Mahendra Mishra : सुमंत भट्टाचार्य जी आपने तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लंपटों का भी कान काट लिया। उन पर लड़कियों का दुपट्टा खींचने का आरोप लगता था। लेकिन आप ने तो सीधे इंडिया गेट पर बलात्कार की ही दावत दे डाली। इलाहाबाद विश्वविद्याल से पत्रकारिता के रास्ते यहां तक का आपका यह सफर सचमुच काबिलेगौर है। हमारे मित्र रवि पटवाल ने इसे नर से बानर बनने की संज्ञा दी है। लेकिन मुझे लगता है कि यह जानवरों का भी अपमान है। पशु और पक्षियों में नर और मादा के बीच एक दूसरे की इच्छा का सम्मान यौनिक रिश्ते की प्राथमिक शर्त होती है। फ्री सेक्स शब्द सुनते ही आप उतावले हो गए। और बगैर कुछ सोचे समझे मैदान में कूद पड़े।
आखिरकार फ्री सेक्स का मतलब क्या होता है? किसी शब्द का एक अर्थ होता है। उसकी एक परिभाषा होती है। और आप भी राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं। पत्रकारिकता आप का पेशा रहा है। ऐसे में शब्दों की अपनी अहमियत और विशिष्टता के बारे में न जानने का कोई कारण नहीं दिखता है। फ्री सेक्स का यह मतलब तो कत्तई नहीं है कि कोई महिला सड़क पर बैठ गई है और मुफ्त में सेक्स बंटने लगा है। और कोई भी कतार में खड़ा हो सकता है। इसका मतलब है किसी भी महिला का अपनी देह पर पहला और आखिरी अधिकार। क्या आप इस अधिकार को नहीं देना चाहते? या फिर आपको इस पर कुछ एतराज है? या फिर सनातनी संस्कृति के नाम पर औरत को अभी भी चाहरदीवारी के भीतर ही कैद किए रखना चाहते हैं? या चाहते हैं कि महिला सब कुछ करे लेकिन रहे मर्दों के अंगूठे के नीचे ही। वही पैर की जूती बन कर।
एपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन को संबोधित कर लिखी सार्वजनिक पोस्ट में आप एक वहशी बलात्कारी के रूप में दिखते हैं। उस पोस्ट पर शर्मिंदा होने और उसे वापस लेने की जगह आप कविता पर ही नारी उत्पीड़न की आड़ में भागने का आरोप जड़ देते हैं। कुंठित भक्तों के साथ मिलकर किया गया आपका यह राक्षसी अट्टहास पौराणिक कथाओं की याद दिला देता है। फिर भी निर्लज्ज तरीके से अपनी बात पर अड़े हुए हैं। लेकिन बार-बार पूछने के बाद कहीं भी यह बताने की कोशिश नहीं करते हैं कि फ्री सेक्स से आखिरकार आप क्या मतलब निकालते हैं। सेक्स अगर फ्री नहीं है तो कहने का मतलब फिर वह फोर्स्ड है यानी बलात सेक्स है। तो फिर क्या आप बलात सेक्स के पक्ष में हैं। अगर नहीं तो फिर कोई कैसे फ्री सेक्स के खिलाफ हो सकता है। हां यह बात जरूर है कि फ्री सेक्स से पुरुष बर्चस्व के टूटने का खतरा है। शायद यही बात मर्दों को नहीं पच रही है।
दरअसल संविधान में जितना महिलाओं को अधिकार मिला है आप उतना भी उन्हें देने के लिए राजी नहीं हैं। 18 साल से ऊपर किसी भी लड़की को अपना भविष्य चुनने का अधिकार है। वह किससे शादी करे, किससे न करे और किसके साथ रहे। उसे यह तय करने का अधिकार संविधान देता है। इसमें न तो कहीं मां-बाप आते हैं न ही परिवार के लोग। समाज तो बहुत दूर की बात है। और अब तो सुप्रीम कोर्ट ने लिविंग रिलेशन तक को मान्यता दे दी है। और लड़के-लड़की या महिला-पुरुष बगैर शादी किए एक दूसरे के साथ रह सकते हैं। अपनी मर्जी के मुताबिक। फ्री सेक्स का मतलब है बगैर किसी दबाव के सेक्स। यानी स्त्री और पुरुष अपनी मर्जी और बगैर किसी दबाव के आपसी सहमति से एक दूसरे के साथ यौन संबंध बनाएं। यहां तक कि पति भी अगर पत्नी की बगैर इच्छा के संबंध बनाता है। तो वह बलात्कार की श्रेणी में आता है।
एकबारगी आपके इसी प्रस्ताव को उल्टे तरीके से देखा जाए। कोई महिला होती और वह किसी पुरुष को इंडिया गेट पर इसी तरह से सेक्स करने के लिए आमंत्रित करती। जितने शान और अहंकार के साथ आप इस काम को कर रहे हैं। तब क्या होता? आप उसके बारे में क्या खयाल रखते? अवलन तो शायद ही कोई महिला ऐसा साहस कर पाए। और अगर करती भी तो उसे विक्षिप्त करार दे दिया जाता। आप जैसे लोग उसे तत्काल असभ्य लोगों की कतार में खड़े कर देते। और फिर उसे क्या-क्या गालियां दी जातीं और क्या-क्या कहा जाता। उसकी कल्पना करना मुश्किल है। सामने आने और बहस करने की बात तो दूर समाज में उसका जीना दूभर हो जाता। लेकिन वही सब कुछ करके आप पूरे शान से जी रहे हैं। ऊपर से आपको उम्मीद है कि सनातनी बाड़े में इस महिलामर्दन के लिए आपको पुरस्कृत भी किया जाएगा। इसके बदले में आप को तमाम उच्च खिताबों से नवाजा भी जाएगा। इसके सहारे आप पत्रकारिता में दम तोड़ चुके अपने भविष्य को नया पंख देने का ख्वाब बुन रहे हैं। यही है भारतीय समाज में महिला और पुरुष के बीच का अंतर। अगर आप समझ सकें तो? ऐसे में महिलाओं को लेकर पुरुषों के दिमाग में जमे बहुत सारे कचरे का निकलना अभी बाकी है। देश में बराबरी और सम्मान के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए महिलाओं को अभी बड़ा लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन कविता और उनकी मां जैसी महिलाओं के रहते उम्मीद का यह सफर जरूर छोटा हो जाएगा।
पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट महेंद्र मिश्र के एफबी वॉल से.
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रविप्रकाश सिंह
May 27, 2016 at 4:59 am
यशवंत जी
आप पत्रकारो के पत्रकार हो पर आप की पूरी पोस्ट मेरा कोई लेना देना नहीं आप ने जो उदहारण चुना उसके लिए खेद है जंहा तक मैं जनता हु इलाहबाद के तथाकथित लम्पटों को जिनको आप जानते होंगे शायद मैं भी जानना चाहूँगा। जो इसके समर्थक रहे हो।