Sadhvi Meenu Jain : देश के प्रधानमंत्री ने डिस्लेक्सिया Dyslexia से प्रभावित लोगों का मखौल उड़ाया वह भी तब जबकि वह विद्यार्थियों से मुख़ातिब थे. मुझे चिंता उन विद्यार्थियों को देखकर हुई जो मोदी के उस भद्दे निर्लज्ज मज़ाक पर तालियाँ पीटते हुए हंस – हंसकर लोटपोट हुए जा रहे थे. देश के इन भावी नागरिकों की सन्वेदनशीलता का इस हद तक गिरा हुआ स्तर देखकर यह चिंता स्वाभाविक है कि ये छात्र किस प्रकार के असंवेदनशील समाज का निर्माण करेंगे जबकि उनका रोल मॉडल एक अशिष्ट असंवेदनशील प्रधानमंत्री है.
मोदी जैसे क्रूर मानसिकता के व्यक्ति से उम्मीद भी नहीं की जाती है कि वह मनुष्य की किसी मानसिक अक्षमता के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं. यह बात और है कि कल वह ‘इण्डिया टुडे कॉन्क्लेव’ में हाथ नचा – नचाकर कोंग्रेस से पूछ रहे थे उसने ५५ सालों में ‘ दिव्यान्गों ‘ के लिए क्या किया. (डिस्लेक्सिया से प्रभावित व्यक्ति को शब्दों को लिखने-पढने में दिक्कत पेश आती है मगर आश्चर्यजनक रूप से अत्यधिक बुद्धिमान होते हैं. अलबर्ट आइन्स्टीन, थॉमस एडिसन, निकोला टेस्ला, लियोनार्डो द विन्ची, ग्राहम बेल आदि अनेकों महान हस्तियाँ डिस्लेक्सिया से प्रभावित रहीं.)
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Samar Anarya : इंजीनियरिंग पढ़ रही एक लड़की ने मोदी से डिस्लेक्सिया (पढ़ने लिखने में दिक्क्त पैदा करने वाला मानसिक रोग) के शिकार बच्चों की रचनात्मकता का ज़िक्र करते हुए उनके लिए अपने किसी प्रोजेक्ट का ज़िक्र किया। मोदी ने बीच में बात काट राहुल गांधी का मज़ाक उड़ाने के लिए पूछा कि क्या यह योजना 40-50 साल के बच्चों को भी लाभ पहुँचाएगी। और खुद ठठा के हंस पड़े! पहले तो विद्यार्थी शायद समझे नहीं- फिर ठठा के हंस पड़े. वह बेहूदी लड़की भी. हंसी ही नहीं, जोड़ा भी कि हाँ सर, फायदा पहुँचाएगी।
मोदी की हंसी और वीभत्स हो चली थी- अब हमले में बुज़ुर्ग माँ को भी घसीट लाया था- फिर तो उसकी माँ बहुत खुश होगी। याद आया जब छत्तीसगढ़ में और भी बेशर्मी से दिया गया इन्हीं का एक बयान- वे मेरी माँ पर हमले करते हैं!
मोदी की विकलांगता का मज़ाक उड़ाने वाली टिप्पणी पर बाद में आता हूँ- पहले उस धूर्त लड़की की बात कर लें जिसका दावा खुद डिस्लेक्सिया पे काम करने का है! क्लीनिकल साइकोलॉजी उर्फ़ नैदानिक मनोविज्ञान में ही परास्नातक हूँ- जानता हूँ कि उस धूर्त लड़की को तो गलती से भी किसी भी मनोरोग पीड़ित व्यक्ति के पास खड़े होने तक की इज़ाज़त नहीं देनी चाहिए! मनोवैज्ञानिक उपचार की प्रथम शर्त है आत्मानुभूति- एम्पथी- सहानुभूति उर्फ़ सिम्पैथी नहीं! और वो तो सहानुभूति के भी ऊपर जाकर मज़ाक उड़ा रही थी!
अब वापस आएं मोदी पर- जो राजनैतिक हमले में बीमारी का भी मज़ाक उड़ा सकता है. क्या है कि विकलांगता को दिव्यांगता का नाम दे देने से अंदर की गन्दगी साफ़ नहीं हो जाती- वैसे भी इस देश में जिसको दिव्या बता के पूजा उसको ठगने का ही रिवाज है- कन्या पूजते पूजते सेक्स अनुपात 900 पहुँच गया- माने 1000 में 140 -150 लड़कियाँ भ्रूण में ही मारी जाने लगीं, गाय पूजते पूजते दूध देना बंद करते ही काटने को बेच देने लगे, देश पूजते पूजते सरहद को सैनिकों की कब्रगाह बना दिया। दिव्यांग नाम देते ही इरादे समझ आ गए थे! बाकी मोदी तो मोदी ठहरा- उस सभागार में जो 100-200 बच्चे थे- इंजीनियरिंग पढ़ रहे- उनमें से एक को शर्म न आई? सामने देश का पीएम था, विरोध में डर भी लगा हो तो भी- कम से कम चुप रहने भर का प्रतिकार तो कर सकते थे!
खैर- जानते हैं विकलांग होना, पागल होना क्या होता है? आपको पता भी है कि किसी डॉक्टर के जाने अनजाने लिये ग़लत निर्णय से प्रसव के दौरान ऑक्सीजन न मिलने पर क्या होता है? कभी सोचा भी है कि ऐसे बच्चों के माँ बाप पर क्या गुज़रती होगी जब उन्हें पहली बार पता चलता होगा! या उस बच्चे की जिसकी किसी वजह से टाँगे न हों. आस पास के बच्चे जब दौड़ते होंगे तो उसे कैसा लगता होगा? खुद डिस्लेक्सिक बच्चों को? बीमारी समझ आते न आते हर असफलता के लिए पड़ा हर वो थप्पड़ उनको भीतर से कैसे तोड़ता होगा जो उन्हें बिना किसी गलती के पड़ा था! जानते हैं ऐसे कितने बच्चे हैं अपने समाज में? डिस्लेक्सिया का इन्सिडेंस (फैलाव) 3-7 % होता है- माने 100 बच्चों में कम से कम 3 तो शर्तिया। ट्रेट्स और भी ज़्यादा 17-20 %.
मतलब- मोदी जी ने तो पत्नी छोड़ दी- पर जो भक्त डिस्लेक्सिक नहीं हैं और ठठा के हँस रहे हैं उनके अपने बच्चे भी जद से बाहर नहीं हैं- भक्त साहब खुद ट्रेट लिए घूम रहे हो सकते हैं, ईश्वर बचाये पर अपने बच्चों को डिस्लेक्सिया दे सकते हैं!
बाकी कोई विकलांग बच्चा अपनी विकलांगता नहीं चुनता। बड़े भी नहीं। वे रोज़ लड़ते हैं उससे- जीवन भर. पानी का जो ग्लास उठा पी लेना हमारी ज़िन्दगी में इतनी सामान्य बात होती है कि हम सोचते भी नहीं- वह उनके लिए बोर्ड की परीक्षा से बड़ी जद्दोजहद हो सकती है.
बहुत पहले लिखा था कि किइस को मानसिक विकलांग कहना क्यों गलत है कि पूरी तरह स्वस्थ शरीर में नफ़रत पालने वाले और कुछ भी हों- ‘पागल’ नहीं हैं- मानसिक विकलांग नहीं हैं। मोदी जी की विकलांगता का मज़ाक उड़ाके ठठा के जो वीभत्स हँसना है वह चुना हुआ है- सत्ता के लिए है, वोट के लिए है, उनकी नफ़रत चुनी हुई नफ़रत है- वह उनकी ज़िंदगी नहीं, उनके शिकारों की ज़िंदगी बरबाद करती है। सच में ‘पागल’, विकलांग लोगों की ज़िंदगी में कुछ भी चुना हुआ नहीं है- उनके ऊपर ज़िंदगी भर को थोप दी गयी एक लड़ाई है।
समझ सकिएगा तो सकिएगा- उस हॉल में बैठे एक भी छात्र को आप निजी तौर पर जानते हों तो प्लीज़ उनसे मिलिए, उन्हें समझाइये कि इंजीनियर डॉक्टर जो भी बनें, थोड़ा सा इंसान भी बन लें. किसी की विकलांगता पर हँसने ही नहीं, कोई हँसे तो कम से कम चुप रहने भर का शांत प्रतिरोध कर सकने की हिम्मत भर के इंसान।
सोशल एक्टिविस्ट साध्वी मीनू जैन और अविनाश पांडेय उर्फ समर अनार्या की एफबी वॉल से.
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