ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव व वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह को मैंने पहली और आखिरी बार भड़ास फॉर मीडिया के आठवें स्थापना दिवस के मौके पर आयोजित एक समारोह में सुना था। भड़ास आमतौर पर मीडिया से निराश और मेरे जैसे हताश लोगों का मंच है। मैंने बहुत पहले मान लिया था कि भारत में मीडिया का कुछ हो नहीं सकता है। उसके बाद भड़ास4मीडिया की स्थापना हुई और उसकी सफलता के आठवें वर्ष एनके सिंह ने सगर्व कहा था कि भड़ास नकारात्मक है, निराशा परोसता है आदि।
उस मौके पर भी श्री सिंह ने मीडिया से जबरदस्त उम्मीद दिखाई थी जो निश्चित रूप से आशावाद का चरम था। उसके बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ कि मीडिया से कुछ उम्मीद की जाए और मुझे ऐसा भी नहीं लगा कि मीडिया ने अपने लिए कोई और बड़ा या गंदा गड्डा खोद लिया है। भाजपा का उदय और विस्तार निश्चत रूप से एक ऐसा मुद्दा है जो मीडिया में सिरे से गायब है पर मीडिया अगर दंतहीन, विषहीन हो गया या बना दिया गया है तो वह भाजपा के लिए ही। पर वह अलग मुद्दा है।
मुझे तो गुजरे करीब साल में ऐसा कुछ खास फर्क नजर नहीं आया कि उसके बारे में राय बदली जाए (जिसकी पहले खराब नहीं थी उसकी बात कर रहा हूं)। हां, एनके सिंह को फिर कहीं सुनने का मौका नहीं लगा। आज यूं ही अखबार पलटते हुए एनके सिंह का लिखा एक लेख दिखा- ‘आज के जमाने में हिन्दी अखबारों का एडिट पेज कौन पढ़े औऱ किस लिए पढ़े’।
फिर भी एनके सिंह की तस्वीर देखकर और पुराने संदर्भ के मद्देनजर पढ़ना पड़ा। अब अगर एनके सिंह को मीडिया की हालत खराब लग रही है तो मैं मान लेता हूं कि मैं इस मामले में उनसे योग्य चाहे ना हूं, 10-12 साल आगे जरूर चल रहा हूं। मीडिया की हालत पर एक जानकार, अनुभवी और काफी समय तक आशावादी रहे एनके सिंह की निश्चित रूप से महत्वपूर्ण टिप्पणी है। आप भी पढ़िए। नीचे दिए लिंक पर क्लिक करिए…
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जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से हिन्दी पत्रकारिता को अच्छे कार्यकर्ता मिले। उनमें से ज्यादातर अब बूढ़े, रिटायर और पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। इस बीच, नौकरी का हाल भी सबको पता चल गया है। छह लाख की फीस और 10 हजार की सैलरी। संयोग से छह लाख के एजुकेशन लोन की ईएमआई भी इतनी ही बनती है। ऐसे में शिक्षित पत्रकार कितने होंगे ये तो भविष्य बताएगा। राष्ट्रवादी सरकार कुछ मजबूर पत्रकार जरूर बनाएगी। कार्यकर्ताओं की यह नई खेप शौक से या मजबूरी में पत्रकारिता ही करेगी। हिन्दी मीडिया को 25 साल और वेतन भत्तों की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। मंदिर बने ना बने। हिन्दी पत्रकारिता ऐसे ही चलती रहेगी।
जनसत्ता समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पद पर काम कर चुके पत्रकार और उद्यमी संजय कुमार सिंह की एफबी वॉल से.