बृजेश सती/देहरादून
‘निम’ की बढती लोकप्रियता से किसको है खतरा… राज्य में आपदा को लेकर दो प्रमुख सियासी दलों के बीच आरोप प्रत्यारोप कोई नई बात नही है। राज्य गठन के बाद से ही सत्ता पक्ष व विपक्ष ने अपने राजनीतिक नफा नुकसान को देखते हुए जनहित से जुडे इस संवेदनशील मसले पर खूब सियासत की है। लेकिन अब तो राहत व बचाव कार्य करने वाले संगठनों को भी राजनीति का हिस्सा बना दिया गया है। आपदा में राहत व बचाव कार्य में उल्लेखनीय कार्य करने वाले संगठन पर अब सरकार की नजरें तिरछी होने लगी है।
सत्ता में बैठे लोगों को यह गवारा नहीं है कि श्रेय सरकार व मुखिया के अलावा किसी और को मिले। इससे संबधित एक ताजा प्रकरण शिवलिंग चोटी पर पोलेंड के एक पर्वतारोही के रेस्क्यू को लेकर है। रेस्क्यू अभियान में निम की मदद नहीं लेने से सरकार की नीयत पर सवाल उठने लगे हैं। एक सप्ताह पूर्व शिवलिंग एक्सपीडशन में गये दो पर्वतारोहियों के मिसिंग की सूचना थी। सेना ने रेस्क्यू की कमान निम को सौंपी, इस पर कार्रवाई करते हुए निम के राहत कर्मियों ने एक पर्वतारोही के शव को खोज निकाला लेकिन अभी भी एक पर्वतारोही ग्रजेगुज माइकल को नहीं ढूंढा जा सका है। रेस्क्यू अभियान को बीच में ही रोक दिया गया है।
दरअसल एक ही अभियान को दो अलग अलग एजेंसी से कराये जाने के चलते यह सब हुआ है। पहला रेस्क्यू अभियान सेना ने निम को दिया था जबकि दूसरा अभियान आई जी के नेतृत्व में गई एसडीआरएफ की टीम द्वारा किया गया। पहले अभियान में निम ने एक पर्वतारोही लुस्कान जान के शव को रेस्क्यू कर लिया है, जबकि दूसरे पर्वतारोही की खोज में गये एसडीआरएफ की टीम को अपने अभियान में कामयावी नहीं मिल पाई जिसके चलते रेस्क्यू को बीच में रोकना पडा।
सवाल खडा होता है कि जब राज्य में निम जैसा संस्थान इस काम के लिए मौजूद है और उसकी रेस्क्यू टीम ने एक पर्वतारोही के शव को सेम लोकेशन से रेस्क्यू भी कर दिया था तो फिर क्यों दूसरे पर्वतारोही के मामले में निम की अनदेखी की गई। आखिर ऐसे कौन से हालात पैदा हुए कि दूसरे रेस्क्यू अभियान में सरकार को निम की जरूरत महसूस नहीं हुई। किन परिस्थितियों में एसडीआरएफ को रेस्कयू की कमान सौंपी गई और फिर क्यों रेस्क्यू अभियान को बीच में रोक दिया गया।
कई तरह के सवालों की पडताल के बाद निकले निष्कर्षों से यह बात सामने आई है कि सूबे के मुखिया को निम की बढती लोकप्रियता से खतरा पैदा हो गया है। यहां जानना आवश्यक है कि केदारनाथ में वर्ष 2013 में आई भीषण आपदा के बाद से केदारघाटी में स्थिति को सामान्य बनाने के लिए निम को कमान सौंपी गई थी। निम के जवानों व उच्च पदस्थ अधिकारियों के उल्लेखनीय कार्यों के चलते ही दो साल के अन्तराल में केदारनाथ धाम में स्थितियां सामान्य हो गई। विषम भैगोलिक हालातों में निम के जवानों व अधिकारियों ने यहां दिन रात काम किया। उसका ही नतीजा है कि आज केदारनाथ में एक बार फिर से रौनक लौट आई है।
इस पूरे अभियान में निम के प्रधानाचार्य कर्नल अजय कोठियाल की भूमिका सराहनीय रही। उनके कुशल नेतृत्व में ही केदारनाथ मे निम कर्मियों ने काम किया। इसके चलते कर्नल कोठियाल खासे चर्तित रहे। उनके बारे में तो उस दौर में यहां तक चर्चाएं होने लगी थी कि कर्नल कोठियाल केदारनाथ विधानसभा से चुनाव मैदान में ताल ठोक सकते हैं। शायद कर्नल कोठियाल व निम को मिली चौतरफा वाहवाही ही मुखिया व उनके सिपहसालारों को खटकने लगी। हालात तो यहां तक पहुंच गये हैं कि पिछले कुछ समय से केदारनाथ में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में निम के प्रमुख कर्नल कोठियाल को आमंत्रित नहीं किया गया।
संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद राहत व बचाव कार्यों में राज्य में मौजूद संस्थान का सहयोग न लेना सरकार व तंत्र की मंशा पर प्रश्न चिन्ह तो लगाता ही है साथ ही विपक्षी दलों का जनहित से जुडे इस अहम सवाल पर खामोश रहना सरकार को मौन समर्थन की ओर ईशारा करता है।
लेखक brijesh sati से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.