-संजय कुमार सिंह-
माईवे ऑर हाईवे यानी मेरी मानो या निकल लो
व्यस्तता के कारण द टेलीग्राफ के कल के इस शीर्षक की चर्चा नहीं कर पाया। मुझे अक्सर लगता है कि अखबारों का जो काम है वह अक्सर टेलीग्राफ कायदे से करता हुआ नजर आता है। बाकी के कई अखबार अक्सर न सिर्फ सरकार का समर्थन कर रहे हैं बल्कि गलत का भी साथ दे रहे हैं और दूसरा पक्ष तो बताते ही नहीं हैं। इस दौर की राजनीति में जब नोटबंदी को बहादुरी कहा गया था और पाकिस्तान को घुस कर माने की हिम्मत प्रधानमंत्री दिखाते हैं, लाल-लाल आंखें दिखाने की जरूरत बताते हैं तो असल में जो हो रहा है उसपर प्रकाश डालना अखबारों का ही काम है। राजनीति में विरोध और विरोध का स्तर दोनों महत्वपूर्ण है और विपक्ष की जरूरत भी।
दूसरी तरफ विपक्ष सरकार से मुकाबले के लिए नहीं है, नैतिक और राजनीतिक विरोध के लिए है। उसके पास ईडी, सीबीआई नहीं है उसके पास जनमत है और होना चाहिए। जनमत बनाना मीडिया का काम है। बेशक सरकार अच्छा काम कर रही हो तो सरकार का प्रचार भी होगा ही। विज्ञापनों के अलावा भी। लेकिन खिलाफ कोई खबर ही न हो यह अति है। और इन दिनों हम उसी अति को झेल रहे हैं। पत्नी को मुख्यमंत्री बनाना गलत हो सकता है पर इसका मतलब यह नहीं है कि पत्नी के अलावा किसी को पद (या टिकट) दिया जाए तो पूछा ही नहीं जाए। खासकर तब जब संस्कार की बात होती हो। संस्कार तो पत्नी को ही स्टैंड बाई में रखता है आप किसी और को सहयोगी बनाएंगे तो उसका कारण बताएंगे। पर वह पूछा ही नहीं जाए – ऐसी स्थिति हो जाए तो आप क्या कहेंगे।
ऐसी स्थिति में द टेलीग्राफ ने पूछा है, मनमानी करने के लिए ज्यादा हिम्मत चाहिए या गलती सुधारने के लिए। इस क्रम में माई वे ऑर (या) हाई वे – बहुत अच्छा प्रयोग है। इसका मतलब हुआ मेरी बात सुनो या निकल लो। दूसरे शब्दों में, मेरे फैसले मंजूर न हों तो पाकिस्तान चले जाओ। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है पर लगभग ऐसा ही है। टेलीग्राफ ने इसे कायदे से बताया समझाया है। पर अंग्रेजी के पाठक तो यह सब जानते समझते ही हैं। हिन्दी वालों को कैसे समझाया जाए? नहीं तो वे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारते रहेंगे और समझाने वाले अर्बन नक्सल कहे जाते रहेंगे?
इन खबरों में बताया गया है कि अदालत ने अंतर धार्मिक विवाह पर स्थिति स्पष्ट कर दी लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने पर अड़े रहे जबकि केरल ने अपना जन विरोधी कानून वापस ले लिया। इसके साथ यह भी बताया गया है कि सीएए के विरोध में प्रधानमंत्री ने क्या देखा और बीबीसी को क्या दिखा। ये दिलचस्प चीजें हैं और जनता को बताई जाती रहनी चाहिए। वैसे ही जैसे ऐक्टिंग में अमिताभ बच्चन ने राजनीति को गंदा नाला कहकर किनारा कर लिया पर हम उनसे बहुत पीछे रह गए नरेन्द्र मोदी को उनकी उन्हीं खासियतों के कारण अपना प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। अब ऐक्टिंग के आधार पर चुनाव हो गया तो वो क्या कह और कर रहे हैं – यह बताना तो मीडिया का काम है ही। जरूरत भी।