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सुख-दुख

आम आदमी पार्टी के आशुतोष को रवीश कुमार का खुला पत्र

आशुतोष जी,

मैं आज दिल्ली में नहीं था। देवेंद्र शर्मा के साथ रिकॉर्डिंग कर रहा था कि किसानों की इस समस्या का क्या कोई समाधान हो सकता है। हम गेहूं के मुरझाए खेत में एक मायूस किसान के साथ बात कर रहे थे। हमने किसान रामपाल सिंह से पूछा कि आपके खेत में चलेंगे तो जो बचा है वो भी समाप्त हो जाएगा। पहले से मायूस रामपाल सिंह ने कहा कि कोई बात नहीं। इसमें कुछ बचा नहीं है। अगर आपके चलने से दूसरे किसानों को फायदा हो जाता है तो मुझे खुशी होगी। वैसे भी अब इसका कोई दाम तो मिलना नहीं है, कुछ काम ही आ जाए। ये उस किसान का कहना है जो चाहता है कि उसकी बर्बादी के ही बहाने सही कम से कम समाधान पर बात तो हो। शायद गजेंद्र ने भी इसी इरादे से जान दे दी जिस इरादे से रामपाल सिंह ने हमारे लिए अपना खेत दे दिया।

<p>आशुतोष जी,</p> <p>मैं आज दिल्ली में नहीं था। देवेंद्र शर्मा के साथ रिकॉर्डिंग कर रहा था कि किसानों की इस समस्या का क्या कोई समाधान हो सकता है। हम गेहूं के मुरझाए खेत में एक मायूस किसान के साथ बात कर रहे थे। हमने किसान रामपाल सिंह से पूछा कि आपके खेत में चलेंगे तो जो बचा है वो भी समाप्त हो जाएगा। पहले से मायूस रामपाल सिंह ने कहा कि कोई बात नहीं। इसमें कुछ बचा नहीं है। अगर आपके चलने से दूसरे किसानों को फायदा हो जाता है तो मुझे खुशी होगी। वैसे भी अब इसका कोई दाम तो मिलना नहीं है, कुछ काम ही आ जाए। ये उस किसान का कहना है जो चाहता है कि उसकी बर्बादी के ही बहाने सही कम से कम समाधान पर बात तो हो। शायद गजेंद्र ने भी इसी इरादे से जान दे दी जिस इरादे से रामपाल सिंह ने हमारे लिए अपना खेत दे दिया।</p>

आशुतोष जी,

मैं आज दिल्ली में नहीं था। देवेंद्र शर्मा के साथ रिकॉर्डिंग कर रहा था कि किसानों की इस समस्या का क्या कोई समाधान हो सकता है। हम गेहूं के मुरझाए खेत में एक मायूस किसान के साथ बात कर रहे थे। हमने किसान रामपाल सिंह से पूछा कि आपके खेत में चलेंगे तो जो बचा है वो भी समाप्त हो जाएगा। पहले से मायूस रामपाल सिंह ने कहा कि कोई बात नहीं। इसमें कुछ बचा नहीं है। अगर आपके चलने से दूसरे किसानों को फायदा हो जाता है तो मुझे खुशी होगी। वैसे भी अब इसका कोई दाम तो मिलना नहीं है, कुछ काम ही आ जाए। ये उस किसान का कहना है जो चाहता है कि उसकी बर्बादी के ही बहाने सही कम से कम समाधान पर बात तो हो। शायद गजेंद्र ने भी इसी इरादे से जान दे दी जिस इरादे से रामपाल सिंह ने हमारे लिए अपना खेत दे दिया।

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हम इसलिए दिल्ली से करनाल आ गए थे कि समाधान पर बात नहीं हो रही थी। कांग्रेस बीजेपी की तमाम बहसों से सबका बहिखाता तो खुल रहा था मगर बात आगे नहीं बढ़ रही थी। मैंने सहयोगी शरद शर्मा की वो भी रिपोर्ट भी देखी थी कि दिल्ली सरकार ने बीस हज़ार रुपये प्रति एकड़ मुआवज़ा देने का ऐलान किया है लेकिन किसी किसान को मुआवज़ा नहीं मिला है। आपके ही विधायक देवेंद्र सहरावत दिल्ली और उसके आस-पास किसानों की इस समस्या को लेकर हरकत में आने वाले पहले नेताओं में से थे। अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो देवेंद्र सहरावत ने मीडिया को कई एसएमएस किया था कि स्थिति बहुत ख़राब है। तब से लेकर आज तक दिल्ली में कितने किसानों को मुआवज़ा दिया गया है इसकी कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है। जंतर-मंतर की रैली से दो दिन पहले की गई शरद शर्मा की रिपोर्ट बताती है कि वहां कोई सर्वे करने वाला नहीं गया है। किसान कब तक इंतज़ार करते लिहाज़ा गेहूं काटने लगे हैं।

शायद दिल्ली सरकार बिना सर्वे के ही चौपालों के ज़रिये किसानों को सीधे पैसा देने की बात कर रही है। ऐसी कोई चौपाल हुई है या नहीं मगर मोहल्ला सभा की विस्तृत रिपोर्ट अख़बारों में पढ़ी है। चौपाल में विधायक और प्रधान के बीच लोगों से पूछकर मुआवज़ा देने की बात वाकई नायाब है। अगर ऐसा है तो दिल्ली सरकार को अब तक मुआवज़ा बांट देना चाहिए था क्योंकि उसे बाकी सरकारों की तरह सर्वे करने और तहसीलदार से कलक्टर तक रिपोर्ट भेजने की लंबी प्रक्रिया से नहीं गुज़रना है। वैसे सर्वे वाले राज्यों में जहां पूरा सर्वे भले न हुआ हो केंद्र सरकार को रिपोर्ट दे दी गई है। यह भी एक किस्म का फर्ज़ीवाड़ा है जो चल रहा है।

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ख़ैर तो क्या आप बता सकते हैं कि केंद्र सरकार को दिल्ली सरकार ने कोई रिपोर्ट भेजी है या नहीं। दिल्ली सरकार ने रैली के पहले तक कितने किसानों को बीस हज़ार प्रति एकड़ की राशि से पैसे बांट दिए हैं। यह बताना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि यह बाकी राज्यों के लिए भी नज़ीर बन सके। अगर दिल्ली सरकार नुकसान के वक्त लागत में मुनाफ़ा जोड़कर मुआवज़ा देने का ऐलान कर सकती है तो क्या उससे यह उम्मीद की जाए कि वह न्यूनमत समर्थन मूल्य भी बाकी राज्यों से ज्यादा देगी। अगर केंद्र सरकार का कोई कानून आड़े नहीं आता हो तो।

खेती संकट पर बनी तमाम कमेटियों ने सुझाव दिये हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह लागत पर मुनाफा जोड़कर तय मूल्य पर किसानों से उत्पाद खरीदा जाए। दिल्ली में हरियाणा या उत्तर प्रदेश की तरह किसानों की संख्या भी उतनी नहीं होगी इसलिए क्या यह उम्मीद की जा सकती है इस छोटे से राज्य में ऐसा हो सकता है। इतना सब लिखने का मेरा यही मकसद है कि इसी बहाने किसानों का कुछ भला हो जाए। मुआवज़े के साथ-साथ कुछ ठोस नीति बन जाए। इसीलिए आपने देखा होगा कि मैंने इस लेख की शुरूआत आपसे से तो की मगर आपके उस बयान से नहीं कि जो आपने जंतर मंतर की घटना के बाद दिया है।

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अच्छा किया जो आपने माफी मांग ली पर क्या आप यह भी बता सकते हैं कि माफी मांगने लायक बयान देते वक्त आप किस मनोदशा से गुज़र रहे थे। गजेंद्र की आत्महत्या से तो आप भी काफी दुखी होंगे फिर दुख के समय ऐसे तेवर वाले बयान कैसे निकल गए। क्या आपको गुस्सा आ गया कि आत्महत्या को लेकर आपके नेता को घेरा जा रहा है। पत्रकार क्यों पूछ रहे हैं कि आत्महत्या के बाद रैली क्यों चलती रही। लोग तो ट्वीटर पर मीडिया से भी पूछ रहे हैं कि कैमरे वालों ने क्यों नहीं देखा या बचाने का प्रयास किया।

क्यों गुस्सा आया। क्यों आपने कहा कि अगर अगली बार कुछ ऐसा होगा तो दिल्ली के मुख्यमंत्री पेड़ पर चढ़ जाएंगे और व्यक्ति को बचा लेंगे। आप भूल गए कि आपके ही मुख्यमंत्री बिजली के खंभे पर चढ़कर तार काटने की बात करते थे। आप भूल गए कि मुख्यमंत्री होने के बाद भी विरोधी से लेकर पत्रकार असहज सवाल पूछ सकते हैं। सवाल गलत भी हो सकते हैं। सही भी हो सकते हैं। लेकिन इस बयान में अतिरिक्त निष्ठा जताने के अलावा यह प्रवृत्ति भी नज़र आ रही है कि मुख्यमंत्री का नाम इस विवाद में कैसे ले लिया गया। मुझे लगता है कि अगर सरकारें समाधान की तरफ बढ़ेंगी तो किसी को गुस्सा नहीं आएगा बल्कि उसके भीतर सेवा भाव जागेगा।

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निश्चित रूप से इस घटना पर राजनीति हो रही है जैसे किसानों की दशा को लेकर राजनीतिक रैलियां हो रही हैं। मैं नहीं कह रहा कि गजेंद्र की मौत के लिए आप ज़िम्मेदार हैं या आपमें से कोई मंच छोड़कर बचा सकता था। जो भी है गजेंद्र आपकी रैली में आया था इसलिए वो आपका मेहमान होने के साथ-साथ सहयात्री भी है। क्या पता उसने इस रैली में राजनीति के उस विराट सत्य को देख लिया हो जिसके बारे में वो ख़त लिखकर लाया था। गजेंद्र के लिए कोई पेड़ पर नहीं चढ़ सकता था इसीलिए वो ख़ुद पेड़ पर चढ़ गया।

एक सहयात्री की मौत का दुख तेवर वाले बयानों से ज़ाहिर नहीं करते। भले ही बीजेपी या कांग्रेस के नेताओं ने राजनीतिक बयान दिये हों या उन बयानों में भी वैसी क्रूरता हो जैसी आपके इस बयान में नज़र आई लेकिन गजेंद्र की मौत सभी सरकारों और समाजों के लिए शर्मनाक है। यह सामूहिक शर्म और चिन्ता का समय है। जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों को छोड़ वैसे ही राहत सामग्री लेकर खेतों में जाने का समय है जैसे बाकी आपदाओं के वक्त लोग जाते हैं।

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रवीश कुमार

चर्चित टीवी जर्नलिस्ट रवीश कुमार के ब्लाग कस्बा से साभार.

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