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आम पाठक के खास संपादक को अलविदा!

-राजेश मित्तल

एक संपादक कैसा होता है? धीर-गंभीर। एक धुआंधार बुद्धिजीवी की जो आम छवि होती है, वैसा। सत सोनी संपादक थे, टाइम्स ग्रुप के ‘सान्ध्य टाइम्स’ के लेकिन थे बच्चों से चुलबुले, मजाकिया, खुशमिजाज, बात-बेबात पर लतीफे सुनानेवाले। उनके कार्यकाल के दौरान ‘सान्ध्य टाइम्स’ ने जिन बुलंदियों को छुआ, उसमें आखिरी पन्ने पर छपनेवाले चुटकलों का भी बड़ा हाथ था। अखबार हाथ में आते ही ज्यादातर पाठक अखबार पलटकर सबसे पहले चुटकुले पढ़ते थे।

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उनके केबिन का दरवाजा हमेशा खुला रहता था। छोटे-बड़े, हर आदमी का वह स्वागत करते थे और उसे पूरा वक्त देते थे। ऐसा भी नहीं है कि संपादक थे, बॉस थे तो सहयोगियों पर सब काम छोड़ देने के कारण उनके पास वक्त होता था। अक्सर पहले पन्ने की पहली खबर से लेकर चुटकुले और पाठकों की शिकायतें तक वह खुद लिखते थे। मैं शाम 5-6 बजे कभी-कभी उनके केबिन में चला जाता था।

एक बार का वाकया – वह लैंडलाइन फोन पर किसी से बात कर रहे थे। यह देखकर मैं जाने लगा। उन्होंने इशारे से जबरन बैठाया। ‘जी बताइए, बिजली का आपका मीटर नहीं बदल रहा? …डेसू (तब दिल्ली के सरकारी बिजली विभाग का यही नाम था) से शिकायत की? …कितने दिन हो गए? …कल आपकी शिकायत छप जाएगी और जल्दी ही समस्या भी दूर हो जाएगी।’ फोन रख दिया गया। मैंने कहा, सोनी जी, पाठकों की निजी शिकायतें भी आप खुद लिखते हैं, संपादक होकर? बोले, ‘बरखुरदार, हम इनकी नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा। सब जगह से नाउम्मीद होकर हमारे पास आते हैं। इन्हीं के दम पर अखबार इस मुकाम पर पहुंचा है।’

कभी वह दफ्तर में आई फालतू पड़ी डाक सामग्री खोलकर पढ़ते मिलते, कभी प्रदेशों, जिलों से छोटे-छोटे अखबार। मैं पूछता, ‘इनमें आप क्या खुदाई करते हैं?’ वह कहते, ‘इनमें कई बार खजाना मिल जाता है।’ वह इंटरनैशनल अखबारों को भी लाइब्रेरी से मंगाकर पढ़ते थे। ऐसी ही सामग्री के दम पर सत सोनी ने ‘सान्ध्य टाइम्स’ को ताजा खबरों, जानकारियों और मनोरंजन के अनूठे पैकेज के तौर पर पेश कर पाते थे। उन दिनों इंटरनेट तो था नहीं। पाठक क्या पढ़ना चाहता है, इसकी उन्हें गहरी समझ थी। वह मजाक में कहते थे, ‘मैं ब्रह्मांड के सबसे बड़े हिंदी सान्ध्य दैनिक का संपादक हूं।’

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वह अपने आप में पत्रकारिता के चलते-फिरते स्कूल थे। जब मैंने सन 1988 में नवभारत टाइम्स जॉइन किया था तो वह उस वक्त वहां डिप्टी न्यूज़ एडिटर थे। बैठे-बैठे मुझे बुला लेते थे। दिखाओ अपनी कॉपी। देखूं, कैसा अनुवाद किया है। फिर उसमें सुधार करने लगते थे। दिल्ली उच्च न्यायालय क्यों लिखा है? तुम बोलते हो उच्च न्यायालय? हर जगह दिल्ली हाई कोर्ट करो। रिक्शावाला भी न्यायालय नहीं, कोरट बोलता है।

जब वह अखबार के लिए सामग्री और उसमें बरती जानेवाली भाषा का चयन करते थे तो उनके जेहन में सुसंस्कृत पाठक नहीं, आम आदमी होता था। वह किसी बड़ी खबर का कुछ हटकर, प्रयोग-भरा हेडिंग लगाते थे तो चपड़ासी को प्यार से बुलाकर पूछते थे, ‘ यह हेडिंग ठीक है? समझ में आ रहा है ना?’ सत सोनी के चले जाने से आम आदमी का खास संपादक चला गया है।

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