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सुख-दुख

श्याम मीरा सिंह की नौकरी चली गई लेकिन राजेंद्र माथुर ने तब कृष्ण किसलय और गुंजन सिन्हा की नौकरी नहीं जाने दी थी!

उर्मिलेश-

प्रतिभाशाली युवा-पत्रकार Shyam Meera Singh को इंडिया टुडे ग्रुप ने 18 जुलाई को अपने संस्थान से फौरन हटाने का हुक्म जारी किय़ा। वह इंडिया टुडे ग्रुप के ‘आज तक’ के लिए काम कर कर रहे थे।

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उन्हें एक ऐसे ट्विट के लिए नौकरी से हटाया गया, जो देश के प्रधानमंत्री पर आलोचनात्मक टिप्पणी करती है। श्याम ने एक यूट्यूब चैनल पर कहा कि एक नागरिक के तौर पर उन्होंने वह टिप्पणी की थी। उसका एक खास संदर्भ में था। इसका उन्होंने विस्तार से जिक्र किया. पर उनकी नौकरी चली गई।

एक युवा-पत्रकार की नौकरी खत्म करने के इंडिया टुडे ग्रुप के हुक्मनामे से मुझे एक पुरानी कहानी याद आई। यह कहानी है, इंडिया टुडे से भी बड़े मीडिया समूह की। सन् 1986 में टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप ने बिहार से नवभारत टाइम्स और टाइम्स आफ इंडिया के प्रांतीय संस्करण शुरू करने का फैसला किया था। मेरी नियुक्ति उसी दौरान नवभारत टाइम्स के स्टाफ रिपोर्टर के तौर पर हुई थी। इसलिए, जिस घटना का जिक्र करने जा रहा हूं, वह मेरी आंखों की सामने की है, सुनी-सुनाई नहीं है। इसके अनेक साक्षी आज भी मौजूद हैं।

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नवभारत टाइम्स ने बिहार के डेहरी-आन-सोन नामक मशहूर कस्बे के संवाददाता के रूप में कृष्ण किसलय( दुर्भाग्यवश, पिछले दिनों किसलय का इस महामारी में निधन हो गया ) नामक एक तेज-तर्रार पत्रकार की नियुक्ति की। वह साहसी भी थे और लिखते भी बहुत अच्छा थे। डेहरी आन सोन इलाके का सबसे बड़ा औद्योगिक परिसर था-डालमिया नगर उद्योग समूह। वह इतना बड़ा था कि उसके नाम पर शहर ही बस गया था-डालमिया नगर। इस उद्योग समूह पर टाइम्स ग्रुप के मालिकों का ही स्वामित्व था।

जिन दिनों नवभारत टाइम्स और टाइम्स का पटना से प्रकाशन शुरू हुआ, डालमियानगर बंद पड़ा था। कुछ ही समय पहले उसके कई उपक्रम बंद हुए थे और कुछ घिसटते हुए चल रहे थे। उन दिनों नवभारत टाइम्स के प्रादेशिक पेज प्रभारी थे-ज्ञानेंद्र सिन्हा गुंजन। उन्होंने एक बार किसलय को लगभग हड़काते हुए कहाः आपने कई महीनो से अच्छी खबर नहीं भेजी। छोटी-छोटी खबरें भेज देते हैं। ऐसे कैसे चलेगा? इस पर किसलय़ ने उनसे कहाः सर, हमारे यहां तो बड़ी-बड़ी खबरें हैं। पर ऐसी खबरें आप छापेंगे?

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गुंजन ने तैश में आकर कहाः क्यों नहीं छापेंगे? खबर सही होगी तो हर कीमत पर छपेगी।

फिर क्या किसलय ने कुछ ही दिन बाद डालमियानगर कारखाने की बंदी से उत्पन्न परिस्थिति पर ऐसी खबर भेजी जो टाइम्स ग्रुप की छोडिये, बिहार या देश के दूसरे अखबारों में भी नहीं छापी जाती थी। 12 हजार लोगों के बेरोजगार होने और 25 हजार लोगों की बेहाली और भुखमरी के संकट की वह मार्मिक कहानी थी। गुंजन को अच्छी तरह मालूम था कि वह क्या करने जा रहे हैं। पर वह खबर नवभारत टाइम्स के प्रांतीय पेज पर बड़ी खबर के तौर पर छप गई।

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अखबार के मालिकों के ही स्वामित्व वाले कारखाने की बंदी के दुष्परिणामों की पूरी कहानी। सुबह-सुबह टाइम्स ग्रुप से जुड़े दिल्ली-पटना मे बैठे तमाम प्रबंधकों, संपादकों और अन्य अधिकारियों में हड़कम्प मच गया। बिहार सरकार के मुलाजिम और मंत्री-मुख्यमंत्री भी हैरान थे कि मालिको के ही अखबार में उनकी ऐसी आलोचनात्मक रिपोर्ट के छपने का क्या मतलब है!

सब मान कर चल रहे थे कि किसलय और गुंजन की नौकरी तो अब गई। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। दिल्ली में प्रधान संपादक थे-राजेंद्र माथुर और पटना में स्थानीय संपादक थे-दीनानाथ मिश्र। माथुर को नेहरूवादी या कुछ लिबरल किस्म का संपादक माना जाता था लेकिन कई मुद्दों पर उनके विचार बहुत संकीर्ण और अति-राष्ट्रवादी भी होते थे। पर जाति-वर्ण के मसलों पर वह हिंदी के अन्य संपादकों की तरह नहीं थे। पत्रकारिता को वह सिर्फ एक या दो वर्णों तक सीमित रखने वाले अपने समकालीन संपादकों से बिल्कुल अलग थे। कुछ अच्छे तो कुछ गलत फैसले भी करते थे। पर अपने अंदर कलुष नहीं पालते थे।

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उनकी टीम में तरह-तरह के लोग थे-संघी, कांग्रेसी, समाजवादी, पेशेवर तो धंधेबाज भी।स्थानीय संपादक दीनानाथ मिश्र संघी थे। नवभारत टाइम्स में प्रवेश पाने से पहले वह ‘पांचजन्य़’ में थे। पर आज के संघियों से संभवतः कुछ अलग ढंग के व्यक्ति थे। पता नहीं, संघ वैचारिकी के साथ आज के सत्ताधारी दौर में वह युवा हो रहे होते तो उनका मन-मिजाज कैसा होता! पर उन दिनों वह राजेंद्र माथुर की हर बात गुरू के निर्देश की तरह मानते थे।

किसलय के मामले मे राजेंद्र माथुर या दीनानाथ मिश्र ने नौकरी खत्म करने जैसी बात नहीं सोची। समझा-बुझाकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया। टाइम्स समूह के तत्कालीन चेयरमैन अशोक के जैन को भी इसकी जानकारी मिली थी। पर उन्होंने भी उसे तूल नहीं दिया और दोनों पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।

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सोचिये, आज के मीडिया-परिदृश्य को। किसी युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार की नौकरी पूछताछ, जांच-पड़ताल या पारदर्शी प्रक्रिया अपनाये बगैर खत्म कर दी जाती है, सिर्फ इसलिए कि उसने देश के प्रधानमंत्री के विरूद्ध एक खास तरह का विशेषण लगाकर ट्विट कैसे कर दिया? उक्त विशेषण पर किसी की आपत्ति या असहमति संभव है। पर ट्विट एक सोशल नेटवर्किंग माइक्रोब्लागिंग प्लेटफार्म है, जिसका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है। ट्विटर ने उक्त विशेषण को आपत्तिजनक नहीं पाया। पर पत्रकार जिस संस्थान में नौकरी करता था, उसके प्रबंधन ने उसे इतना आपत्तिजनक पाया कि उसकी नौकरी ही ले ली।

हाल के वर्षों में अनेक मीडिया सस्थानों ने अपने यहां काम करने वाले पत्रकारों को लिखित या मौखिक हिदायतें देनी शुरू कर दी हैं कि वे किसी निजी दायरे या सोशल मीडिया में भी ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करें, जो प्रकाशित न हो या ‘सिस्टम’ से प्रसारित नहीं हुई हो। सोशल मीडिया के मंचों का इस्तेमाल निजी राय व्यक्त करने के लिए नहीं हो! Shyam Meera Singh को उनके इसी ‘गुनाह’ की सजा दी गई है।
फिर तो पत्रकार की स्थिति एक सरकारी बाबू से भी गई गुजरी हो गई है कि वह किसी सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अपनी निजी पसंद, नापसंद या राय नहीं व्यक्त कर सकता!

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क्या हमारे देश के बड़े मीडिया संस्थान व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक संवैधानिक अधिकार और मानव-मूल्य को बेमतलब और गैर-वाजिब मानने लगे हैं? फिर वे मीडिया क्यों और कैसे हैं! शाय़द, उन्हें भी अपने लिए कुछ नया नाम चुनना चाहिए!

अगर कोई मीडिया संस्थान कहता है कि वह तो लोगों को नियुक्त करते समय उनसे अंडरटेकिंग लेता है कि वे सोशल मीडिया पर कोई निजी विचार नहीं व्यक्त करेंगे। फिर तो ये और भयावह है। क्या ऐसा करके वे मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों को विचारहीन, विचार-शून्य या हमेशा ‘अव्यक्त’ रहने की हिदायत नहीं दे रहे हैं?

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संस्थान से जुड़कर पत्रकारिता के अपने सक्रिय दिनों में हम लोग तो उक्त राज्य के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री की खुलेआम आलोचना करते रहते थे। अपने लेखों और खबरों में ही नहीं, निजी स्तर पर लिखी अपनी किताबों या पुस्तिकाओं में भी। हमें तो किसी बड़े मीडिया संस्थान ने उन दिनों अपनी कंपनी की किसी नियमावली या आचार-संहिता का हवाला देकर ऐसा करने से न रोका और न किसी तरह की अनुशासनिक कार्रवाई की चेतावनी दी। पर यहां तो सीधे नौकरी ही ले ली गई। वह भी एक नौजवान की। और वह भी एक भयावह महामारी में!

अभिव्यक्ति की आजादी को बांधने वाली आचार-संहिता किसी मीडिया संस्थान की भला कैसे हो सकती है? मीडिया संस्थान की सेवाएं सरकारी सेवक, पुलिस, सुरक्षा बल या उच्च प्रशासनिक सेवा जैसी नहीं हैं कि ऐसी बंदिशें लगाई जायें!

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फिर किसी मीडिया संस्थान में काम करने वाला कोई पत्रकार देश या विदेश के किसी मसले पर अपनी स्वतंत्र पहलकदमी या कोशिश से कोई नयी किताब कैसे लिखेगा? मेरा मानना है कि किसी स्वतंत्र मीडिया संस्थान का इस तरह की कथित आचार संहिता या Code of Conduct Policy बनाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। दुनिया के किसी भी प्रौढ़ लोकतांत्रिक देश या समाज में ऐसा नहीं होता। यह संवैधानिक उसूलों का भी निषेध है.

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1 Comment

1 Comment

  1. Gyanendra Kumar

    July 22, 2021 at 5:31 am

    श्याम मीना सिंह ने एक पत्रकार के रूप में अमर्यादित कार्य ही किया था । कोई भी पत्रकार इस तरह की भाषा तभी प्रयोग में लाता है जब व्यक्तिगत रूप से कुंठित हो जाता है और उसके निजी एजेंडा पर चोट पहुंच रही हो । पत्रकारिता करते हुये जब आप निष्पक्ष नहीं रह जाते और अपने निजी विचार पेश करने लगते हैं तो इस प्रकार की स्थितियां ही पैदा होती हैं । 4 दिन बाद श्याम मीना सिंह को सब भूल जायेंगे और तब बेरोजगारी उनमें और कुंठा पैदा करेगी ।

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