ओशो-
अवधूत… अवधूत का अर्थ होता हैः जिसने सब छोड़ा; जो त्यागी हो गया–परमहंस–घर-द्वार छोड़ा घर-द्वार ही छोड़ा–ऐसा ही नहीं, वर्ण-व्यवस्था छोड़ी, समाज छोड़ा, सभ्यता छोड़ी–ऐसा ही नहींः संन्यास भी छोड़ा। अवधूत परमदशा है।
गृहस्थ से आदमी संन्यस्त बनता है, फिर संन्यस्त के भी पार हो जाता है। तो अवधूत।
अवधू शब्द भी अच्छा है। इसका अर्थ हैः ‘वधू जाके न होई, सो अवधू कहावे।’ जिसको दूसरे की जरूरत न रही; वधू यानी दूसरा। किसी को पत्नी की जरूरत है; किसी को मकान की जरूरत है; किसी को दूकान की जरूरत है; किसी को मित्र की जरूरत है; किसी को बेटे की, बेटी की; कोई न कोई जरूरत है। किसी को धन की, किसी को पद की।
जब तक दूसरे की जरूरत है, तब तक तुम अवधू नहीं। जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत न रही; जो अकेला काफी है; जो अपने में पूरा है; ऐसा सब छोड़ कर जो चला गया; संसार से बिलकुल विरक्त हो गया–परिपूर्ण–पीठ मोड़ ली, वह हैः अवधू–अवधूत।
कबीर के मन में अवधूत का सम्मान है। लेकिन वे उनकी जीवन व्यवस्था से राजी नहीं हैं। क्यांेकि कबीर कहते हैंः कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं; यहीं हो सकता है। जो दौड़-दौड़ कर, भाग-भाग कर, जंगल-पहाड़ में करते हो, वह तो बाजार में हो सकता है। इतने दूर जाने की जरूरत क्या? परमात्मा दूर नहीं–पास है। परमात्मा तुम्हारे हृदय में विराजमान है।
कबीर कहते हैंः संसार छोड़ना, संसार में रहने से बड़ी बात है। लेकिन संसार में रहना और संसार को छोड़कर रहना, संसार छोड़ने से भी बड़ी बात है।
तो कबीर कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है; और वह दशा है–जल में कमलवत, संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है।
लेकिन अवधूत के प्रति उनका सम्मान है। वे कहते हैंः कुछ तो किया; कुछ तो अपने को बदला; ‘पर’ से मुक्त हुआ। संसार से मुक्त हुआ। लेकिन कबीर कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात हैः संसार में मुक्त होना। वह कबीर की संसार और परमात्मा के बीच संधि है; संसार और परमात्मा के बीच समन्वय है।
तो संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है।
यही मेरे संन्यास की धारणा भी है। तुम जहां हो, वहीं; जैसे हो वैसे ही; ठीक उसी दशा में तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाए। क्योंकि रूपांतरण मनःस्थिति का है–परिस्थिति का नहीं।