थाई एयरवेज के बोईंग 777 के विमान की उड़ान संख्या tgTG692 ने जब अमेरिका के लॉस एंजिल्स की धरती को छुआ तब तक शाम के 6 बज चुके थे लेकिन धुंधलके का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था. चटख धूप खिली हुई थी. वहां के हिसाब से भीषण गर्मी के दिन थे. विमान से घोषणा की गयी कि बाहर का तापमान 25 डिग्री सेल्सियेस है. अजीब से अहसास के साथ अमेरिका की धरती पर पांव रखा. भक्ति-भाव जैसा तो खैर कुछ नहीं था लेकिन मन-में उमड़-घुमड़ रही भावनाओं को शब्द देना ज़रा मुश्किल है. शायद यही कि अपने जैसे लोगों के लिए वहां तक पहुंचना किसी सपने के सच जैसा होना था. ऐसा सपना जिसे देखने की भी हिम्मत या जहमत हमने पहले कभी नहीं उठायी थी.
फर्स्ट इम्प्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन की तरह वहां की एक अमेरिकन लड़की ने मानो आश्वस्त कर दिया हो कि आराम से रहिये, यहां वो भी हमारे जैसे ही हैं. एक्चुअली भाई को लेने आना था लेकिन दूर-दूर तक उनका अता-पता नहीं दिखा. अपना फोन काम कर नहीं रहा था तो टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में दुकान के काउंटर पर बैठी लड़की को उसके मोबाइल से एक लोकल कॉल करने की अनुमति मांगी. इस आशंका के साथ की पता नहीं कितना डॉलर देना होगा. रायपुर के विवेकानंद एयरपोर्ट से टेकऑफ के बाद से एक भी पैसा अभी तक खर्च नहीं किया था. साथ में ले गए डॉलर तो मानो जीवन भर की जमा-पूंजी जैसा सहेजा हुआ रखा था. अलबत्ता उसे गिना दर्ज़नों बार. हर बार वो पूरा ही निकला. खैर, भाई से बात हुई. कुछ देर में वे पहुंचने वाले थे, आश्वस्त हुआ. और असली बात ये कि मुस्कान बिखेरते हुए उस लड़की ने कहा कि इस कॉल के पैसे देने की ज़रूरत नहीं है, मैं चाहूँ तो और कुछ कॉल कर सकता हूं.
संयोग से यह संस्मरण स्वदेश आने के बाद 11 सितंबर को लिख रहा हूं, उस 9/11 की बरसी पर जब अमेरिका के गौरव पर हमले हुए थे. उस आक्रमण के बाद अमेरिका ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को और ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनाने की कवायद शुरू की तो रूस के पेरोल पर काम करने वाले भारतीय पत्रकारों-स्तंभकारों ने ऐसा वितंडा खड़ा कर दिया कि अमेरिका एक काफी डरा हुआ मुल्क है. कभी ‘खान’ की जामातलाशी के किस्से उछाले गए तो कभी कलाम साहब के जूते उतरवा लेने की. लेकिन इस यात्रा की यह उपलब्धि रही कि ”मित्रोखिन आर्काइव” के दलालों का झूठ हमारे सामने आ गया. हमारे देश के हवाई अड्डों पर जिस तरह की ‘सुरक्षा जांच’ का ताम-झाम है वैसा वहां कुछ भी देखने को नहीं मिला.
अपने शब्दों में कहें तो काफी ‘लचर’ इंतजामात लगे. इतना लचर कि वापसी में मेरे सहयात्री मित्र तो हैंड बैगेज में कैची तक ले कर चले आये, लॉस एंजेल्स, दक्षिण कोरिया के सियोल आदि की सुरक्षा जांच में भी उनकी कैंची सलामत रही. अंततः बैंकॉक एयरपोर्ट पर वो जब्त हुयी, जिसकी कहानी आगे. तो भूल जाइए इस बात को कि अमेरिका काफी डरा हुआ मुल्क है. वह काफी ताकतवर है और आपको डराने की ताकत रखता है. हां अगर आप ‘खान’ हों तो हो सकता है आपको साबित करना पड़े कि ‘you are not a terrorist’ और इतना तो हक है उस देश को कि वो अपने हिसाब से संतुष्ट हो जाय आपकी सज्ज़नता के प्रति.
लॉस एंजिल्स पहुंचने पर इमिग्रेशन के समय हमारे आगे एक अरब दंपत्ति थे, उनकी जिद्द को सलाम जिन्होंने अपने हिजाब का एक-एक इंच उतारने में अमेरिकन अधिकारी के पसीने छुडा दिया. लेकिन फिर भी तटस्थ विनम्रता के साथ अंततः उनका चेहरा देखने में कामयाब होकर रहा वह अमेरिकन कॉप. जबकि चाहता तो वहीं से वापस लौटा सकता था उस मुस्लिम दंपत्ति को, भले बाद में ‘खबर’ कुछ भी बनती. और केवल ‘खान’ ही नहीं, अगर आप ‘पटेल’ हों तब भी आपकी तहकीकात ज्यादा की जा सकती है, हो सकता है आपको वीजा ही न मिले जैसे हमारे यहां के तब के विधायक दीपक पटेल को वीजा नहीं मिला जबकि उनके भाई वहां सेटल हैं. ऐसा इसलिए क्यूंकि उन्हें खास कर गुजरातियों से इस बात की गारंटी चाहिए होता है कि आप अमेरिका में जा कर बस तो नहीं जायेंगे. बस इतनी सी बात है. अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होना हर देश का मौलिक अधिकार है, हमें उसका सम्मान करना होगा.
तो वाम-पोषित बिचौलियों के झांसे में आने की कोई ज़रूरत नहीं है. उन्हें दुष्प्रचार कर अपना घर चलाने दीजिए लेकिन हम और आप अमेरिका को उसके सही सन्दर्भों में समझने की कोशिश करें. हज़ारों किलोमीटर के सड़क मार्ग से वहां की यात्रा के दौरान आपको एक पुलिसवाला नहीं दिखेगा लेकिन कोई छोटा सा क्राइम भी हो जाय तो पलक झपकते आपको सुरक्षा बलों की फौज दिख जायेगी. उस ‘डरे हुए मुल्क’ से हमें यह सब सीखना होगा. ऐसा बिलकुल नहीं है कि उनके यहां कोई कमियां नहीं हैं, या वे लोग दूध के धुले हैं लेकिन इतना तय मानिए कि कुलदीप नय्यरों ने आपसे सफ़ेद झूठ बोला है कि अमेरिका एक डरा हुआ मुल्क है. उसे अपना दर्द भी बखूबी सम्हालने आता है, यह आपको तब पता चलेगा जब आप न्यूयार्क की यात्रा कर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ध्वंशावशेष पर बनाए गए उसकी स्मृतियों को देखेंगे. मेरी यात्रा में हालांकि न्यूयार्क शामिल नहीं था लेकिन ‘ग्राउंड जीरो’ के आज का आंखों देखा हाल भाई ने जैसा बताया, – सन्दर्भ आने पर उसकी चर्चा आगे करूंगा- तो आपको लगेगा कि क्या-क्या हम अमेरिका से सीख सकते हैं.
खैर, अब मैं अधिकृत रूप से अमरीका की भूमि पर था. उस लॉस एंजिल्स में जो सितारों का शहर है. जहां हॉलीवुड है. ऑस्कर पुरस्कारों का कार्यक्रम जहां होता है. उसी बेवर्ली हिल्स में बसेरा होना था जिस इलाके के बारे में ‘जेम्स हेडली चेइज़’ के उपन्यासों में हमने काफी विस्तार से पढ़ा था. अब अमेरिका में कहीं भी जा सकने को बिलकुल आज़ाद था. पासपोर्ट पर 15 फरवरी तक निवास करने के अधिकार का ठप्पा लग चुका था. यानी अगर जेब और समय इजाज़त दे तो पूरे छः महीने तक निर्द्वंद-निर्बाध घुमते रहिये केलिफोर्निया से फ्लोरिडा तक, कोई आपको पूछने या परेशान करने वाला नहीं मिलेगा. भाई का आगमन हुआ. गले मिले दोनों सहोदर. अपने सहयात्रियों को भाई के घर बेवर्ली हिल्स के पास ही के एक होटल में छोड़ कर अपने घर पहुच गया. वहां ‘वेलकम मिन्टू अंकल इन यूएसए’ का बड़ा सा बोर्ड दरवाजा पर चिपकाए अपनी भतीजियां दरवाज़े पर ही खड़ी थी. जल्द से जल्द सोना ज़रूरी था ताकि अगले ही दिन केलिफोर्निया के लॉस एंजिल्स से नेवादा के ‘लास वेगास’ और एरिजोना के ‘ग्रैंड कैनियन’ तक की तीन दिनी यात्रा की शुरुआत होनी थी.
अपने कमरे में पड़े-पड़े यह सोचना कि हम पाताललोक में है. मेरा देश बिलकुल आसमान पर है यहां से. यहां रात भले हो लेकिन मेरे घर में बिल्कुल सूर्योदय हुआ होगा. ये सारा मानसिक रोमांच इतनी जल्दी सोने भी नहीं दे रहा था. फिर अमेरिका के इतिहास के बारे में सोचते-पढ़ते-समझते कब नींद आ गयी पता नहीं चला. नींद से पहले विकिपीडिया बता रहा था कि ‘संयुक्त राज्य अमेरिका उत्तर अमेरिकी महाद्वीप में स्थित एक संघीय गणतंत्र है। यह 50 राज्यों और एक संघीय ज़िले (इसकी राजधानी वाशिंगटन डीसी) से बना है. इसके अतिरिक्त इसके अन्य भी बहुत से अधीनस्थ क्षेत्र हैं जो ओशिनिया और अन्य स्थानों पर भी फैले हैं। 30 करोड़ से अधिक की जनसंख्या के साथ यह चीन और भारत के बाद विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है हालांकि तीसरे स्थान पर होने के पश्चात भी इसकी जनसंख्या प्रथम दो की तुलना में बहुत कम है।’
उत्तर अमेरिका में इसके 49 राज्य स्थित हैं, जिनमें से 48 एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक राज्य अलास्का सुदूर उत्तर में है जिसे अमेरिका की मुख्य भूमि से कनाडा अलग करता है (यह कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य से लगा हुआ है)। एक राज्य हवाई, प्रशांत महासागर के मध्य में स्थित है। संघीय राजधानी वाशिंगटन देश के पूर्वी भाग में, कोलंबिया ज़िले में मेरिलैंड और वर्जिनिया के मध्य में स्थित है। संयुक्त राज्य अमेरिका, नाम थॉमस पेन द्वारा सुझाया गया था और 4 जुलाई, 1776 के स्वतंत्रता के घोषणापत्र में आधिकारिक रूप से प्रयुक्त किया गया। लघु रूप से इसके लिए बहुधा संयुक्त राज्य का भी उपयोग किया जाता है। हिन्दी भाषा में ‘अमेरिका’ कहने का ही प्रचलन है। बहरहाल, अगले दिन उस शहर की यात्रा होनी थी जिसे ‘सिटी ऑफ सिन’ (पाप का शहर) कहा जाता है. हालांकि वेगास जा कर ही पता चला कि ‘ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो.’
लेखक पंकज कुमार झा पत्रकार और बीजेपी एक्टिविस्ट हैं। लेखक का अमेरीका यात्रा वृत्तांत आगे भी जारी रहेगा.
gunjan sinha
September 12, 2014 at 10:26 am
भडास पर किसी पंकज कुमार झा ने अपनी अमेरिका यात्रा का वृतांत लिखा है. नीचे परिचय दिया है ‘पत्रकार और BJP एक्टीविस्ट. पत्रकार किसी पार्टी का हो – यह अपने आप मे एक विशेष परिचय है. इस विशेष तिलक चन्दन को वे अपने लिलार पर लगायें किसी को एतराज नहीं होगा. वे अमेरिका को देख कर मुग्ध हैं , बेशक हों, गुणगान कर रहे हैं, करें – लेकिन कुलदीप नय्यर के बारे मे अनर्गल, अपमान जनक कमेंट करने की उनकी औकात अभी नहीं हुई है और कभी होगी भी नहीं। जिस अमेरिका को देख कर वे इस तरह पैदल हो गए है उसी अमेरिका मे कुलदीप नय्यर भारत के राजदूत रह चुके हैं . श्री नय्यर को पंकज झा रूस के पेरॉल पर बता रहे हैं और खुद बिना किसी पेमेंट के अमेरिका की भंडैती कर रहे हैं. आप करिये ना बंधु, कोई नहीं बोलेगा – लेकिन साउथ एशिया के सबसे प्रतिष्ठित, और वरिष्ठ पत्रकार पर कीचड मत उछालिये – कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे आप। शायद आपको पता नहीं होगा कि कुलदीप नय्यर को और उनकी पत्रकारिता को दुनिया तब से जानती है जब आप पैदा भी नहीं हुए थे । होश की दवा करिये।
Shruti Shukla
September 12, 2014 at 12:08 pm
माननीया गुंजन जी, हम आप की बातो से तो सहमत हैं मगर आपकी भाषा से नही. भाषा पर थोड़ा संयम रखे तो बहुत अछा हो, ऐसा निवेदन हैं.
पंकज सर, मुझे विश्वास नही हो रहा हैं की आप ऐसी गील गोबरी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं एक ऐसे देश के लिए जिसने कालांतर दर कालांतर सिर्फ़ हिन्दुस्तान को नीचे खींचने की कोशिश की हैं, हमारे दुश्मन पाकिस्तान इनके टुकड़ो पर पल रहे हैं. दुनिया भर के डिक्टेटर्स इनकी समर्थन के बैगर कुछ कभी ना कर सके और ना कर सकेंगे!इन्होने तालिबान से लेके अल्क़एडा खड़ा किया. १९६७ मैं कश्मीर मैं रिफ्रेंडम के पक्ष मैं वोट किया, आपको याद दिलाना चाहेंगे की उस समय जिस रशिया को आप गलिया रहे हैं की वजह से ही कश्मीर हमारे पास बचा.
यदि मात्र यात्रा संस्मरण लिख रहे होते तो बहुत अछा होता मगर आप तो अमेरिका के ट्रॅवेल एजेंट और ब्रांड मॅनेजर नज़र आ रहे हैं सर. दुख के साथ कहना पॅड रहा हैं, अछा नही लगा.
पंकज झा
September 12, 2014 at 1:41 pm
यह पहला ही किश्त है. इसे पढ़ कर अधीर होने की ज़रूरत नहीं होना चाहिए. हमने ऐसा बीस किश्त लिखने का सोचा है. अगर लिख पाया तो शायद वो सब कुछ होगा जिसकी बात यहां श्रुति शुक्ला जी कर रही हैं. हां.. बात जहां तक अय्यरों के दुष्प्रचार की है तो विशुद्ध विनम्रता के साथ दुहराना चाहूँगा कि सच में उन्होंने झूठ बोला है अमेरिका के प्रति. यहां यह भी रेखांकित करना चाहूँगा कि अय्यर यहां व्यक्ति नहीं बल्कि प्रतीक हैं, जो उन समूहों में शामिल हैं जिनके खिलाफ फाई मामले में छींटे पड़े थे. कोई कितना बड़ा व्यक्ति है या अमेरिका का राजदूत या राष्ट्रपति रहा है यह हमारे लेखन में विषय नहीं रहा है कभी. कोई काफी जानकार है इसका मतलब नैतिक और निष्पक्ष भी है ऐसा सरलीकरण करने वालों को उनका विचार मुबारक. हम ऐसे ही हैं और ऐसे ही लिखेंगे आगे भी.
कुछ बातें जो लेख में छूट गयी उसे दर्ज करना ज़रूरी है कि एकमात्र अमेरिका ऐसा मुल्क है जहां के लिए एक ही बार में आपको दस वर्ष के लिए वीजा मिल जाता है. छः महीना आप वहां पर्यटक वीजा पर रह सकते हैं. वीजा की प्रक्रिया को जितना कठिन बताया गया था उससे काफी आसान निकला वो. सुरक्षा जांच का जिक्र ऊपर किया ही गया है कि कैची तक लेकर आ गए हम थाईलैंड तक. तो ऐसे मुल्क को आखिर हम डरा हुआ कैसे मान लें. जिनने मेरी समझ से झूठ दुष्प्रचार किया है तो किया है. मुझे ऐसा लिखना ही होगा. हां.. अमेरिका बिलकुल दूध का धुला नहीं है. देवयानी खोबरागडे के साथ उसने जो किया वह भी अपने संज्ञान में है. लेकिन जहां तक सवाल यात्रा संस्मरण का है तो अगर ऐसा ही अनुभव हुआ मुझे तो आखिर कैसे और क्या अलग लिखा जाय? क्या कोई पूर्व राजदूत रह चुके हैं तो उनकी आरती उतारू? या पहले खुद राजदूत बन जाऊं तब जा कर उनकी आलोचना कर सकने की पात्रता होगी मुझे? ऐसे में तो अय्यर साहब को राष्ट्रपति बन जाना था उसके बाद अन्य मंत्रियों और प्रधानमंत्री तक की आलोचना का अधिकार मिलता उन्हें. यह एक सामान्य सा यात्रा प्रसंग है, अच्छा लगे तो पढ़िए और आनंद उठाइये. अनावश्यक लोड लेने लेकर क्यू अपना खून जला रहे हैं गुंजन भाई?
आजकल वैसे भी साइटों पर टिप्पणी का अकाल सा पड़ गया है ऐसे में सादर धन्यवाद टिप्पणीकारों का. 😀
rajkumar
September 13, 2014 at 12:24 pm
kamredo ko jalan ho rahi h, jalte kyon ho bhai, itna jyada jaloge to khoon jaldi khatam ho jayega, abhi to pankaj jha ki yatra ki bat suni h, ab to modi ji amerika jane vale h, tab kya hal hoga mere kamred mitro ka, kam se kam sal to jalna hi hoga.
Raghab Jha
September 12, 2014 at 5:39 am
It is good to know about the real status of America. Will wait for your next story.
Regards,
Raghab Jha
Manish K Jha
September 12, 2014 at 6:08 am
प्रिय पंकज भाई
आपने अपने संस्मरणों को बेहतरीन अंदाज़ में समेटा है। ऐसा लग रहा है की इस यात्रा पड़ हर पढ़ने वाला आपके साथ ही है। आपके अगले सीरीज की प्रतीक्षा में।
आपका अनुज
मनीष झा