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सुख-दुख

पंकज सिंह विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे

Shiv Kant : कुछ ही क्षण पहले रूपा झा के फ़ेसबुक संदेश से पता चला कि जाने-माने कवि और बीबीसी के पूर्व प्रसारक पंकज सिंह नहीं रहे। हिंदी कविता और पत्रकारिता के लिए यह समाचार एक निर्मम आघात है। पंकज सिंह से एक महीने पहले ही इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पर संक्षिप्त सी मुलाक़ात हुई थी। विश्वास नहीं होता कि वे इतनी जल्दी अंतिम विदा ले लेंगे। उन के साथ चार साल काम करने और बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला था। किसी चलते-फिरते क़िस्सा-कोश की तरह उनके पास हर अवसर, विभूति और क्षेत्र को लेकर दिलचस्प क़िस्सों का एक ख़ज़ाना रहता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे। हम उनके परिवार, मित्रों और पाठकों के दुःख में शामिल हैं…

<p>Shiv Kant : कुछ ही क्षण पहले रूपा झा के फ़ेसबुक संदेश से पता चला कि जाने-माने कवि और बीबीसी के पूर्व प्रसारक पंकज सिंह नहीं रहे। हिंदी कविता और पत्रकारिता के लिए यह समाचार एक निर्मम आघात है। पंकज सिंह से एक महीने पहले ही इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पर संक्षिप्त सी मुलाक़ात हुई थी। विश्वास नहीं होता कि वे इतनी जल्दी अंतिम विदा ले लेंगे। उन के साथ चार साल काम करने और बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला था। किसी चलते-फिरते क़िस्सा-कोश की तरह उनके पास हर अवसर, विभूति और क्षेत्र को लेकर दिलचस्प क़िस्सों का एक ख़ज़ाना रहता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे। हम उनके परिवार, मित्रों और पाठकों के दुःख में शामिल हैं...</p>

Shiv Kant : कुछ ही क्षण पहले रूपा झा के फ़ेसबुक संदेश से पता चला कि जाने-माने कवि और बीबीसी के पूर्व प्रसारक पंकज सिंह नहीं रहे। हिंदी कविता और पत्रकारिता के लिए यह समाचार एक निर्मम आघात है। पंकज सिंह से एक महीने पहले ही इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पर संक्षिप्त सी मुलाक़ात हुई थी। विश्वास नहीं होता कि वे इतनी जल्दी अंतिम विदा ले लेंगे। उन के साथ चार साल काम करने और बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला था। किसी चलते-फिरते क़िस्सा-कोश की तरह उनके पास हर अवसर, विभूति और क्षेत्र को लेकर दिलचस्प क़िस्सों का एक ख़ज़ाना रहता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील और बेबाक इंसान थे। हम उनके परिवार, मित्रों और पाठकों के दुःख में शामिल हैं…

Manisha Pandey : पंकज जी के हमेशा के लिए चले जाने के एक दिन पहले उनका मैसेज आया था। Wish you merry christmas and a very fullfilling new year. मैं खुद पता नहीं किस मूर्खता, किस अवसाद में डूबी थी कि जवाब तक नहीं दिया और उन्‍होंने उस गलती को सुधारने का मौका फिर कभी नहीं दिया। फोन पर आखिरी बार बात उनके मुजफ्फरपुर से लौटने के बाद हुई थी। वीकेंड पर मिलने के लिए कहा। हर वीकेंड की तरह इस बार भी मैं व्‍यस्‍त थी। इस बार भी मैं मिलने का वक्‍त नहीं निकाल पाई।

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आखिरी मुलाकात इत्‍तेफाकन थी। साधो पोएट्री फेस्टिवल में। हमेशा की तरह ही मैं घर में बंद थी। शिवेंद्र ऑलमोस्‍ट मुझे खींचकर ले गया था। चलो, बाहर निकलो। घर को अपनी कब्र बना रखा है। उसी में दफन हो जाओगी। मैं मन मारकर चली गई। वहां एक ही पहचाना हुआ चेहरा था। जैसे बच्‍चे खुश हो जाते हैं किसी अपने को देखकर। पंकज जी को देखकर वैसी खुशी महसूस हुई। मैं जाकर बच्‍चे की तरह उनके बगल वाली कुर्सी पर बैठ गई। फेस्टिवल अभी चल ही रहा था कि मेरे जाने का समय हो गया। वो मेरे साथ बाहर आए। मैंने उन्‍हें शिवेंद्र से मिलाया। ये मेरे स्‍कूल का दोस्‍त है। वो दोनों एक-दूसरे को जानते थे। उस दिन जाते हुए जाने क्‍यों मुझे लगातार ऐसा लगता रहा कि वो चाहते हैं कि मैं न जाऊं। कि हमें कुछ देर और साथ रहना चाहिए। हमें कुछ देर और बात करनी चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं चली आर्इ। आखिरी बार उन्‍होंने मेरा माथा चूमकर कहा था, “तू खुश रहा कर। तेरी बहुत फिक्र होती है।”

मेरी उनसे कोई लंबी, गहरी दोस्‍ती नहीं थी। मेरे जीवन, मेरे दुखों का कोई साझा नहीं। लेकिन जब आपकी पूरी देह दुख से टूट रही हो और कोई सिर पर हाथ भी रख दे तो मन कैसी कृतज्ञता से भर जाता है। मैंने बहुत सुख, बहुत कृतज्ञता महसूस की थी, जब उन्‍होंने माथा चूमकर कहा, “कि तू खुश रहा कर।”

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पंकज जी, मेरे भी एक हजार डर और संकोच हैं। इसी दुनिया ने दिए हैं। वरना क्‍या वजह थी कि आपके इतना कहने के बावजूद मैं मिलने का वक्‍त नहीं निकाल पाई। मैं बहुत शर्मिंदा हूं, उन सारी फोन कॉल्‍स के लिए, जो मैंने उठाईं नहीं। उन मैसेजेज के लिए, जिनका जवाब नहीं दिया। उन मुलाकातों के लिए, जो कभी हो नहीं पाईं। उन बातों के लिए, जो आप करना चाहते थे, लेकिन मैं ही नहीं थी उसमें शिरकत करने के लिए। इस समाज को लेकर बहुत सारे भय और संकोच हैं मन में। आपके लिए हमेशा बहुत स्‍नेह और आदर महसूस हुआ, लेकिन संकोच की एक दीवार हमेशा तनी रहती थी। वो दीवार इतनी बड़ी हो गई कि मनुष्‍यता से भी बड़ी हो गई। मेरी मनुष्‍यता को हिंदी समाज का डर खा गया। मैं बहुत शर्मिंदा हूं कि मैंने आपके आखिरी मैसेज का जवाब नहीं दिया। आपसे कभी कहा नहीं कि आप बहुत अच्‍छे हैं और बिलकुल अकेले नहीं हैं। हम सब हैं आपके साथ। कभी नहीं कहा कि मैं तो फ्री हूं। आप डॉक्‍टर के पास अकेले क्‍यों जाएंगे। मैं चलती हूं साथ में। मुझे बात करनी चाहिए थी। हाथ पकड़ना चाहिए था।

आप बहुत सारा अपराध बोध देकर गए हैं। कोशिश करूंगी कि अब कभी ऐसा हो तो मैं संसार की परवाह किए बगैर सिर्फ अपने मन की सुन सकूं। कि मैं अपने स्‍वार्थों से ऊपर उठ सकूं और जब लगे कि कोई बहुत अकेला है और आवाज लगा रहा है तो मैं उसे सुन सकूं। कि मैं किसी का हाथ पकड़ सकूं। कह सकूं कि हम सब हैं साथ। कि मैं हूं साथ।

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अलविदा पंकज जी। काश कि आपका जाना मुझे और बेहतर, और निडर बना सके।

पत्रकार शिवकांत और मनीषा पांडेय के फेसबुक वॉल से.

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