टी.वी. पर नफरत के सौदागरों से कैसे निपटें!

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योगेन्द्र यादव-

इंडिया गठबंधन द्वारा 14 टी.वी. एंकरों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करने की घोषणा पर मचे बवाल पर अपना मत बनाने से पहले हमें आज से कोई 100 साल पहले लिखी शहीद भगत सिंह की नसीहत को पढऩा चाहिए। अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कत्र्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की सांझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।

यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या? (कीर्ति पत्रिका में जून 1928 का लेख) अगर भगत सिंह की इस कसौटी पर आज के भारतीय मीडिया को कसा जाए तो बहुत निराशा होगी। सांझी राष्ट्रीयता बनाने की जिम्मेदारी तो बहुत दूर की बात है, आज का भारतीय मीडिया निष्पक्षता और तथ्यपरकता के न्यूनतम मापदंड के भी नजदीक नहीं पहुंचता है। इसमें टी.वी. चैनलों की हालत सबसे ज्यादा खराब है।

हाल ही में देश के वरिष्ठ पत्रकार एन. राम ने कहा कि भारत का न्यूज टैलीविजन पूरी दुनिया के निकृष्टतम और सबसे खतरनाक धंधे में बदल गया है। दुनिया के 180 देशों में मीडिया की स्वतंत्रता नापने वाली वल्र्ड प्रैस फ्रीडम इंडैक्स में भारत 2014 में 140वें स्थान पर था, इस वर्ष 161वें पायदान पर पाकिस्तान से भी नीचे लुढ़क गया है। बाहर के मूल्यांकन की बात छोड़ भी दें। हाल ही में सर्वे के लिए नामी संस्थान सी.एस.डी.एस. ने देश के 206 पत्रकारों का गुमनाम सर्वे किया। इस सर्वे में 82 फीसदी पत्रकारों ने कहा कि उनका मीडिया संस्थान निष्पक्ष नहीं है, बल्कि एक पार्टी की तरफदारी करता है। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है।

हाल ही में एक बड़े एंकर को अपने चैनल में लेने के बाद चैनल के मालिक ने सार्वजनिक घोषणा की कि क्योंकि प्रधानमंत्री लोकप्रिय हैं इसलिए वह हमारे चैनल पर भी राज करेंगे। उसी पत्रकार के हाल ही के कुछ कार्यक्रमों की सुर्खियों की बानगी देखिए-

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एक अन्य चैनल के मालिक और संपादक ने प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने के बाद सार्वजनिक मंच से उनसे वायदा किया कि हम और हमारा चैनल आपके साथ खड़े रहेंगे। यानी कि निष्पक्षता का ढोंग भी अब छोड़ दिया गया है। दलीय निष्पक्षता को तिलांजलि देने से भी बड़ा खतरा है देश में सांप्रदायिक नफरत और हिंसा फैलाने में टी.वी. मीडिया की भूमिका। यहां फिर शहीद भगत सिंह को याद करना प्रासंगिक होगा। उसी लेख में वह लिखते हैं- पत्रकारिता का व्यवसाय किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है।

यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े लेख लिखे हैं। आज उनकी यह बात अनेक टी.वी. चैनलों और एंकरों पर पूरी तरह लागू होती है। न्यूज लॉन्ड्री नामक संस्था ने अनेक टी.वी. एंकरों के 3 महीने के कार्यक्रमों के विषयों पर शोध किया।

पता चला कि इनमें से अधिकांश एंकर लगभग आधे कार्यक्रम हिंदू-मुसलमान विवाद पर करते हैं, एक-चौथाई कार्यक्रम विपक्ष पर हमला करने में और देश के बाकी सब मुद्दे बचे हुए एक-चौथाई में निपट जाते हैं। हिंदू-मुस्लिम संबंधों जैसे संवेदनशील सवाल पर इन एंकरों और चैनलों की भाषा इतनी असंतुलित होती है कि वह हिंसा की आग में घी डालने का काम करती है। इस प्रवृत्ति पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को टिप्पणी करनी पड़ी-न्यूज चैनल भड़काऊ बयानबाजी का प्लेटफॉर्म बन गए हैं। प्रैस की आजादी अहम है लेकिन बिना रैगुलेशन के टी.वी. चैनल हेट स्पीच का जरिया बन गए हैं।

सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? खासतौर पर तब जब उसे सत्ता का आशीर्वाद हासिल हो। कहने को मीडिया का नियमन करने के लिए प्रैस कौंसिल बनी है, लेकिन उसने इस सवाल पर कोई कदम नहीं उठाया है। संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड है, लेकिन उसके पास कोई ताकत नहीं है। टी.वी. ने अपने आत्मनियमन के लिए एक संस्था बनाई है, इंडियन ब्रॉडकास्टर एंड डिजिटल एसोसिएशन। उसका हाल यह है कि वह खुलकर इन नफरती एंकरों के पक्ष में बयान दे रही है।

सुप्रीम कोर्ट आदेश दे चुका है कि नफरत फैलाने वाले एंकरों और चैनलों के खिलाफ कार्रवाई की जाए लेकिन कोई कार्रवाई हुई नहीं है। ऐसे में मीडिया की मर्यादा तय करने की जिम्मेदारी जनता और जन संगठनों को ही लेनी पड़ेगी। या तो रवीश कुमार की बात मानकर टी.वी. देखना बंद कर दिया जाए या फिर चुनकर सबसे नफरती एंकरों और चैनलों का बायकाट किया जाए। और कोई रास्ता तो बचा नहीं। सवाल यह नहीं है कि किसी एंकर, किसी चैनल या किसी पार्टी का क्या बनेगा। सवाल वही है जो शहीद भगत सिंह ने पूछा था कि अगर इस मीडिया को खुला छोड़ दिया गया तो भारत का क्या बनेगा?

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One comment on “टी.वी. पर नफरत के सौदागरों से कैसे निपटें!”

  • हरजिंदर says:

    जिस में शहीद भगत सिंह का ये लेख है उस पत्रिका का नाम पंजाबी में ‘किरती’ है जिसका अर्थ है मेहनतकश, हाथ से काम करने वाले। उस पत्रिका का नाम कीर्ति नहीं है।

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