टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर ने आज बताया है, प्रो जी साईबाबा ऐसे मामले में दस साल जेल में रहे जो अपराध ही नहीं है – पर यही व्यवस्था है और अखबार छिपाते हैं
संजय कुमार सिंह
कलकत्ता हाईकोर्ट के जज ने कहा कि पद पर रहते हुए वे भाजपा के संपर्क में थे और भाजपा उनके संपर्क में थी तो यह खबर नहीं बनी। लेकिन अदालत के आदेश पर संदेशखली के ‘हीरो’ को सीबीआई को सौंपे जाने की खबर आज प्रमुखता से छपी है। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने भी उसे खबर बनाने में पूरा योगदान दिया है। द टेलीग्राफ में आज टॉप पर छपी पहले पन्ने के पांच कॉलम की खबर का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, “संदेशखली की आंधी टीएमसी को खत्म कर देगी : मोदी”। अगर कोलकाता के अखबार में यह शीर्षक सामान्य है तो दिल्ली के अमर उजाला का शीर्षक देख लीजिये, “हाईकोर्ट की फटकार के बाद बंगाल सरकार ने शेख को सीबीआई को सौंपा”। उपशीर्षक है : “हीलाहवाली के बाद सीआईडी ने शाम 6:40 बजे सौंपा”। बेशक यह खबर अमर उजाला के दूसरे पहले पन्ने पर है लेकिन इसी पन्ने की लीड भी संदेशखली का प्रचार (असल में राजनीतिक उपयोग) ही है। शीर्षक है, “संदेशखली में नारी शक्ति पर अत्याचार का घोर पाप : मोदी”। उपशीर्षक है, “बोले – घटना से देश शर्मसार, ममता सरकार में बेटियां सुरक्षित नहीं बहनों के गुनाहगार को बचाने की कोशिश कर रही दीदी की सरकार”।
यही नहीं, महिला आयोग ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की है और इसे भी अमर उजाला ने प्रमुखता से छापा है। अखबारों से मैं संदेशखली का मामला जो समझ पाया हूं वह यही है कि वहां के तृणमूल विधायक के घर छापा मारने गई ईडी की टीम पर स्थानीय लोगों ने हमला कर दिया था। तब विधायक घर पर नहीं थे या घर अंदर से बंद था। उसके बाद से विधायक फरार हो गये और उनपर महिलाओं के शोषण के आरोप लगे। जो आरोप मैंने पढ़े वे सभ्य समाज में पुलिस के रहते लगभग असंभव हैं। खासकर उनका पहले सार्वजनिक नहीं होना। पुलिस ने नहीं सुनी तो मीडिया में भी नहीं, विपक्षी नेताओं से शिकायत नहीं और उनका सक्रिय नहीं होना। फिर भी मामले की जांच चल रही है और पुलिस ने 55 दिन बाद ही सही, विधायक को गिरफ्तार कर लिया। दिल्ली की भाजपाई पुलिस ने जेएनयू पर हमला करने वाली ‘शर्मा जी की बिटिया’ को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया है। लेकिन उसपर राजनीति नहीं होती। राहुल गांधी के समर्थक भी कहते हैं कि वे मोदी जैसी राजनीति नहीं कर पाते हैं। पर वह अलग मुद्दा है।
कोमल शर्मा और दिल्ली पुलिस
दरअसल कोमल शर्मा नाम की इस आरोपी ने राष्ट्रीय महिला आयोग से शिकायत की थी कि जेएनयू हिंसा में उसका नाम गलत घसीटा गया है। 5 जनवरी 2020 के इस मामले में हिंसा के दौरान हाथ में डंडा लेकर नजर आने वाली नकाबपोश लड़की की पहचान की अलग कहानी है वह उसी दिन सार्वजनिक हो गई थी फिर भी पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया (या कर पाई)। 15 जनवरी 2020 की अमर उजाला की खबर के अनुसार, जेएनयू हिंसा की आरोपी, नकाबपोश लड़की कोमल शर्मा ने राष्ट्रीय महिला आयोग में शिकायत दर्ज करवाकर मामले की जांच कराने की मांग की है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हिंसा मामले में नकाबपोश लड़की के रूप पहचानी गई दौलतराम कालेज की छात्रा कोमल ने एक राष्ट्रीय समाचार चैनल के निदेशक और रिपोर्टर के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। शर्मा जो कि एबीवीपी की कार्यकर्ता है ने आरोप लगाया कि चैनल ने अपने स्टिंग आपरेशन में उन्हें झूठा फंसाया है। यानी पुष्टि स्टिंग से भी हुई थी। पर मामला पलट गया। हालांकि, जांच उसकी भी नहीं हुई।
जहां तक बंगाल में प्रधानमंत्री के कहने और उनकी राजनीति की बात है, दिसंबर 2023 की एक खबर के अनुसार महिला अपराध में डबल इंजन वाला उनका उत्तर प्रदेश नंबर वन है। बंगाल डबल इंजन वाला तो नहीं ही है फिर भी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार दूसरे औऱ तीसरे नंबर पर भी नहीं है। संयोग हो या भाजपा का प्रयोग, दोनों स्थान पर अब भाजपा शासित राजस्थान और महाराष्ट्र हैं। एबीपी लाइव की खबर के अनुसार, साल 2021 में यूपी में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 56,083 मामले दर्ज किए गए, इसके बाद राजस्थान 40,738 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर रहा था। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022 में देशभर में महिलाओं के खिलाफ कुल 445,256 अपराध के मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में दर्ज 428,278 से चार प्रतिशत अधिक है। यानी मामले देश भर में बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री ही नहीं, उनका समर्थक मीडिया भी मणिपुर की बात ही नहीं करता है।
उत्तराखंड और अंकिता भंडारी का मामला
संदेशखली के मामले में प्रधानमंत्री ने जो कहा उसे अमर उजाला ने अपने दूसरे पहले पन्ने पर लीड बना दिया है लेकिन उत्तराखंड का मामला अमर उजाला के पहले पन्ने पर नहीं है। काफी समय से नहीं है। कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने एक ट्वीट किया है, “अगर देश की पत्रकारिता घुटनों पर ना बैठी होती तो आज इस निडर पत्रकार को यूँ घुटनों के बल बैठाने की ज़ुर्रत उत्तराखण्ड की सरकार नहीं कर पाती। पत्रकार आशु का अपराध केवल इतना है कि इन्होंने मासूम अंकिता भंडारी कि हत्या के खिलाफ इंसाफ कि आवाज़ बुलंद की थी। इस हत्या में भाजपा के एक नेता के बेटे का नाम था। भाजपा सरकार कि नीयत अब साफ है : अपराधियों का संरक्षण और इंसाफ मांगने वालों का दमन। इस सरकार में जो भी इंसाफ कि आवाज़ उठाएगा उसका यही हश्र होगा।“ अंकिता भंडारी के मामले में अमर उजाला की भूमिका कैसी थी यह उसके पाठक तय करें। मुझे पहले पन्ने पर यह खबर ना कल दिखी ना आज।
अंकिता भंडारी की हत्या की जांच सीबीआई और एनआईए को क्यों नहीं सौंपी जा रही है, उसकी मांग उत्तराखंड में विपक्ष क्यों नहीं कर पा रहा है और जो कर रहा है उसकी हालत से सब कुछ साफ है। ऐसे में अखबारों में खबरें नहीं छपती हैं तो यही व्यवस्था है। पर कोई समझना ही नहीं चाहे तो उसे कैसे समझाया जा सकता है। दुर्भाग्य से उसमें भाजपा समर्थक मीडिया भी है। जो अदालतों के पक्षपात को भी उजागर नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए प्रो जी साईबाबा का मामला ही लेते हैं। कल मैंने लिखा था कि इस महत्वपूर्ण खबर को मेरे सात अखबारों में दो ने ही लीड बनाया था। हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड था लेकिन अमर उजाला के दो पहले पन्नों पर यह खबर सिंगल कॉलम में थी, भले फोटो के साथ हाईलाइट की हुई थी पर एजेंसी के हवाले से छपी खबर में लिखा था, इस फैसले के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी। इस वाक्य और खबर की प्रस्तुति से लगता है कि अखबार आगे के लिए निश्चिंत था।
जी साईबाबा का मामला
जो भी हो, तथ्य यह है भी है कि 15 अक्तूबर 2022 की हिन्दी लाइव लॉ की खबर के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए मामले में प्रोफेसर जीएन साईबाबा और अन्य की रिहाई पर रोक लगा दी थी और बॉम्बे हाईकोर्ट के बरी करने का आदेश निलंबित कर दिया था। कल मैंने इस बारे में लिखा था, आज याद दिला दूं कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मामले पर शनिवार को विशेष सुनवाई की और दो घंटे की लंबी सुनवाई के बाद जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बेला एम। त्रिवेदी की बेंच ने महाराष्ट्र राज्य द्वारा दायर अपील पर नोटिस जारी करते हुए आदेश पारित किया। यहां झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का मामला उल्लेखनीय है। उनके मामले में मुख्य न्यायाधीश ने विशेष बेंच बनाई थी और जैसा सोरेन के वकील ने कहा पीठ ने उनकी बात सुनी ही नहीं और राहत देने से इनकार कर दिया। उस पीठ में भी जस्टिस बेला एम त्रिवेदी थीं और तभी यह चर्चा थी कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले उनकी पीठ में जाते हैं।
यहां उत्तर प्रदेश में महिला हिंसा की रिपोर्ट करने दिल्ली से जाने वाले केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का मामला याद आता है। उन्हें सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद भी कई दिनों तक जेल में रहना पड़ा था। उनके खिलाफ मनी लांड्रिंग का मामला भी ठोंक या गया था। पुलिस ने दावा किया था कि सिद्दीकी कप्पन के लैपटॉप और दिल्ली में उनके घर से बरामद दस्तावेज साबित करते हैं कि उनके पीएफआई से गहरे संबंध हैं। एबीपी लाइव डॉट कॉम की खबर के अनुसार रिहाई के बाद सिद्दीकी कप्पन ने कहा कि उन्हें फंसाया गया था। जेल से रिहाई के बाद कप्पन ने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को किस तरह संघर्ष करना पड़ा। आरोपों को लेकर कप्पन ने कहा, मैं सिर्फ रिपोर्टिंग के लिए हाथरस जा रहा था। मेरे साथ मेरे ओला ड्राइवर को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मेरे पास सिर्फ दो पेन, एक नोटपैड और एक मोबाइल था।
न्यायाधीश बेला एम त्रिवेदी
सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश, अविवाहित, बेला एम त्रिवेदी ने बिलकिस बानो केस में सुनवाई से खुद को बिना कारण बताये अलग कर लिया था तो वे चर्चा में आई थीं और तभी की न्यूज18 डॉट कॉम की एक खबर के अनुसार जस्टिस त्रिवेदी राजस्थान और गुजरात हाईकोर्ट में जज रही है। 31 अगस्त 2021 को वह गुजरात हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त हुईं। तब सवाल उठे थे कि कई सीनियर हाईकोर्ट जजों को अनदेखा कर उन्हें कैसे ये जगह दी गई। 1960 में गुजरात के पट्टन में जन्मी जस्टिस बेला 1995 में अहमदाबाद सेशन कोर्ट में जज बनीं जहां उनके पिता भी जज थे। बी कॉम करने के बाद एमएस यूनिवर्सिटी वडोदरा से वकालत की पढ़ाई की है। करीब 10 सालों तक गुजरात हाई कोर्ट में प्रैक्टिस के बाद उन्हें जज बना दिया गया। फरवरी 2011 से 2016 तक वे जयपुर हाईकोर्ट में जज रहीं और फिर गुजरात से दिल्ली आ गईं।
प्रो जी साईबाबा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की विशेष बैठक के बाद उनका फैसला अब हाईकोर्ट द्वारा सजा खत्म करने के बाद या किया जाना चाहिये। कल अमर उजाला ने अगर सुप्रीम कोर्ट में मामला संबित बताया और रिहा किये जाने की तरह प्रमुखता नहीं दी तो आज हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर है कि वे रिहा नहीं किये जा सके और संभवतः आज छूट जायेंगे। खबर के अनुसार नागपुर जेल अधिकारियों ने कहा कि उन्हें अदालत के दस्तावेज निर्धारित समय शाम छह बजे के बाद मिले। यहां मुझे अर्नब गोस्वामी का मामला याद आता है जब उन्हें भयानक जल्दबाजी में जमानत मिली थी और जेल से लौटते हुए जुलूस की शक्ल में ले जाये गये थे। अर्नब का मामला आप जानते हैं आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने प्रो जी साईबाबा का मामला बताया है।
एक दिन बाद इस खबर को पहले पन्ने पर रखने के मायने हैं जो मीडिया अब कम करता है। आज इस खबर का शीर्षक है, किसी आईडियोलॉजी से संबंधित सामग्री (इंटरनेट से) डाउनलोड करना यूएपीए का अपराध नहीं है : साइबाबा मामले में हाईकोर्ट। कहने की जरूरत नहीं है कि जो अपराध ही नहीं है उसे भयानक यूएपीए का अपराध बना दिया गया और साईबाबा 10 साल जेल में रहे।
महाराष्ट्र सरकार और हाईकोर्ट ने जो किया सो किया, सुप्रीम कोर्ट ने भी लटकाये रखा और साईबाबा को दस साल जेल में रहना पड़ा। अब खबर भी नहीं है। खबर है, प्रधानमंत्री का राजनीतिक भाषण। वह भी सिर्फ बंगाल के लिए दिया गया है दूसरे मामलों में चुप रहे हैं तब भी। यही नहीं, 84 साल के स्टेन स्वामी जेल को सिपर के लिए लड़ना पड़ा। जेल में मर गये और उनके खिलाफ सबूत कंप्यूटर में प्लांट किया गया था। खबर तो यह है कि हैकर ने किया पर करवाने वाला कौन था यह पता नहीं चला और ऐसे ही एक अन्य अभियुक्त के मामले में सुनवाई ही नहीं हुई है, (संभवतः) जेल में पड़ा है। स्टेन स्वामी और दूसरे मामले में कंप्यूटर में सबूत प्लांट करके जेल में रखने का खुलासा अमेरिकी फोरेंसिक फर्म ने किया है। राहुल गांधी विदेश में ऐसी कोई बात कह दें तो देश बदनाम हो जाता है। भीमा कोरेगांव मामले में जांच एजेंसी पर सवाल है लेकिन सुनवाई नहीं। मामला दबा-छिपा पड़ा है। और ऐसा कई मामलों में है।
सरकार का प्रचार और विपक्ष की आलोचना
सरकार के काम का प्रचार और विपक्ष की आलोचना वाली खबरों के साथ मीडिया क्या करता है और कैसे परसोता उसे जानने के बाद आज की कुछ ऐसी खबरें जान लीजिये जिन्हें प्रमुखता नहीं मिली, जो दबा दी गईं या यूं ही पहले पन्ने पर हैं। किसानों का मामला इसमें सबसे महत्वपूर्ण है। पर वह सिर्फ नवोदय टाइम्स में है। आखिर सरकार है किसलिये। वह बात करके मामले को निपटा क्यों नहीं रही है और नहीं निपटा सकती तो किसानों से होने वाली परेशानी से आम जनता को बचाने के लिए क्या कर रही है? किसानों को सीमा पर रोकने का काम तो पुलिस और दूसरी एजेंसियां कर रही हैं, सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है? वह उनके नेताओं को संतुष्ट क्यों नहीं कर पा रही है और वे क्या मांग रहे हैं, सरकार को क्या दिक्कत है यह सब स्पष्ट क्यो नहीं स्पष्ट किया जा रहा है। किसानों को दिल्ली जाने से क्यों रोका जा रहा है। सीमा पर रहने वालों को क्यों परेशान किया जा रहा है, दिल्ली वालों को क्यों बचाया जा रहा है? क्या सरकार सिर्फ दिल्ली और दिल्ली वालों के लिए है।
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मुझे लगता है कि यह सब यूं ही नहीं है। और ना इतना कम है कि समझ में नहीं आये या ध्यान नहीं जाये। चीजें बिल्कुल साफ है और लगता है कि सरकार जान बूझकर यह सब कर रही है। मीडिया के समर्थन से यह सब उजागर नहीं हो पा रहा है। सरकार यह सब चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए कर रही है और डरने वाले तो इससे भी डरेंगे कि भाजपा चुनाव जीत गई तो उनकी खबर लेगी। जिन्हें लाभ हो रहा है उन्हें होगा ही। इसलिए यह खत्म नहीं होगा और चुनाव निष्पक्ष हो पायेंगे, इसपर संदेह है। ईवीएम पर सरकारी रवैया और उसका लचर विरोध इसका संकेत देता है। इसलिए, मेरा मानना है कि मौजूदा स्थितियों में भाजपा को चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया जाना चाहिये। मैं जानता हूं कि यह ऐसे ही नहीं होगा और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगानी होगी। उसपर सुनवाई चुनाव से पहले होगी कि नहीं, और होगी तो कहीं जुर्माना ही न लग जाये इसलिए मेरी हिम्मत नहीं है। अखबार अब ऐसे रह नहीं गये कि उनसे भरोसा या उम्मीद की जाये। राम नाम सत्य है। जयश्रीराम।