: शीशों की मीनाकारी से बनी तस्वीर : आज अगर राजकमल चौधरी जिन्दा होते, तो वे सत्तर-बहत्तर साल के होते। सहज ही ख़याल होता है कि ‘मछली मरी हुई’, और ‘मुक्ति प्रसंग’ का लेखक सत्तर साल के बुजुर्ग के रूप में कैसा दिख रहा होता और इर्द-गिर्द की दुनिया से किस तरह पेश आ रहा होता? जबकि न तो ‘शहर था शहर नहीं था’ का पटना वैसा रह गया है, न ‘एक अनार एक बीमार’ का कलकत्ता. अपनी अकाल मृत्यु के समय 36 वर्ष की आयु में ही एक किम्वदन्ती बन जाने वाला साहित्यकार ख़ुद को कितना बूढ़ा या जवान महसूस कर रहा होता? उसके अन्तस्तल में बैचैनी और आक्रोश में जो उबलते हुए सोते थे, वे क्या सूख गये होते या शान्त नीली नदियों में तब्दील हो गये होते। अपने समय, समाज और साहित्यिक समुदाय में उसका रिश्ता कैसा होता? सवालों का हुजूम है, जो राजकमल की याद आते ही मन में घुमड़ने लगता है। स्मृतियों की एक कतार है, जो फूल बाबू उर्फ़ मणीन्द्र चौधरी उर्फ़ राजकमल चौधरी से जुड़ी हुई है और सरसों के फूलों की कतार की तरह लहराती है। बहुत-से किस्से हैं, जिन्होंने राजकमल चौधरी को इस तरह ढँका हुआ है, जैसे मेकप और मैनिरिज़्म किसी अभिनेता को ढँके होते हैं।
मैंने जब पहली बार राजकमल चौधरी को देखा, मेरी उम्र लगभग 16-17 साल की थी। मैं शायद इण्टरमीडीएट पास कर चुका था और युनिवर्सिटी में दाख़िल होने का इन्तज़ार कर रहा था। साहित्य से प्रत्यक्ष नाता महज़ इतना था कि मैं अश्क जी का पुत्र था, लेकिन परोक्ष रूप से यानी एक पाठक के तौर पर आधुनिक हिन्दी साहित्य काफ़ी कुछ खँगाल चुका था। हमारे बड़े बँगले में अश्क जी का लिखने-पढने का कमरा बहुत छोटा था। उसकी खिड़की के सामने फाटक से बँगले तक आता हुआ रास्ता नज़र आता और यह कक्ष हर नये-पुराने रचनाकार के लिए हमेशा खुला रहता था। इससे लगे अन्दर के बड़ें कमरे में बैठक थी, जहाँ अक्सर गोष्ठियाँ होती और आयोजन। गोष्ठियाँ अनौपचारिक होतीं, आयोजन अलबता औपचारिकता में शुरू होकर अनौपचारिकता में परिवर्तित हो जाते। यही 5, खुसरो बाग़ रोड का कायदा था, और है। गो, अब अश्क जी वहाँ नहीं हैं। उनके उस छोटे-से कक्ष में ही शैलेश मटियानी को देखा, जो बम्बई की खाक छानकर आये थे, वहीं राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश को देखा और वहीं बलवन्त सिंह, कृष्णा सोबती, दूधनाथ सिंह, कमलेश्वर और अमरकान्त को देखा। वहीं मैंने पहली बार राजकमल चौधरी के भी दर्शन किये. में किसी काम की बैठक में आया था और अश्क जी के कक्ष में किसी मेहमान को बैठा जान कर मैंने परदा हल्का-सा सरका कर अन्दर झाँका था कि अश्क जी ने मुझे बुला लिया और कहा कि देखो, ये राजकमल चौधरी हैं। इन्हें जरा नरेश जी के यहाँ ले जाओ। नरेश जी यानी नरेश मेहता, जो हमारे मोहल्ले में ही रहते थे। मैंने देखा — ढीली पतलून और चप्पल में, पीली-काली बुशशर्ट पहने सामान्य-सा युवक अश्क जी के सामने वाली कुर्सी पर बैठा था। मझोला कद और बंगालियों जैसी शक्ल-सूरत।
उस ज़माने में रेडीमेड कपड़ों का उतना प्रचलन नहीं था, लेकिन विंग्स नामक एक कम्पनी बड़ी सलीकेदार बुशशर्टें बनाया करती थी। उनके काले-पीले, या लाल-काले या हरे-काले रंग के महीन छापे होते थे और उन्हीं रंगों के धातु के बटन। दर्जी के सिले कपड़ों वाले ज़माने में विंग्स की रेडीमेड बुशशर्टें फ़ैशनेबल मानी जाती थीं। ऐसी ही बुशशर्ट राजकमल चौधरी ने पहनी हुई थी, मगर वे कहीं से भी फ़ैशनेबल नहीं लग रहे थे। इसके विपरीत वे मुझे किसी सरकारी दफ़्तर के युवा बाबू ही लगे। मुझे ख़याल आया — अच्छा, यही वो महाशय हैं, जिनके बेहद ख़ूबसूरत अक्षरों में लिखे पोस्टकार्ड तथा अन्तरदेशीय पहले पी.ओ. पुतियारी ईस्ट, कलकत्ता से आते थे अब भिखना पहाड़ी, पटना से आते हैं।
अश्क जी के परिचय कराने पर राजकमल मुस्कुराये — एक निश्छल मैथिल मुस्कान। अश्क जी फिर उनसे मुख़ातिब हुए — अच्छा राजकमल, तुम नरेश से मिल आओ, मैं इस बीच थोड़ा काम कर लेता हूँ। हम बाहर निकले और लूकरगंज की तरफ़ बढ़े, जिसके ख़ुसरो बाग़ वाले छोर पर नरेश जी रहते थे। लेखक मेरे लिए किसी कौतूहलपूर्ण बिरादरी के सदस्य नहीं थे। बचपन से लेखकों को ही देखा था, मगर यह शख़्स जिसके साथ नरेश जी के घर की तरफ़ जा रहा था, कहीं से लेखक जैसा नहीं था। नरेश जी का घर पैदल तीन-चार मिनट के फासले पर था। इस बीच महज़ कुछ सूचनाओं का आदान-प्रदान हुआ होगा। बस, इतना याद है कि राजकमल की सहजता ने मुझे आकर्षित किया था। उनमें कहीं से भी कोई सरपरस्ताना भाव नहीं था, हालाँकि उनकी उम्र मुझसे लगभग दूनी थी। संयोग की बात है कि नरेश जी घर पर नहीं थे। मुझे याद है, राजकमल अचानक उन्मुक्त और प्रफुल्लित महसूस करने लगे। उन्होंने कहा,‘चलो, अच्छा ही है, मुझे भी कुछ अटपटा सा लग रहा था।’ हम लोग बाहर लूकरगंज की फ़ील्ड की ओर जाने वाली सड़क पर आ गये थे। मैंने उनसे पूछा,‘अब आप कहाँ जाना पसन्द करेंगे?’ बोले,‘जहाँ तुम ले चलो।’ मैंने सुझाव दिया,‘कॉफ़ी हाउस चलेंगे? वहाँ शाम को बहुत-से लोग इकट्ठा होते हैं?’ तुरन्त बोले, ’हाँ-हाँ चलो। मज़ा रहेगा।’ मैंने कहा, ’रिक्शे से चलेंगे या पैदल?’ बोले, ’कितनी दूर है?’ मैंने कहा, ‘डेढ़ मील के करीब होगा.’ राजकमल ने पूछा,‘कितने बजे हैं?’ चार-साढ़े चार का वक्त रहा होगा। मैंने घड़ी देखी और उन्हें बताया। कहने लगे, ’चलो, पैदल ही चलते हैं।’
मैं उन्हें लूकरगंज फ़ील्ड की तरफ़ से आटा मिल होते हुए सिविल लाइन्स की तरफ़ से ले चला जहाँ काफ़ी हाउस था। उन दिनों लूकरगंज से सिविल लाइन्स को जाने वाली सड़क पर फ़्लाई ओवर नहीं बना था और रेलवे लाइन पार कर के ही उधर जाया जाता। रास्ते में क्या बातें हुई, आज चालीस वर्ष बाद कुछ याद नहीं हैं। एक वाक्य स्मृति में टँका रह गया है… जब उन्होंने वक़्त पूछा तो मैंने सवाल किया,‘आप घड़ी नहीं पहनते?’ कहने लगे ‘न्न! मुझे समय से बँधना पसन्द नहीं।’ पी.ओ. पुतियारी ईस्ट, कलकत्ता और मिखना पहाड़ी, पटना जैसे रोमांचकारी पतों पर रहने वाले लेखक की ओर से यह एकदम माक़ूल जवाब था।
राजकमल से दूसरी मुलाक़ात ज़रा लम्बी थी। वे कुछ लिखने के उद्देश्य से हमारे घर आये थे और पन्द्रह-बीस दिन ठहरे थे। तब तक वह मकान हम ख़रीद चुके थे और बायें हाथ को जो एक छोटी-सी कॉटेज थी, उसे राजकमल चौधरी के हवाले कर दिया गया था कि वे निश्चिन्त स्वभाव से, बिना विघ्न-बाधा के काम कर सकें। तब तक एक ‘बदनाम लेखक’ के रूप में राजकमल की स्थिति कुछ-कुछ, 5, खुसरोबाग़ रोड के संसार में प्रवेश कर चुकी थी। लेकिन अश्क जी इस ‘बदनामी’ की हकीकत जानते थे, इसलिए उन्होंने राजकमल को साग्रह अपने घर आमन्त्रित किया और हर तरह से छूट दी थी। मैं तब तक यूनिवर्सिटी में दाख़िल हो चुका था और वहाँ के उत्तेजनापूर्ण वातावरण में रमा हुआ था, तो भी हर रोज सुबह-शाम राजकमल से भेंट होती, गप-शप होती. मुझे मालूम था कि वे लिखने के लिए हमारे यहां आये थे, लिहाज़ा उन्हें डिस्टर्ब नहीं किया जाना चाहिए था। ज़ाहिर है, इसी पाबंदी के तहत राजकमल के साथ मेरा जमावड़ा होता। वे अमूमन आधी बाँह की गंजी और सफ़ेद ही लुंगी, जो अक्सर धोती को दोहरा कर बनायी गयी होती, पहने रहते और पहले से भी कम लेखक लगते। इस बीच मैं उनकी रचनाएँ पढ़ चुका था, उनके शैलीकार से प्रभावित हो चुका था और मेरे अन्दर लिखने की भी इच्छा अण्डे के भीतर फूट निकलने को आतुर चूज़े की तरह हरकत ज़दा हो रही थी। राजकमल के साथ साहित्य पर बातें होतीं। वे शतरंज के शौक़ीन थे और मज़े की खेलते थे। मैं बारह साल की उम्र में ही शतरंज में दीक्षित हो चुका था और अक्सर उनसे दो-दो हाथ करने को आतुर रहता, हालाँकि अश्क जी को शतरंज से चिढ़ थी, शायद इसलिए कि उन्होंने हमारे ताऊ को शतरंज में बेपनाह वक़्त बर्बाद करते देखा था।
राजकमल के इसी इलाहाबाद प्रवास के दौरान एक ऐसी घटना घटी, जिसने उनका एक बिल्कुल अलग रूप मेरे सामने उजागर कर दिया। जिस मकान को हमने ख़रीदा था, उसके पीछे रेलवे में काम करने वाला एक ऐंग्लो इण्डियन परिवार रहता था। उनके कुछ रिश्तेदार पहले उसी कॉटेज में रहते रहे थे जो बंगले को हमारे ख़रीदने के बाद उनसे ख़ाली करायी गयी थी। मामला ताज़ा-ताज़ा था, इसलिए थोड़ी तना-तनी का माहौल भी था। जाने किस बात पर झगड़ा हुआ, लेकिन कहा-सुनी थोड़ा उग्र रूप ले बैठी। राजकमल भी अपने कमरे से निकल कर पीछे के आँगन में आ गये, जहाँ हम सब इकट्ठा थे। तभी बक-झक करते हुए उस ऐंग्लो इण्डियन रेलवे ख़लासी ने एक फूहड़-सा फ़िकरा इस्तेमाल किया। मेरी माँ और भाभी भी वहीं खड़ी थीं। राजकमल हस्ब-मामूल गंजी-लुंगी पहने हुए थे। उस आदमी का फूहड़ फ़िकरा कहना था कि अचानक राजकमल लपक कर सामने आ खड़े हुए और रौद्र रूप धारण करते हुए उन्होंने अंग्रेजी में उस ऐंग्लो इंडियन ख़लासी को डपटना शुरु किया कि वो महिलाओं की मौजूदगी में ऐसी असभ्य भाषा का प्रयोग कैसे कर रहा है। और अगर वो फिर ऐसा करेगा तो राजकमल जूतों से उसकी पिटाई करेगा। रेलवे ख़लासी भी हष्ट-पुष्ट था, लेकिन राजकमल के तेवर के आगे सहम-सा गया और मामला वहीं शान्त हो गया।
ये यही राजकमल थे, जिनके बारे में बदचलनी की अफ़वाहें प्रचलित थीं और जिनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु की झूठी सूचनाएँ प्रचारित की थीं और लोगों की शोक संवेदनओं के ख़त पढ़-पढ़ कर उनका मज़ाक उड़ाया था। उस पूरे इलाहाबाद-प्रवास में राजकमल एक सीधे-साधे औसत गृहस्थ की तरह की व्यवहार करते रहे थे। इसके बाद राजकमल पटना चले गये और उनसे होने वाली ख़तो-किताबत सिर्फ़ अश्क जी तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि मैं भी उनमें शामिल हो गया। मुझे याद है, जब में एम.ए. में था और ज्ञानोदय के नव लेखन अंक में छपी मेरी कविता को पुरस्कृत किया गया था, तो बधाई का सबसे पहला ख़त राजकमल चौधरी का था। इसके बाद राजकमल अचानक किन्हीं और कारणों से चर्चा में आ गये। ख़बर मिली कि वे कलकत्ता चले गये हैं, कि वे वहाँ मलय राय चौधरी के साथ भूखी पीढ़ी का नारा बुलन्द करने लगे हैं, कि उन्होंने चौरंगी या पार्क स्ट्रीट या कॉलेज स्ट्रीट में गाँजा-दारू पी कर खासा हंगामा किया है, कि उन्हें… अफ़वाहों और ख़बरों का कोई अन्त नहीं था। बहरहाल, यह दौर भी आया और चला गया। इस बीच ‘भयाक्रान्त’ और ‘झील’ जैसी कहानियाँ छपीं और चर्चित हुईं।
‘भयाक्रान्त’ की मुझे ख़ास याद रह गयी है, क्योंकि अँधेरे में डरने वाली एक बच्ची और उसके स्नेही पिता को केन्द्र में रख कर संवेदनाओं का जो ताना-बाना अत्यन्त दक्ष और कुशल हाथों से राजकमल ने बुना है, वह हृदय को छू लेने वाला है। यह राजकमल का वही गृहस्थ रूप था, जिसे उन्होंने कदाचित जल्दी चर्चित होने के लिए कलकत्ता के हंगामों के नीचे दफ़्न कर दिया था। लेकिन मेरे हिसाब से यह कहानी राजकमल के समूचे कथा-साहित्य में एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
फिर पता चला कि राजकमल पटना आ गये हैं। एक दिन उनका ख़त आया कि में फ़लाँ गाड़ी से बम्बई जा रहा हूँ, तुम स्टेशन पर मिलो। में पहुँचा। स्टेशन पर काफ़ी भीड़ थी। मैं अभी उन्हें खोजने के लिए बढ़ ही रहा था कि अचानक तेज़ी से लपकते हुए वे आये। मुझे झटका-सा लगा। वे अपनी उम्र से पाँचेक साल बड़े लगने लगे थे। दाढ़ी थोड़ी बढ़ी हुई थी और उसमें जगह-जगह चाँदी के तार दिखाई दे रहे थे। केशों में भी वैसा ही रूपहलापन पानी में कौंधती किरणों जैसा झिलमिला रहा था, लेकिन स्वभाव की गर्मजोशी पहले जैसी ही थी। उन्होंने बताया कि वे किसी भोजपुरी फ़िल्म के सिलसिले में बम्बई जा रहे हैं। जितनी देर गाड़ी रुकी रही, वे घर-परिवार का, अश्क जी का और मेरे लिखने-पढ़ने का हाल-चाल पूछते रहे और फिर गाड़ी में सवार हो कर चले गये। फिर राजकमल से भेंट नहीं हुई। बम्बई से लौट कर पटना आने पर उनके ख़त आते रहे, जिनमें इलाहाबाद आने की योजनाएँ बनायी जातीं। एक दिन अश्क जी ने कहा — ‘राजकमल का ख़त आया है। शायद उसे इन दिनों पैसे की तंगी है।
मैंने उसे लिखा है कि वो यहाँ आ जाये, काम का इन्तजाम हो जायेगा।’ मेरे लिए यह एक अत्यन्त सुखद सूचना थी। मैंने भी उन्हें आने के लिए आग्रह करते हुए एक पत्र लिखा। उनके जवाब उत्साह से भरे हुए थे, लेकिन आना बराबर टल रहा था। इसी बीच, मुझे याद पड़ता है, मेरे बड़े भाई पटना गये और ये ख़बर लाये कि राजकमल ने इलाहाबाद आने का पक्का मन बना लिया है और वे जल्दी ही आयेंगे। लेकिन सूचना मिली कि वे इलाहाबाद जाने की बजाय राजेन्द्र सर्जिकल वॉर्ड में चले गये हैं। हस्पताल से भी उनके ख़त आते रहे कि — बस, ठीक होते ही इलाहाबाद आ रहा हूँ। इन्हीं ख़तों के साथ डाकिया एक दिन दो पैकेट ले कर आया — एक पर अश्क जी का नाम था और एक पर मेरा। पैकेटों में ‘मुक्ति-प्रसंग’ की प्रतियाँ थीं – एक अश्क जी के नाम अंकित कि यह कविता मैंने ख़ुद प्रकाशित की है, इसे आप दो रुपये में ख़रीद कर सहयोग करें। एक प्रति मेरे नाम अलग से थी। बीच में सूचना मिली कि वे अस्पताल से बाहर आ गये हैं। हमने फिर चिट्ठियाँ पठायीं कि अब कोताही न करें और इलाहाबाद चलें ही आयें। लेकिन शायद हमारे बुलावे से अधिक आग्रहपूर्ण था, वह निमन्त्रण, जिसे कोई नहीं टाल पाता। मुझे याद है, हम यानी ज्ञानरंजन, प्रभात और कुछ अन्य मित्र कॉफ़ी हाउस में बैठे हुए थे जब ख़बर आयी कि राजकमल नहीं रहे।
इलाहाबाद की बेकल कर देने वाली गर्मियों का महीना था, लेकिन उससे भी ज़्यादा बेकल कर देने वाली ख़बर थी यह। तब से पैंतीस गर्मियाँ बीत चुकी हैं, पी.ओ. पुतियारी ईस्ट और मिखना पहाड़ी में भारी तब्दीली हो गयी है, लेकिन राजकमल के सम्पादन में निकली पत्रिका ‘रागरंग’ का हरे आवरण वाला एक अंक आज भी मेरे पास सुरक्षित है। और सुरक्षित हैं उनकी कहानियाँ, उपन्यास और कविताएँ और उनके साथ बिताये गये समय की वे स्मृतियाँ, जिन्होंने चालीस वर्ष बाद भी राजकमल को उस युवा-रचनाकार के मन में ‘ज़िन्दा’ रखा हुआ है, जो अब ख़ुद युवा नहीं रहा, प्रौढ़ हो चुका है।
आज, चालीस वर्ष बाद, राजकमल की स्मृतियों को ताज़ा करते हुए एक कचोट-सी मन में उठती है। एक सवाल भी; कि आख़िर वे कौन-से कारण थे, जिनके उकसावे पर इतने प्रतिभाशाली रचनाकार ने जान-बूझ कर ख़ुद अपना जीवन विनाश के पथ पर डाल दिया? अपनी अन्तिम बीमारी के दौरान लिखी गयी एक अपूर्ण कहानी में राजकमल ने लिखा था — ‘मैं मिनिस्टर का आदमी नहीं हूँ। मैं किसी का, किसी बनिये का भी नहीं हूँ, महन्त का भी आदमी नहीं हूँ। मैं आदमी नहीं हूँ — यही बात साबित करने के लिए मैं किताबें पढ़ता हूँ, मैं चायख़ानों में बैठ कर दक्षिणपन्थी साम्यवाद और वामपन्थी साम्यवाद की तुलना करता हूँ, मैं रोज़ नशा लेता हूँ, और ज़्यादातर मैं अपने कमरे में टेबल के सहारे बिस्तर पर पड़ा हुआ, अपने बारे में और इतनी बड़ी इस सारी दुनिया के बारे में सोचता रहता हूँ — क्या होगा और क्या होना चाहिए।’
‘मिनिस्टर, बनिये और महन्त का आदमी न होने की गर्वोक्ति से ले कर ‘आदमी न होने’ की स्वीकारोक्ति में ही राजकमल चौधरी की त्रासदी छिपी हुई है। बेशक, राजकमल चौधरी का चरित्र बेहद जटिल, बेहद पेचीदा था। इन जटिलताओं को मद्दे-नज़र रखते हुए और उनके ‘अच्छे-बुरे’ का लेखा-जोखा करते हुए इतना कह कर उनकी त्रासदी को नहीं समझाया जा सकता कि जीनियस हमेशा ख़ुद को नष्ट करते आये हैं या यह कि राजकमल येन-केन-प्रकारेण ख्याति प्राप्त करने की जल्दी में था या फिर यह कि महज़ एक शोशेबाज़ था। राजकमल की त्रासदी के स्रोत अगर कहीं खोजने चाहिएँ तो मिथिला में उनके बचपन से लेकर किशोरावस्था तक के उन वर्षों में जब मनीन्द्र नारायण चौधरी धीरे-धीरे कोये से निकलती तितली की तरह राजकमल चौधरी बनने की तैयारी में था। इसके अलावा उसकी त्रासद जीवन-कथा का स्रोत किसी हद तक उसके समय में हो सकता है। एक झूठी आज़ादी की पृष्ठभूमि में सपनों के ध्वस्त हो जाने पर राजकमल चौधरी एक उतनी ही अवास्तविक सुरंग के ज़रिये, उतने ही अवास्तविक — कहा जाय कि निरर्थक — विद्रोह की और चला गया और शराब-गाँजा-गिन्सबर्ग — अकविता भूखी पीढ़ी और तन्त्र-मन्त्र से होते हुए, जैसा कि मेरे मित्र पंकज सिंह का कहना है, सांस्कृतिक अमरीकीवाद का शिकार हो गया। उस पथ की भी यही नियति थी और उस पन्थ की भी।
1967 में जब राजकमल चेता और उसने ‘आलोचना’ की परिचर्चा में कहा कि ‘मैं, राजकमल चौधरी, अपनी तरफ़ से जनता के पास वापस चले जाने का वादा करता हूँ — मेरी सही यात्रा वहीं से शुरु होगी’ — तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वह ऐसे सफ़र पर कदम बढ़ा चुका था, जहाँ से कोई वापसी नहीं होती। इसलिए, अब तक राजकमल चौधरी की कोई कमोबेश प्रामाणिक जीवनी भी नहीं है। बस, टुकड़ों-टुकड़ों से बनायी गयी एक तस्वीर है, शीशों की मीनाकारी की तरह, जिसमें कभी राजकमल एक सम्वेदनशील गृहस्थ नजर आता है, कभी एक बदचलन और लम्पट उच्छृंखलतावादी, कभी एक प्रतिभाशाली साहित्यकार दिखायी देता है तो कभी सस्ती ख्याति का पीछा करता महज़ एक शोशेबाज़। काश, कोई शीशों की मीनाकारी से बनी इस तस्वीर को सही आदमक़द में मुकम्मल करता।
नीलाभ अश्क ने यह लेख 27 जनवरी 2002 को लिखा और तब कई जगहों पर प्रकाशित हुआ.