सुशोभित-
वर्ष 1836 में जब कार्ल मार्क्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन में पढ़ाई करने पहुँचे तो उन्होंने पाया कि कैम्पस के विद्यार्थियों के ज़ेहन पर एक नाम छाया हुआ है। वह नाम हेगेल का था। कितने संतोष और आश्वस्ति की बात है कि यूनिवर्सिटी के छात्र किसी दार्शनिक को अपना सबसे चहेता सितारा, अपना आदर्श मानते हों!
वास्तव में, 1830-40 के दशक में यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन में छात्रों का एक समूह स्वयं को ‘यंग हेगेलियन्स’ कहकर ही सम्बोधित करता था। हेगेल के विचारों से प्रेरित वहाँ पर छात्रों के दो भिन्न समूह बन गए थे। एक समूह हेगेल की मेटाफिजिक्स को महत्त्व देता था, दूसरा हेगेल की डायलेक्टिक्स को। इस दूसरे समूह से ही मार्क्स जा जुड़े थे। देखते ही देखते वे इस ग्रुप के लीडर बन गए।
वह ग्रुप भी किन्हीं सामान्य छात्रों का नहीं था। एक से एक तुर्रम ख़ां उसमें थे। कालान्तर में उस समूह के सभी सदस्य अपने तईं जाने-माने विचारक बने और उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। ‘यंग हेगेलियन्स’ या ‘डॉक्टर क्लुब’ कहलाने वाले इस समूह में डेविड स्त्रॉस थे, ब्रुनो बॉयर और उनके भाई एडगर थे (जिन पर कालान्तर में कटाक्ष करते हुए मार्क्स ने एक किताब लिखी थी- ‘होली फ़ैमिली’), इसी में अर्नाल्ड रूग थे जिनसे मार्क्स का पत्राचार बहुत महत्त्वपूर्ण समझा गया है, कार्ल मार्क्स तो थे ही, लेकिन सबसे बढ़कर वहाँ पर लुडविग फ़्यूएरबाख़ थे, जिन पर आगे चलकर मार्क्स (‘थीसिस ऑन फ़्यूएरबाख़’) और एंगेल्स (‘लुडविग फ़्यूएरबाख़ एंड द एंड ऑफ़ क्लासिकल जर्मन फिलॉस्फ़ी’) दोनों को ही किताबें लिखनी थीं।
कुछ पल के लिए आँखें बंद करके इन नौजवानों की कल्पना कीजिये। यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन- जहाँ कुछ साल पहले तक ख़ुद हेगेल लेक्चर दिया करते थे- के ये युवा छात्र न केवल अपनी अकादमिक पढ़ाई के प्रति निष्ठावान हैं, बल्कि उनके भीतर मौलिक विचारों का एक बवंडर उठा करता है। वो इस संसार के रहस्यों को जानने के लिए बेचैन हैं। न्यूटन ने आधुनिक भौतिकी की नींव रख दी है, चर्च की सत्ता को चुनौती दी जा चुकी है, फ्रांस में क्रांति हो चुकी है, रूसो और वोल्तेयर ने आधुनिक विचारों का प्रतिपादन कर दिया है, जॉन लॉक लिबरल डेमोक्रेसी को नया रूप दे चुके हैं और इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का पुरोधा बना हुआ है। दुनिया उथल-पुथल के दौर से गुज़र रही है, एक नई दुनिया बनाई जा रही है। और वैसे में- 19वीं सदी के अधबीच- ये चंद नौजवान गहरे विचार-मंथन में डूबे हैं, वे हेगेल पर तक़रीरें कर रहे हैं, उनके बीच भी बहुत मतभेद हैं- लेकिन एक बात को लेकर वे एकमत हैं कि मनुष्य एक सोचने-विचारने वाला प्राणी है, उसके पास एक समर्थ मस्तिष्क है और सृष्टि का ऐसा कोई रहस्य नहीं, जिसे मनुष्य की बुद्धि भेद नहीं सकती।
20वीं सदी में क्वांटम भौतिकी ने जिस अनिश्चय को मनुष्य की मेधा में प्रतिष्ठित कर दिया था, विश्वयुद्धों ने मूल्यों पर जैसा संकट ला खड़ा कर दिया था, शीतयुद्ध में सर्वनाश के अंदेशों के जैसे विद्रूप प्रतिरूप उभरे थे और 21वीं सदी आते-आते भूमण्डलीकरण और सूचना-प्रौद्योगिकी ने जैसा आभासी-संसार रच दिया था, उसकी तुलना में कहीं निश्चित, ठोस, सुघड़ रूपरेखाओं वाला वह 19वीं सदी का मनोलोक था, जिसमें बुद्धि किसी निर्भय-विहग की तरह उड़ानें भरती थी। इसी उड़ान ने कार्ल मार्क्स सरीखे निडर और क्रांतिचेता मस्तक को जन्म दिया था।
मार्क्स को हेगेल के द्वंद्वात्मक दर्शन ने आकृष्ट किया था, लेकिन मार्क्स उसके निष्कर्षों से सहमत नहीं थे। हेगेल के यहाँ आपको स्पिरिट, एब्सोल्यूट आइडिया, मेटाफिजिक्स जैसे शब्द मिलते थे, घोर रैशनलिस्ट मार्क्स को इन वायवी शब्दों से आपत्ति थी। हेगेल ने स्टेट को सर्वोपरि समझा था, मार्क्स सिविल सोसायटी को अग्रणी मानते थे। हेगेल के यहाँ विश्व-व्यवस्था अनवरत-अंतर्संघर्ष से गुज़रकर एक अंतिम और निश्चित स्वरूप पा चुकी थी, जबकि मार्क्स समझते थे कि समाज संक्रमण के दौर में है और हम यथास्थितिवादी होने का गुनाह नहीं कर सकते।
मार्क्स ने हेगेल से द्वंद्वात्मकता ग्रहण की, लेकिन उसके आधार पर द्वंद्वात्मक-भौतिकवाद का महल खड़ा किया। हेगेलियन आदर्शवाद को उन्होंने त्याग दिया। हेगेल जर्मन आइडियलिज़्म के शिखर थे, मार्क्स ने एंगेल्स के साथ गठबंधन बनाया और ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ (यह उनकी एक किताब का शीर्षक है, जो उनकी मृत्यु के कोई 50 साल बाद जाकर ही प्रकाशित हो सकी थी) का पथ प्रशस्त किया। यह ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ ही थी, जिसमें ऐतिहासिक-भौतिकवाद का प्रारूप प्रस्तुत किया गया था। इतिहास की एक ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या, जो पूर्वनियत निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए व्याकुल नहीं है।
1836 में बर्लिन आने, 1837 में हेगेल को आद्योपांत पढ़ डालने, 1840 के दशक में ‘यंग हेगेलियन्स’ के युवातुर्क अगुआ बनने से लेकर कालान्तर में हेगेल की विचार-प्रक्रिया का क्रिटीक प्रस्तुत करने और अपने को हेगेल के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर लाकर एक विप्लवी, भौतिकवादी, प्रगतिकामी और प्रवर्तनकारी मार्क्सवादी विचारधारा के सृजन तक कार्ल मार्क्स ने एक लम्बा सफ़र तय किया था।
‘थीसिस ऑन फ़्यूएरबाख़’ में जब मार्क्स ने अपनी यह सुपरिचित उद्घोषणा की तब उनके ज़ेहन में शायद उनके उस्ताद हेगेल ही रहे होंगे कि “दार्शनिकों ने तरह-तरह से इस दुनिया की व्याख्या की है, लेकिन बात तो तब है, जब हम इस दुनिया को बदलने के लिए कुछ करें!”
ग़ालिबन, सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मार्क्स का मक़सद नहीं था, उन्होंने अपना जीवन सूरत बदलने की कोशिशों में होम किया था!