सोनभद्र में हुए आदिवासियों के नरसंहार के बाद बैकफ़ुट पर आयी योगी सरकार ने बड़ी कार्रवाई की है, लेकिन ब्लेम गेम भी शुरू करदिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ने मामले की जांच कर रही एसआईटी की रिपोर्ट आने के बाद सोनभद्र के एसपी सलमान ताज पाटिल और डीएम अंकित अग्रवाल को तत्काल प्रभाव से हटा दिया है। दोनों के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश भी दिए गए हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि 1952 के बाद से अबतक जो भी दोषी अधिकारी हैं, उन सबके खिलाफ कार्रवाई होगी। इसके अलावा फर्जीवाड़े में शामिल पूर्व अधिकारी भी अगर जीवित हैं तो उनके खिलाफ भी केस दर्ज किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने पूरे मामले का ठीकरा पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर फोड़ते हुए उसे ही पूरे विवाद का दोषी बताया है।मुख्यमंत्री ने पूरे विवाद की जड़ नेहरू कालीन कांग्रेस व उसके नेताओं को बताया।
मुख्यमंत्री ने माना कि आदिवासी बहुल वन क्षेत्र सोनभद्र व मिर्जापुर में बड़े पैमाने पर सहकारी समितियाँ बनाकर ज़मीन हड़पने का खेल हुआ है। योगी ने कहा कि दोनों जिलों में सहकारी समितियों के जरिए कम से कम एक लाख एकड़ वन भूमि, ग्रामसभा की जमीनें हड़प ली गयी हैं। अब इस मामले की जाँच के लिए भी एक समिति बनायी गयी है।सोनभद्र मामले में योगी सरकार ने कड़ी कारवाई करते हुए जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान को हटा दिया और दर्जनों अधिकारियों, कर्मचारियों को निलंबित करते हुए मुक़दमे दर्ज करने के आदेश दे दिए हैं।
मुख्यमंत्री ने कहा कि उंभा हत्याकांड मामले में डीएम-एसपी के अलावा अब तक एक एएसपी, तीन सीओ, राजस्व विभाग के कुछ अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है। अभी तक कुल सात राजपत्रित अधिकारी और आठ गैर-राजपत्रित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है।1952 से लेकर अब तक ऐसे जितने भी फर्जीवाड़े हैं, उन सबका खुलासा किया जाएगा और दोषी अफसरों पर कार्रवाई होगी। 1952 से लेकर लंबे समय तक कांग्रेस के समय समिति बनाकर ग्रामसभा की जमीन पर कब्जे का खेल खेला गया, जिसमें कई बड़े अधिकारी और नेता शामिल रहे। मिर्जापुर और सोनभद्र में फर्जी सोसायटी बनाकर एक लाख हेक्टेयर जमीन पर कब्जा किया गया। मुख्यमंत्री ने बताया कि इस मामले में मैंने एक एसआईटी बनाई है, जो ऐसे सभी मामलों की जांच करेगी और जो भी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज होगा। एसआईटी की अध्यक्षता आईपीएस जे. रविंद्र गौड़ करेंगे।
मुख्यमंत्री ने बताया कि जांच समिति द्वारा पाया गया कि 10 अक्टूबर 1952 को गठित आदर्श कृषि सहकारी समिति उम्भा/सपही के मुख्य प्रवर्तक महेश्वर प्रसाद नारायण सिंह और प्रबंधक दुर्गा प्रसाद राय समेत कुल 12 सदस्य थे। इसी सोसायटी का गठन विवाद का मूल कारण है। इसका गठन करने वाले महेश्वर प्रसाद सिंह बिहार के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और यूपी के पूर्व राज्यपाल चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह के चाचा थे। खुद महेश्वर प्रसाद कांग्रेस पार्टी के बिहार से राज्यसभा सांसद और एमएलसी भी थे।
सोनभद्र में हुए खुनी संघर्ष में 10 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, जबकि 25 लोग घायल हो गए। सत्ता पक्ष और विपक्ष में इस मामले को लेकर जारी घमासान के बीच, इस मामले की जो वजहें सामने आयी है, वो हैरान कर देने वाली है। स्थानीय लोगों के मुताबिक 2 जातियों की लड़ाई और राजस्व विभाग के फर्जीवाड़े के कारण ये घटना हुई।दरअसल पूरा मामला उस 100 बीघे जमीन से जुड़ा है,जिस पर कब्ज़ा ज़माने के लिए प्रधान अपने समर्थकों के साथ पहुंचे थे। जमीन पर कब्जे का जब ग्रामीणों ने विरोध किया तो प्रधान ने अपने समर्थकों को कहकर फायरिंग करवा दी, जिसमें 10 लोगों की मौत हो गयी और 25 लोग घायल हो गए। मरनेवालों में 3 महिलाएं भी शामिल है।
इस पूरे मामले में राजस्व विभाग का फर्जीवाडा भी सामने आया है। आरोप है कि इस मामले में तीसरा पक्ष आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी है, जिनके नाम से उम्भा गांव में 600 बीघा जमीन है। सोसाइटी का रजिस्ट्रेशन 1973 में ही समाप्त हो गया था, लेकिन तब से इस बात को लेकर विवाद है कि इस जमीन का मालिकाना हक़ किसके पास है। प्रधान का कहना है कि उन्होंने दो साल पहले जमीन खरीदी, लिहाज़ा इस जमीन पर उनका हक़ है, जबकि गोड़ बिरादरी के लोगों का कहना है कि जमीन को वो वर्षों से जोतते आये हैं और उपार्जन करते आये हैं।ऐसे में सवाल ये उठता है कि जमीन पर विवाद को सुलझाने के लिए राजस्व विभाग ने क्या किया ? राजस्व विभाग को जब पता था कि जमीन के इतने बड़े हिस्से पर विवाद है तो उसने इसकी जानकारी प्रशासन को क्यों नहीं की या एहतियात के कदम क्यों नहीं उठाए ? प्रधान की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं कि, उन्होंने विवादित जमीन को किस तरह से अपने नाम करवाया।
सोनभद्र में जमीन घोटाले की हकीकत जानने के लिए सिर्फ पांच गांवों कोटा, पडरच, पनारी, मकड़ीबारी और मरकुंडी का रिकॉर्ड ही काफी है। शासन और सरकार में शामिल राजनेताओं और अधिकारियों ने सारे नियम-कानून ताक पर रखकर यहां की वन भूमि को गैर वन भूमि में बदल दिया। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तक ने इस पर आपत्ति जताई, पर यहां के अफसरों ने संबंधित फाइलों को इस तरह से दबाया कि आज तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है।नियमानुसार, केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट की अनुमति के बिना इन गांवों की जमीन को न तो गैर वन भूमि घोषित किया जा सकता था और न ही इसे गैर वन कार्यों के लिए उपयोग में दिया जा सकता था। लेकिन 2008 में कोटा, पनारी और मकड़ीबारी की जमीन को गैर वन भूमि करार दे दिया गया। घपले का अंदाजा इससे ही लगा सकते हैं कि, मकड़ीबारी की जमीन को 1987 में अंतिम रूप से वन विभाग में निहित कर दिया गया था। इन फैसलों पर कई बार आपत्तियां उठीं, पर अधिकारियों ने बच निकलने का कोई न कोई तरीका निकाल ही लिया।