बेहद टैलेंटेड जर्नालिस्ट सौमित सिंह ने पायोनियर, डीएनए, मुंबई मिरर और हेडलाइंस टुडे जैसे तमाम बड़े कहे जानेवाले संस्थानों में बेहद सीनियर पदों पर काम करने के बावजूद भीषण बेरोजगारी का दंश झेला और 44 साल की उम्र में दो छोटी बच्चियों के भविष्य का ध्यान रखे बगैर अपनी जान दे दी। इसका मतलब है कि बड़े संस्थान और बड़े पद का अनुभव भी पत्रकारों को सुरक्षा भाव देने में असमर्थ है। आगे पता नहीं उसके परिवार का जीवनयापन कैसे होगा। पत्रकार संस्थाएं इसमें कोई भूमिका निभा भी सकती हैं या नहीं?
हम हिंदी वाले सोचते हैं कि हमारा तो जीवन शोषण के लिए ही हुआ है पर अंग्रेजी पत्रकारों के लिए दुनिया की मीडिया खुली है। इसके बावजूद सौमित जैसा जर्नलिस्ट लड़ते लड़ते हार जाता है तो यह पत्रकार बिरादरी के लिए सिहरा देनेवाली बात है। इस समस्या का हल खुदकुशी नहीं है यह सौमित भी जानते होंगे पर निश्चित तौर पर स्थितियां ऐसी रही होंगी कि उसने मान लिया होगा कि अब कुछ नहीं हो सकता।
इधर उधर नजर दौड़ाएं तो यह आखिरी केस भी नहीं होनेवाला। बड़े अखबार और चैनल एक दिन में इम्पलाई को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं और छोटे मोटे संस्थान महीनों बिना वेतन के काम कराते रहते हैं। अभी नेशनल दुनिया और सहारा के मीडिया कर्मियों का कहना है कि उन्हें पांच छह महीने से वेतन नहीं मिला है और जल्दी मिलने की संभावना भी नहीं है। उनके घर में गुजर बसर कैसे हो रही होगी आप अंदाजा लगा सकते हैं। मेरा यह कहना है कि अगर आप संस्थान नहीं चला सकते तो बिना वेतन काम कराने का मतलब क्या है, बकाया दीजिए और अपनी दुकान बंद कीजिए, किस वैद्य ने कहा है कि बिना पैसे के मीडिया संस्थान चलाते रहिए।
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Comments on “सौमित खुदकुशी के बहाने मीडिया संस्थानों की हालत देख लीजिए”
सौमित्र एक समर्पित पत्रकार होगा। तिकड़म से दूर। चापलूसी जिसे आती नहीं होगी।
अपनी काबिलियत को ही सर्वोपरि मानता होगा। जहां तक रोजगार की बात की जाए तो आज किसी एक पत्रकारिता अदारे में जॉब सिक्योर ही कहां रही है? सब कॉंट्रेक्ट सिस्टम। आपको यदि सिर्फ अपनी काबिलियत पर गरूर है तो यह व्यर्थ है। इस तरह का संताप कई लेखन के धनी भोग चुके हैं और आगे भी भोगते रहेंगे हमारे इंडिया में। बात किसी भी बड़े अखबार की हो, चाहे वो दिल्ली में हो, मुंबई में हो और या फिर चंडीगढ़ में। सब जगह एक जैसा माहौल है। फिर अखबार किसी एक की दुकानदारी हो या छद्म रूप से ट्रस्ट बना दिया गया हो। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। धिक्कार है, ऐसे शोषणकर्ता मालिकों, ट्रस्टों और पत्रकारों के बल पर यूनियनें बना का अपनी रोटियां सेंकने वाले सरकारों में पत्रकारों के हकों का दिखावटी झंड़ा उठा कर चलने वालों पर। अपने अंतिम क्षणों में सौमित्र यही सोच रहा होगा कि कोई उसकी सुध लेगा लेकिन उसे क्या पता था कि कौन आएगा यहां कोई भी न आया होगा, मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा।