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साहित्य

मजरूह सुल्तानपुरी : बगावती तेवर और मज़लूमों का मसीहा

सीएसडीएस ने साल 2014 के लिए 6 फेलोशिप आमंत्रित किये हैं. आवेदन की अंतिम तिथि 15 जुलाई 2014 है. यह फेलोशिप हिन्दी और अंग्रेजी दोनों प्रकार के अभ्यर्थियों के लिए होगी. सीएसडीएस की पहल इन्क्लुसिव मीडिया और यूएनडीपी की यह फेलोशिप ग्रामीण-संकट/ ग्रामीण-विकास तथा वंचित तबके के मुद्दों पर मीडिया कवरेज बढ़ाने और कवरेज को पैना बनाने के लिए दी जा रही है. फैलोशिप के लिए चयनित अभ्यर्थियों से उम्मीद की जाती है कि वे पत्रकारिता के अपने रोजमर्रा के काम से छुट्टी लेकर कम से कम दो से चार सप्ताह का समय ग्रामीण/वंचित समुदायों के बीच बितायेंगे और जिन मुद्दों को लोगों की निगाह में लाना जरुरी है उन पर क्रमवार कथाओं का लेखन या निर्माण करेंगे.

<p>सीएसडीएस ने साल 2014 के लिए 6 फेलोशिप आमंत्रित किये हैं. आवेदन की अंतिम तिथि 15 जुलाई 2014 है. यह फेलोशिप हिन्दी और अंग्रेजी दोनों प्रकार के अभ्यर्थियों के लिए होगी. सीएसडीएस की पहल इन्क्लुसिव मीडिया और यूएनडीपी की यह फेलोशिप ग्रामीण-संकट/ ग्रामीण-विकास तथा वंचित तबके के मुद्दों पर मीडिया कवरेज बढ़ाने और कवरेज को पैना बनाने के लिए दी जा रही है. फैलोशिप के लिए चयनित अभ्यर्थियों से उम्मीद की जाती है कि वे पत्रकारिता के अपने रोजमर्रा के काम से छुट्टी लेकर कम से कम दो से चार सप्ताह का समय ग्रामीण/वंचित समुदायों के बीच बितायेंगे और जिन मुद्दों को लोगों की निगाह में लाना जरुरी है उन पर क्रमवार कथाओं का लेखन या निर्माण करेंगे.</p>
मजरूह सुल्तानपुरी

जन्मदिन 24 मई पर विशेष-

मैं अकेला ही चला था जानिब ए मंज़िल मगर,

लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।

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-मजरूह सुल्तानपुरी

साझी संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक और अपनी धुन के पक्के,अड़चनों के सामने चट्टान की तरह अडिग इस महान सपूत की गोद में खेल कर बड़े होने का हमें गौरव प्राप्त है। ये वही मजरूह है जिन्होंने बालासाहब ठाकरे के हाथों से फिल्मी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण अवार्ड लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि जिन फिरकापरस्त ताकतों का हमने जीवन भर विरोध किया उनके हाथ से सम्मानित होना हमें कतई गवारा नहीं,ये विरोध उन्होंने उस वक़्त जताया जब ठाकरे अपने जीवन के सबसे ऊंचे पायदान पर खड़े थे।

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मजरूह का मिजाज देखिये—

रोक सकता हमें ज़िंदान ए बला क्या मजरूह,

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हम तो आवाज़ है दीवार से छन जाते हैं।

मजरूह और हमारे वालिद सागर सुल्तानपुरी बेहतरीन दोस्त थे।मेरे वालिद गांधियन आंदोलन की उपज थे तो मजरूह प्रगतिशीलता के प्रतीक और प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट आंदोलन की अग्रिम पंक्ति के सिपाही,पर दोनों के विचारों की भिन्नता कभी आड़े हाथों नही आयी और दोनों का घर एक दूसरे का आशियाना बना रहा।एक विशेष बात जो मैंने नोट की थी कि मजरूह ने कभी भी गाँधीजी की आलोचना नही की।हां अलबत्ता वो नेहरू के नाम पर जरूर तैश में आ जाते थे पर भाषा का संयम बना रहता।बाद में मेरे वालिद साहब ने बताया था कि मजरूह वो शख्स है जो मजदूरों के हक़ के लिए चलने वाली तहरीक से न केवल जुड़े रहे वल्कि अहम किरदार रहे।उन्होंने नेहरू की पालिसी के खिलाफ और मजदूरों के हड़ताल के पक्ष में एक इंक़लाबी कविता पढ़ी और हड़ताल का नेतृत्व किया।नतीजतन उन्हें सरकार के खिलाफ बगावती तेवर अपनाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गयाऔर लगभग दो साल जेल की हवा खानी पड़ी। मजरूह को सरकार ने सलाह दी कि अगर वे माफ़ी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आज़ाद कर दिया जाएगा, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी इस बात के लिए राजी नहीं हुए और उन्हें दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया। नेहरू की ऐसी आलोचना शायद किसी ने की हो—-

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मन में ज़हर डॉलर के बसा के,

फिरती है भारत की अहिंसा.

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खादी की केंचुल को पहनकर,

ये केंचुल लहराने न पाए.

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ये भी है हिटलर का चेला,

मार लो साथी जाने न पाए.

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कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,

मार लो साथी जाने न पाए.

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सत्ता की छाती पर चढ़कर एक शायर ने वह कह दिया था, जो इससे पहले इतनी साफ़ और सपाट आवाज़ में नहीं कहा गया था. यह मज़रूह का वह इंक़लाबी अंदाज़ था, जिससे उन्हें इश्क़ था. वह फिल्मों के लिए लिखे गए गानों को एक शायर की अदाकारी कहते थे और चाहते थे कि उन्हें उनकी ग़ज़लों और ऐसी ही इंक़लाबी शायरी के लिए जाना जाए।

1986 तक कमोबेश मजरूह साहब अगर जाड़ों में उत्तर प्रदेश आते तो हमारे घर आना उनकी यात्रा का एक अहम पड़ाव होता था और हमें उनका इंतजार।शायद वालिद साहब के वही इकलौते दोस्त थे जो कुछ रुपये उस वक़्त रोज हम भाइयों को देते थे जिनकी लालच में हम सब उनकी बात माना करते थे। दिन भर घर पर शेर ओ शायरी का माहौल रहता और हमारी वालिदा साहिबा को खाने के नए नए फरमान दिए जाते। मेरी वालिदा साहिबा मजहबी मिज़ाज की थी और कई बार मजरूह साहब की आलोचना पर्दे की आड़ से कर देती कि कुछ इबादत भी कर लिया कीजिये।अल्लाह को क्या मुंह दिखाओगे तो जवाब होता कि भाभी आप अपनी इबादतों का कुछ हिस्सा हमें वक़्फ़ कर दीजियेगा और बस मेरा बेड़ा पार।

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मुझ से कहा जिब्रील ए जुनूँ ने ये भी वही ए इलाही है,

मजहब तो बस मजहब ए दिल है बाकी सब गुमराही है।

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24 मई 2000 को वे इस दुनिया से कूच कर गए।

कुछ ऐसे थे मजरूह!

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लेखक डॉ मोहम्मद आरिफ इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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