आजकल माफी मांगने में जुटे हैं नीलाभ अश्क, पढ़िए कुछ प्रायश्चित पोस्ट्स

Neelabh Ashk : एक बिना-शर्त माफ़ीनामा…. अपने जीवन में मुझसे अपने आवेगशील स्वभाव के कारण अनेक ऐसी घटनाएं और प्रसंग हो बैठे हैं, जिन पर मुझे बेहद खेद और शर्मिन्दगी महसूस हुई है. मैंने अपने अविवेक में बहुत-से लोगों को चोट पहुंचायी है. मेरी कोशिश रही है कि जहां तक सम्भव हो, इन ग़लतियों का परिमार्जन हो सके. अपनी भूल को स्वीकार करके माफ़ी मांग लेने में मेरा अहम कभी आड़े नहीं आया, क्योंकि जो भी किया, वह मैंने किया था, सो माफ़ी मांगना मेरा ही कर्तव्य बनता था.

उम्रदराजी की छूट अगर नीलाभ को मिली तो वागीश सिंह को क्यों नहीं?

Amitesh Kumar : हिंदी का लेखक रचना में सवाल पूछता है, क्रांति करता है, प्रतिरोध करता है..वगैरह वगैरह..रचना के बाहर इस तरह की हर पहल की उम्मीद वह दूसरे से करता है. लेखक यदि एक जटिल कीमिया वाला जीव है तो उसका एक विस्तृत और प्रश्नवाचक आत्म भी होगा. होता होगा, लेकिन हिंदी के लेखक की नहीं इसलिये वह अपनी पर चुप्पी लगा जाता है. लेकिन सवाल फिर भी मौजूद रहते हैं.

ये यही राजकमल चौधरी थे जिनके बारे में बदचलनी की अफ़वाहें प्रचलित थीं…

: शीशों की मीनाकारी से बनी तस्वीर : आज अगर राजकमल चौधरी जिन्दा होते, तो वे सत्तर-बहत्तर साल के होते। सहज ही ख़याल होता है कि ‘मछली मरी हुई’, और ‘मुक्ति प्रसंग’ का लेखक सत्तर साल के बुजुर्ग के रूप में कैसा दिख रहा होता और इर्द-गिर्द की दुनिया से किस तरह पेश आ रहा होता? जबकि न तो ‘शहर था शहर नहीं था’ का पटना वैसा रह गया है, न ‘एक अनार एक बीमार’ का कलकत्ता. अपनी अकाल मृत्यु के समय 36 वर्ष की आयु में ही एक किम्वदन्ती बन जाने वाला साहित्यकार ख़ुद को कितना बूढ़ा या जवान महसूस कर रहा होता? उसके अन्तस्तल में बैचैनी और आक्रोश में जो उबलते हुए सोते थे, वे क्या सूख गये होते या शान्त नीली नदियों में तब्दील हो गये होते। अपने समय, समाज और साहित्यिक समुदाय में उसका रिश्ता कैसा होता? सवालों का हुजूम है, जो राजकमल की याद आते ही मन में घुमड़ने लगता है। स्मृतियों की एक कतार है, जो फूल बाबू उर्फ़ मणीन्द्र चौधरी उर्फ़ राजकमल चौधरी से जुड़ी हुई है और सरसों के फूलों की कतार की तरह लहराती है। बहुत-से किस्से हैं, जिन्होंने राजकमल चौधरी को इस तरह ढँका हुआ है, जैसे मेकप और मैनिरिज़्म किसी अभिनेता को ढँके होते हैं।