अपनी तमाम कथित अराजकता के साथ अपने अध्ययन और समझ का लोहा मनवा लेते हैं। वे ही मुख्य मेज़बान थे। उनका घर कई दिनों तक इन सब बातों-चर्चाओं का साक्षी रहा।
कल्पित जी वाद-विवाद-संवाद के व्यक्ति हैं, लेकिन विवाद प्रायः उनके साथ लग जाता है। प्रतिवाद करते हैं। संवाद और शास्त्रार्थ करते हैं, पूरा रस लेते हुए।वे कहते हैं,”हमारी साहित्य की दुनिया बहुत ही छोटी है।इसलिए संवाद और तर्क ही इसकी ताक़त है।” प्रगतिशीलता पर उनकी अपनी मुख़्तलिफ़ राय है।इसे वे और भी व्यापक नज़रिये से लेते हैं।इस पर गौर किया जाना चाहिए। कविता और वैचारिकी पर वे मज़बूती से अपनी बात रखते हैं। वे जब भिड़ंत करते हैं तो पूरे लॉजिक के साथ और कहीं भी तथा कभी भी संवाद के लिए तैयार ही नहीं रहते, बल्कि ख़म ठोककर इसके लिए चुनौती भी देते हैं।
साहित्य में बहुत कुछ बहुत विचित्र तरीक़े से चल रहा है। कल्पित जी कहते हैं कि गीता प्रेस 100 करोड़ प्रतियाँ छाप चुका है और इसमें से लगभग पचास करोड़ तो रामायण व महाभारत हैं और आप इस संख्या को हवा में उड़ा देते हैं भाई!बेशक, इसमें बहुत कुछ अपनाने लायक़ नहीं है, आपत्तिजनक है, उसे छोड़िए, बाक़ी लीजिए। लेकिन नहीं। वे कहते हैं कि गीता प्रेस हिन्दुत्व की बात या उसके लिए काम नहीं करता है, वह सनातन के लिए काम करता है। इस बारीक बात को समझना होगा। इसी तरह आर्य समाज है, नाथपंथी हैं, ये सब हिन्दुत्व से अलग की धाराएँ हैं, पाखंड-विरोधी हैं, लेकिन प्रगतिशील धारा ने उन्हें भी उसी हिन्दुत्ववादी ख़ेमे में ढकेल दिया। कितनों को पता है कि मुंशी प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि ने गीता प्रेस के लिए लिखा है। गीता प्रेस को लेकर कल्पित जी ने एक दीर्घ आलेख लिखा है। उसे पढ़ा जाना चाहिए।
अभी ऊपर कहा ना कि कल्पित जी वाद-विवाद-संवाद के व्यक्ति हैं, लेकिन विवाद प्रायः उनके साथ लग ही जाता है।पिछले दिनों कवयित्री अनामिका की एक कविता-बेजगह- पर टिप्पणी करके फिर मामला गर्म कर दिया।
फ़िलहाल, उनके लखनऊ के इस प्रवास ने यह समझ तो दी ही कि “उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा।” अहमद फ़राज़ के शेर की अर्द्धाली उन पर सटीक बैठती है।
कहीं यह पढ़ा था कि आपका यदि कोई दुश्मन नहीं है तो इसका यह मतलब हुआ कि आप उन जगहों पर भी ख़ामोश रहे, जहाँ बोलना बहुत ज़रूरी था।
कृष्ण कल्पित ज़रूरी जगहों पर ज़रूर बोलने वालों में से एक हैं, और अपनी बात कहने के लिए उन्हें बहुत-से शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे “अक्षम” को अक्षम कहने में चूकते नहीं। तुरंत और इसे ऐसे ही एक शब्द में कह सकते हैं। उनके बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा सकता है, फ़िलहाल यहाँ वह कहना-लिखना अभीष्ट नहीं है।
जब यह लिख रहा हूँ तो मन में बार-बार एक दुविधा भी सिर उठा लेती है कि ऐसे बहुत से लोग हैं जो मुझे बहुत प्यार करते हैं, परन्तु कल्पित जी से उनकी बहुत दूरी है। निश्चित ही मेरा यह लिखा उन्हें चकित कर सकता है। पर मुझे लग रहा है कि साहित्य हमें यह भी सिखाता है कि ऐसे भी लिखा जाना चाहिए और ऐसे लोगों के लिए तो जरूर लिखा जाना चाहिए जो सच को सच की तरह स्वीकार करते हुए उसे व्यक्त करने का साहस रखते हैं। कल्पित जी स्वयं के लिए भी कहते हैं कि मेरे लिखे की धज्जियाँ उड़ा दीजिए, मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन बात जस्टिफ़ाई होनी चाहिए।
खैर, कल्पित जी ही नहीं, उन सभी साहित्यिक-संचारकों से अपेक्षा है कि वे लखनऊ आयें तो सूचित करें ताकि उनके साथ संगत हो सके। संवाद हो सके।लखनऊ का साहित्य समाज संगत के मामले में बहुत उदार है। कल्पित जी पान और रस-पान, दोनों के शौक़ीन हैं और पैदल तो बहुत ही तेज चलते हैं। मुझे अफ़सोस है कि जाते समय उन्हें दो-चार पान लगवा कर दे पाने से चूक गया। पुनः आइएगा कल्पित जी, फिर साथ-साथ खाते हैं लखनऊ का पान!