Sanjay Sinha : टीवी न्यूज़ चैनल में संपादक होने का सबसे बड़ा दुख यही है कि अब मैं आराम से सड़क पर खड़े मूंगफली वाले से मूंगफली खरीद कर उसे वहीं फोड़-फोड़ कर नहीं खा सकता। सड़क पर खड़े शकरकंद वाले से भुना हुआ शकरकंद भी काले नमक में लपेट कर नहीं खा सकता। ऐसा नहीं है कि किसी ने मुझे मना किया है, पर अब ऐसा नहीं हो पाता। इसकी सबसे बड़ी वज़ह यही है कि मेरे ही दफ्तर के ढेर सारे जूनियर रोज़ दोपहर में सर्दियों की हल्की धूप में ये सब करते हैं और मुझे उनके सामने बॉस की तरह रहना होता है।
बॉस का मतलब होता है गंभीर। कम बातें करने वाला। अपने जूनियर के साथ ज़्यादा उठने-बैठने वाले बॉस का दबदबा नहीं रहता, ऐसा मुझे कई लोगों ने समझाया है। जैसे-जैसे मैं ऊपर चढ़ता गया, मेरे ऊपर वाले मुझे ज्ञान देते गए कि संजय सिन्हा अब तुम्हें ये करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए। ये ज्ञान मुझे कुछ ऐसे ही मिले, जैसी जब मेरी दीदी बड़ी हो रही थी तो मां, बुआ, चाची, सब के सब दीदी को यही ज्ञान देती थीं कि अब तुम्हें वहां नहीं खड़ा होना चाहिए, उनके सामने नहीं बैठना चाहिए।
मां ने तो दीदी को आठवीं कक्षा में ही दुपट्टा थमा दिया था कि कि तुम इसके बिना बाहर मत निकलना। दीदी पर इतनी रोक लगते देख मैं भी सोच में पड़ जाता था कि आख़िर दीदी बड़ी ही क्यों हुई? दीदी जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उसकी आज़ादी खत्म होती चली गई। मुझे जहां तक लगता है कि दीदी को सबसे ज़्यादा अफसोस तब हुआ था, जब घर के बाहर खाली पड़ी जगह पर मुहल्ले की लड़कियों के साथ उसके कबड्डी खेलने पर मां ने रोक लगा दी थी। कमाल था। मैं कबड्डी खेल सकता था, दीदी नहीं। मैं खेल सकता था क्योंकि मैं छोटा था, दीदी नहीं खेल सकती थी क्योंकि दीदी बड़ी हो गई थी। ठीक यही कमाल मेरी बढ़ती पोस्ट के साथ हुआ। जब जनसत्ता में ट्रेनी उप संपादक बना था, तब सारा दिन लड़कियों के साथ घूमता था। हमारे पहले बॉस शंभूनाथ शुक्ल ने मेरी सहेलियों की उस टोली को नाम दिया था संजय सिन्हा की रेहड़ें। उन्होंने इस बारे में फेसबुक पर कई बार लिखा भी है।
जब तक जनसत्ता में रहा, मुझे इस तरह घूमने-फिरने की आज़ादी मिलती रही। फिर मैं बड़ा होता गया, सैलरी के साथ-साथ पद भी बढ़ता गया। जनसत्ता से ज़ी न्यूज़ और फिर आजतक में नौकरी मिली। एक समय आया जब अपने दफ्तर के नीचे खड़े होकर गोलगप्पे. टिक्की, चाट-पकौड़े खाने पर अघोषित रोक लग गई। बाकियों का तो मुझे नहीं पता, लेकिन तब मेरे न्यूज़ डाइरेक्टर क़मर वहीद नकवी मुझे अपने कमरे में बुला कर कई बार समझाया करते थे कि अब आप बड़े पद पर हैं, अपने जूनियर के साथ चाय-समोसे का दौर बंद कीजिए।
मैं तब भी छुप-छुपा कर अपने जूनियर साथियों के साथ एकाध चक्कर नीचे गुप्ता जी ढाबे का लगा ही आता था। लेकिन जब से संपादक बना, मेरी स्थिति दीदी जैसी हो गई। दीदी के ऊपर दुपट्टे से अंकुश लगा दिया गया था, मेरे ऊपर मेरी पोस्ट से। संपादक आसानी से सबसे नहीं मिल सकता। संपादक को कई तरह की बैठकें करनी होती हैं। संपादक को दिन भर सिर्फ गंभीर बातें करनी होती हैं। वो अपने जूनियर का सलाहकार तो हो सकता है, पर दोस्त नहीं।
बस यूं समझ लीजिए कि कई साल हो गए, जब मैंने दफ्तर के नीचे खड़े होकर गरमा-गरम मूंगफली फोड़ कर नमक के साथ चाट-चाट कर नहीं खाई है। आग पर सिंके हुए शकरकंद का तो स्वाद ही जुबां से उतर गया। मलाई मार के बनी खूब मीठी चाय का स्वाद भी मुंह से निकल गया। संपादकों को दूध और चीनी वाली चाय पीनी नहीं चाहिए, वर्ना उनमें संपादक बनने के गुण का ह्रास हो जाता है। संपादक हो जाने पर या तो ग्रीन टी पीनी चाहिए या बिना दूध-चीनी की कॉफी।
मैं यही सब करता हूं। मैंने अपने भीतर संपादक बने रहने के सारे गुण विकसित कर लिए हैं। पर कल दोपहर में पता नहीं कैसे एटीएम से पैसे निकालने के चक्कर में एक साथी के साथ लंच के बाद बाहर निकल गया। वहां भूने शकरकंद को देख कर मेरे साथी ने पूछा कि सर खाएंगे क्या? मैंने दाएं-बाएं झांका। कहीं कोई देख न ले। कहीं मेरा ड्राइवर ही घूमता-फिरता इधर न आ जाए। क्या सोचेगा बॉस के बारे में?
खैर, जुबां ने कुछ नहीं कहा, आंखों ने कह दिया। आग पर भूना शकरकंद काले नमक के साथ मेरे सामने था। आदतवश मैंने शकरकंद वाले से पूछ ही लिया कि भाई नोटबंदी का असर तुम पर तो नहीं पड़ा? शकरकंद बेचने वाला हंसने लगा। “साहब, हमारे पास कौन से हज़ार-पांच सौ का नोट पड़े थे। हम तो सौ पचास ही कमा कर खुश हैं। हमें कभी मुश्किल नहीं हुई।”
“क्या तुम भी ‘पेटीएम’ से पैसे लेते हो?”
“साहब, आप बड़े आदमी हैं। लगता है किसी बड़ी पोस्ट पर हैं। आप दफ्तर से नीचे नहीं उतरते। आपको पता है न, हज़ार और पांच सौ के नोट बंद हुए हैं। सौ, पचास के नहीं। हमें कोई हज़ार-पांच सौ के नोट क्यों देगा? और जब देने लगेगा, तो हम ऊ का कहते हैं, फोन वाला पैसा लेने का सिस्टम समझ जाएंगे।”
“कुछ लोग तो कह रहे हैं कि गरीबों को बहुत मुश्किल आ रही है।”
“हम भी सुन रहे हैं, साहब कि गरीबों को बहुत परेशानी आ रही है, अपने ढाई लाख जमा कराने में। काश मेरे पास भी अपने ढाई लाख होते! ढाई लाख अपने होते साहब तो शायद हम भी रोते! नोट तो उन्हीं के हैं जो रो रहे हैं, जो टीवी पर दिख रहे हैं, जो कह रहे हैं कि गरीब मर जाएगा। हां साहब, पैसा किसी का डूबे, मरता गरीब ही है। पर साहब, हम नहीं मरेंगे। क्योंकि सरकार ने गरीबों के नोट बंद नहीं किए, अमीरों के कर दिए हैं।”
मैं वहां से चल पड़ा था। मेरे कान बज रहे थे। मेरे कानों में उस शकरकंद वाले की आवाज़ गूंज रही थी। “जिसका छिनता है, रोता वही है। हम तो ऐसे ही थे, ऐसे ही रहेंगे। आज़ादी आपकी दीदी की छिनी, वो रो रही थीं। आज़ादी आपकी छिनी, अफसोस आप कर रहे हैं। साहब! आंसू उधार के नहीं होते।”
टीवी टुडे समूह के न्यूज चैनल तेज के संपादक संजय सिन्हा की एफबी वॉल से.