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सियासत

क्या भारत तानाशाही देश बनता जा रहा है?

क्या भारत में डेमोक्रेसी खत्म हो चुकी है. यह एक सीरियस सवाल है. लेकिन सच हजम कर पाना बड़ा मुश्किल काम होता है.

लेकिन सच यही है कि पिछले कुछ समय, कुछ सालों से वन नेशन वन पार्टी के तहत एजेंडा चल रहा है. मीडिया से विपक्ष की आवाज खत्म कर देना, एमएलए की हार्स ट्रेडिंग करना, संसद में नए कानून बनाकर इलेक्टेड सरकारों से पावर छीन लेना, इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेज देना, स्टेट गवर्नमेंट के क्रियाकलापों में गवर्नर्स के जरिए रुकावट पैदा करना, जनता से प्रोटेस्ट का अधिकार छीन लेना इत्यादि संकेत है कि सरकार तानाशाही की तरफ बढ़ रही है. 

इसके अलावा जनता के प्रोटेस्ट पर रबर व टियर गैस से हमला कराना, इलेक्टोरल बांड्स के जरिए अपनी फंडिंग को छुपाना और अगर विपक्ष का कोई कैंडिडेट जीत जाए तो इलेक्शन फ्रॉड करके अपने उम्मीदवार को जीत दिला देना ये अब से पहले इतिहास में कभी नहीं हुआ. ताजा उदाहरण चंडीगढ़ मेयर चुनाव का ही लीजिए जिसमें की गई हेरफेर अगर सीसीटीवी फुटेज में कैद ना होती तो पता ही न चलता किसकी जीत हुई और कौन हारा. आप और कांग्रेस के साझा उम्मीदवार को मिली जीत चुनाव ऑफिसर ने भाजपा की जीत में तब्दील कर दिया था. उसने 8 वोट ही रद्द कर दिए थे. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने इस मसले पर अपनी टिप्पणी में इसे ‘मर्डर ऑफ डेमोक्रेसी’ बताया था.

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कुछ लोगों को लगता है कि यदि आप वोट डालने जा रहे हो और इलेक्शन हो रहा है तो आप एक डेमोक्रेटिक देश के नागरिक हैं. यहां नॉर्थ कोरिया के उदाहरण से समझिए कि चुनाव वहां भी होता है लेकिन फर्क ये है कि आप सरकार द्वारा चुने गए कैंडिडेट को वोट नहीं डालेंगे तो एन्टी-नेशनल करार दे दिया जाता है. आपकी नौकरी और घर छीन लिया जा सकता है. नॉर्थ कोरिया को वहां की सरकार द्वारा डीपीआरके (डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया) कहकर पुकारा जाता है यानी डेमोक्रेसी वहां भी है. लेकिन सच्चाई ये है कि ये देश एक तानाशाह का देश है.

इसी तरह रूस को भी डेमोक्रेटिक देश कहा जाता है क्योंकि इलेक्शन वहां भी होता है. लेकिन इसके उलट पुतिन के खिलाफ जो भी कैंडिडेट चुनाव मे खड़ा होता है तो उसे डिसक्वालिफाई कर दिया जाता है या फिर अचानक से उसे मार दिया जाता है. विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स में इस बात का जिक्र होता रहा है. यानी रूस एक डिक्टेटरशिप वाला देश है.

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इसका तोड़ यही है कि देश में फ्री और फेयर चुनाव हों. फ्री मतलब जनता को वोट देने की आजादी और फेयर का मतलब किसी भी कैंडिडेट को किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ने और जीतने का चांस हो. ऐसा ना हो कि किसी एक ही पार्टी के पास कुछ ज्यादा ही एडवांटेज हो.

साल 2021 को खबर आई की एक भाजपा नेता की गाड़ी में ईवीएम मशीन पाई गई. मामला असम का था. बाद में किरकिरी होने पर इलेक्शन कमीशन को दोबारा चुनाव कराने पड़े. फरवरी 2024 को पुणे से खबर आई की तीन अज्ञात लोगों ने ईवीएम मशीन की कंट्रोल यूनिट ही चुरा ली. खबर हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुई थी और मामला सासवड तहसील का है. ये मजाक नहीं तो क्या है. इसपर भी आपको लगता है कि इलेक्शन फ्री और फेयर तरीके से चल रहे हैं. इलेक्शन कमीशन वह संस्था है जिससे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की उम्मीद होती है.

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इलेक्शन कमीशन की निष्पक्षता पर सबसे पहले मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही सवाल खड़ा किया था. मई 2014 से पहले की बात है. बिजनेस स्टैंडर्ड की ख़बर है जिसमें मोदी ने इलेक्शन कमीशन को बायस्ड यानी पक्षपाती कहा था. हालांकि मोदी यह चुनाव जीत गए थे और उसके बाद अब क्या हो रहा है दुनिया देख रही है. बावजूद इसके पिछले 10 सालों में इलेक्शन कमीशन पर इतने आरोप लगे कि गिन पाना संभव नहीं है. प्रशांत किशोर ने तो यहां तक कह दिया कि इलेक्शन कमीशन बीजेपी की एक एक्सटेंशन है. द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट है. पीके ने कहा कि उन्होंने आज तक इतना Partial और Biased इलेक्शन कमीशन नहीं देखा. उन्होंने कहा कि इलेक्शन कमीशन ने ऐसे रूल को फॉलो किया जिससे भाजपा को फायदा मिले. 

एक उदाहरण यह भी देखिए कि इलेक्शन कमीशन कि क्लियर डायरेक्शन है कि पॉलिटिकल कैम्पेन में भारतीय सेना का नाम इस्तेमाल नहीं किया जा सकता बावजूद इसके नरेंद्र मोदी ने 2019 लोकसभा चुनाव से पहले बड़ी बेशर्मी के साथ वोट मांगे, शहीदों के नाम पर..एयर स्ट्राइक्स के नाम पर. द टाइम्स ऑफ इंडिया ने 10 अप्रैल 2019 को यह खबर प्रकाशित की थी. मोदी ने कहा कि, मैं फर्स्ट टाइम वोटर से कहना चाहता हूं पुलवामा में शहीद हुए सेना के जवानों का बदला लेने के लिए उनका वोट मुझे मिल सकता है क्या. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ तो मोदी से भी दो कदम आगे निकल गए थे. उन्होंने भारतीय सेना को मोदी जी की सेना बता दिया. लोकसभा चुनाव से पहले का वक्त था. द इंडियन एक्सप्रेस ने 1 अप्रैल 2019 को रिपोर्ट प्रकाशित की थी.

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जब इलेक्शन कमीशन को इस बात की शिकायत दी गई तो 21 दिन तक वो चुप बैठा रहा. इसके बाद 4 मई 2019 को इलेक्शन कमीशन की तरफ से क्लीन चिट दे दी गई. तब एनडीटीवी ने प्रमुखता से यह खबर दिखाई थी. पीएम मोदी को मिली यह इकलौती क्लीन चिट नहीं है. उन्हें 4 अलग-अलग केसों में क्लीन चिट मिल चुकी है. अमित शाह का नाम लें तो उन्होंने राहुल गांधी की संसदीय सीट वायनाड की तुलना पाकिस्तान से कर दी थी. द इंडियन एक्सप्रेस ने 10 अप्रैल 2019 को रिपोर्ट प्रकाशित की थी. ये भी रूल्स के खिलाफ था लेकिन इलेक्शन कमीशन ने इस मामले में अमित शाह को क्लीन चिट दे दी. कुल मिलाकर 7 ऐसे केस हैं जिनमें मोदी और शाह को क्लीन चिट दी गई है. एनडीटीवी ने 4 मई 2019 को इस संबंध में रिपोर्ट छापी थी. 

एनडीटीवी की रिपोर्ट यह भी बताती है कि क्लीन चिट देने वाले तीन ऑफिसर्स में एक ऐसे भी थे जिनका मानना था कि मोदी और शाह को क्लीन चिट नहीं मिलनी चाहिए. ऑफिसर का नाम है अशोक लवासा. बाद में इस अफसर के बेटे, बेटी, पत्नी व अन्य पारिवारिक सदस्यों के पास सरकारी नोटिस भेज दी गई. द वायर की 15 जुलाई 2020 की रिपोर्ट में इसका जिक्र है कि अशोक लवासा पर प्रेशर बनाकर इलेक्शन कमीशन से बाहर कर दिया गया. अब आप ही बताइये ये डेमोक्रेसी है या डिक्टेटरशिप.

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सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्शन कमीशन को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए एक आदेश दिया था. लाइव लॉ में प्रकाशित 2 मार्च 2023 की रिपोर्ट कहती है कि इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति के लिए तय तीन मेंबर्स में से सीजेआई को हटाकर एक मिनिस्टर को शामिल करना सरकार की नीयत पर संदेह पैदा करता है.

इलेक्शन कमीशन ने एमपी और एमएलए को चुनाव में खर्च की जाने वाली धनराशि पर भी लिमिट लगाई है. एमपी के लिए 70 से 95 लाख रुपये खर्च करने की लिमिट है. भाजपा ने 437 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसमें रूपया खर्च होना था 415 करोड़ के आस-पास. बावजूद इसके भाजपा ने रूपया खर्च किया 12,64,33,57,790 करोड़. इलेक्शन कमीशन की वेबसाइट पर इसका जिक्र है. सवाल है कि कमीशन ने रोक क्यों नहीं लगाई. वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 27 हजार करोड़ रुपये खर्च किए. द स्क्रॉल की 4 जून 2019 को आई रिपोर्ट में इसका जिक्र है. इलेक्टोरल बॉन्ड की बात करें तो 16 हजार करोड़ के बॉन्ड बेचे गए. जिसमें बीजेपी के पास 60 प्रतिशत यानी 10,122 करोड़, कांग्रेस को 1,547 करोड़ मतलब 10 प्रतिशत और टीएमसी को 8 प्रतिशत यानी 832 करोड़ रूपये का डोनेशन मिला. ये सारे अमाउंड इलेक्शन की खर्च सीमा से ज्यादा हैं.

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अब ऐसे में कोई समाजसेवी 90 लाख रुपये लाकर कहां से चुनाव लड़ सकता है. जबकि कुछ पार्टियों के पास हजारों करोड़ रुपये का फंड सेफ है. वो भी तब जब रूलिंग पार्टी दूसरी पार्टी और राज्यों के इलेक्टेड कैंडिडेट को खरीदने में करोड़ों रुपये खर्च कर देती है. 24 जुलाई 2019 को बिजनेस टुडे की ख़बर में इस बात का जिक्र है जब कर्नाटक के कुछ एमएलए को बीजेपी एक रिसॉर्ट में लेकर गई और उन्हें खरीद लिया. बीजेपी पर हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप लगते रहे हैं. ये काम है जांच एजेंसियों का. लेकिन वो तो एक पार्टी के इशारे पर चल रही हैं. तो ये जांच अब करेगा कौन. 

पैसे के लालच पर कोई नेता नहीं माना तो सत्ताधारी दल के पास दूसरा तरीका है इन्वेस्टिगेटिव एजेंसीज का प्रयोग. पिछले साल यानी 24 मार्च 2023 को 14 विपक्षी पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट में कम्प्लेन की थी कि उनके खिलाफ सरकार ईडी, सीबीआई व अन्य जांच एजेंसियों का मिसयूज कर रही है. द इंडियन एक्सप्रेस की 21 सितंबर 2022 को आई रिपोर्ट बताती है कि अब तक 3000 से ज्यादा पॉलिटिकल लीडर्स पर रेड हुई हैं. 2014 की तुलना में ईडी केसेज में 4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. जिसमें 95 प्रतिशत केस सिर्फ विपक्षी नेताओं पर हैं. 2005 से लेकर अब तक ईडी ने 5906 केस रजिस्टर किए हैं. जिसमें से 25 केस में ट्रायल और मात्र 24 केस में कन्विक्शन हुआ है. मतलब 0.5 प्रतिशत केस काम के निकले.

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एक बात यहां और समझने काबिल है कि जब भी किसी नेता पर करप्शन का आरोप लगता है तो वो भाजपा ज्वाइन कर लेता है और पाक-साफ हो जाता है. उसके ऊपर लगे सारे चार्जेस समाप्त कर दिए जाते हैं. असम नेता हिमंत विस्वा शर्मा जब कांग्रेस में थे उन पर शारदा चिटफंड में करप्शन के चार्ज लगे. 2014 में उन्हें सीबीआई ने पूछताछ के लिए बुलाया था. इसके बाद 2015 में उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर ली. 2015 के बाद हिमंत पर सात आरोप लगे लेकिन अब कार्रवाई कौन करेगा. शुभेंदु अधिकारी, जितेंद्र तिवारी, नारायण राणे, येदियुरप्पा, प्रवीण दरेकर, हार्दिक पटेल और अजीत पवार ये सभी लीडर्स बीजेपी की वाशिंग मशीन में जाकर साफ हो चुके हैं. खुद पीएम एनसीपी जैसी पार्टियों को लेकर बड़े-बड़े भाषण दिया करते थे लेकिन जैसे ही सभी बीजेपी में गए साफ सुथरे हो गए.

पैसे और ईडी के दबाव पर भी कोई नेता जब नहीं मानता तो उन्हें किसी केस में अंदर भेज दिया जाता है. उनकी जमानत नहीं होने दी जाती है. आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा ने बताया कि अगर मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन, अभिषेक बनर्जी, फारूक अब्दुल्ला, संजय राउत, तेजस्वी यादव ये सभी नेता अगर बीजेपी में शामिल हो जाएं तो इनके खिलाफ सभी केसेज बंद कर दिए जाएंगे और जो जेल में है वे बाहर आकर खुले में सांस ले पाएंगे.

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विपक्षी राज्य सरकार की पावर छीनने के लिए मोदी सरकार तमाम हथकंडे अपनाती है. जैसे दिल्ली की केजरीवाल सरकार का अहित करने के लिए नया कानुन ले आए जीएनसीटीडी यानी गवर्नमेंट नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट- 2023. इस बिल का इस्तेमाल कर मोदी सरकार ने दिल्ली सरकार की कई शक्तियों को गवर्नर के पास ट्रांसफर कर दिया है. 

यहां मीडिया का जिक्र करना भी जरूरी है. क्या 2014 के बाद मीडिया सत्ता और विपक्षी पार्टियों को बराबर कवर कर रहा है..नहीं. लेकिन भारत की मीडिया दिन रात सत्ता को ही दिखा रही है. उसकी ही तारीफ कर रही है. 24 घंटा मोदी-मोदी करता मीडिया विपक्ष को टीवी पर दिखाना ही नहीं चाहता. चाहे पूरा का पूरा विपक्ष एक साथ क्यों न भारत जोड़ो यात्रा निकाल दे. एक समय हुआ करता था.. दूरदर्शन का. जब पक्ष और विपक्ष बैठकर चुनावी बात अपने मुद्दे रखता था. उन्हें इसका अधिकार था. लेकिन क्या अब दूरदर्शन ऐसा कर सकता है. आज की तारीख में तो टीवी डिबेट्स में बैठे भाजपा प्रवक्ता को बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती. गोदी एंकर्स खुद विपक्ष पर टूट पड़ते हैं. टीवी एंकर खुद प्रवक्ता बने बैठे हैं. सरकार से सवाल करने की बजाए वह सरकार का बचाव करते हैं.

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कुछ टीवी एंकर सरकार की इतनी गुलामी करते दिखते हैं कि बेरोजगारों के प्रदर्शन पर युवाओं को कोसने लगते हैं. वहीं अगर किसी राज्य में सरकार हार जाए तो राज्य की जनता तक को भला-बुरा कहना शुरू कर देते हैं. आप सोचिए की यदि सही खबरें सही मुद्दे जनता तक पहुंचे ही ना तो लोग कैसे डिसाइड कर पाएगा कि कौन सही है और कौन गलत. पूरे 77 दिनों तक मणिपुर जलता रहा टीवी पर कोई स्पेशल डिबेट्स नहीं की गई. 

करप्शन सरकार के भीतर बहुत गहरे तक है लेकिन मीडिया इसकी रिपोर्ट नहीं करती. आयुष्मान भारत योजना में महज तीन मोबाइल नंबर का 9 लाख से ज्यादा लोग इस्तेमाल कर रहे थे. 3 हजार से ज्यादा लोगों के इलाज पर 6.97 करोड़ रुपये का खर्च दिखाया गया. लेकिन जब सीएजी की रिपोर्ट आी तो सभी पेशेंट ऐसे निकले जो पहले ही मर चुके थे. इसका खुलासा करने वाले कैग अधिकारी गिरीश चंद्रा का ट्रांसफर कर दिया गया. लेकिन क्या आपने ये न्यूज़ टीवी चैनल्स पर देखी. इसका कारण है कि आप जो चैनल्स देख रहे हैं वह आप तक सही सूचनाएं पहुंचा ही नहीं रहे हैं.

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सरकार को अकाउंटेबल ठहराने का काम सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का ही नहीं है. बल्कि अपोजीशन, मीडिया, सिविल सोसाइटी और जनता का भी अधिकार है, कि ये सभी लोग डेमोक्रेसी को जिंदा रखें. आरटीआई इसी प्रक्रिया का नाम है, जिसके तहत सरकार से सवाल जवाब किए जा सकें. बशर्ते सरकार की जवाबदेही जीरो है. अब तक आप गिनती कीजिए कि प्रधानमंत्री ने कितनी बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की है. जवाब होगा एक भी नहीं. प्रधानमंत्री को बिना स्क्रिप्ट एक भी सवाल सुनने की हिम्मत ही नहीं है. इसके विपरीत जब मनमोहन सिंह पीएम थे तो उन्होंने 117 बार प्रेस कांफ्रेंस की थीं. 

किसान आंदोलन की बात ही ले लीजिए. दिल्ली के तीनों बॉर्डर पर किसी वॉर जोन सा नजारा है. ड्रोन से टीयर गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं. जो तस्वीरें निकलकर सामने आई वो किसी देश की डेमोक्रेसी के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती. किसानों के लिए जैसा इंतजाम किया गया ऐसा तो चीन के बॉर्डर पर भी नहीं देखा गया है. रबर बुलेट्स की वजह से तीन किसान अंधे हो गए. द इंडियन एक्सप्रेस की खबर है. इससे पहले रेसलर्स प्रोटेस्ट हुआ, वहां भी इसी तरह की सरकारी जोर आजमाइश की गई. पिछले किसान आंदोलन में यही हुआ था. लगभग 600 से ज्यादा किसानों की जान चली गई थी.

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कई प्रोटेस्ट जो आपको सुनने को भी नहीं मिले होंगे. कश्मीरी पंडितों का प्रोटेस्ट, पुरानी पेंशन स्कीम को लेकर चल रहा प्रोटेस्ट, हिसार में 400 दिन से बंद हुए दूरदर्शन केंद्र को शुरू करने को लेकर प्रोटेस्ट, बेरोजगारों का प्रोटेस्ट, पिछले साल हुआ डॉक्टर्स का प्रोटेस्ट. ये खबरें मीडिया से गायब हैं. लेकिन क्या ये सब किसी स्वतंत्र देश के लिए सही है. बिल्कुल नहीं. जिस मुताबिक अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो ज्यादा वक्त नहीं लगेगा भारत को नॉर्थ कोरिया और रशिया बनने में. जहां सिर्फ नाम में ही डेमोक्रेसी रहेगी, इलेक्शन भी कराया जाएगा..लेकिन असलियत में डेमोक्रेसी का अंतिम संस्कार हो चुका होगा. 

साभार- YouTube

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नीचे देखें पूरा वीडियो..

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