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सुनील दुबे ने जब केबिन में बुलाकर दिनेश पाठक से मांग लिया था इस्तीफा!

-Dinesh Pathak-

स्मृति शेष सुनील दुबे सर दो : जब केबिन में बुलाकर माँग लिया इस्तीफा

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मैं अयोध्या से लौटा ही था। कुछ दिन सहज होने में लगे। कंप्यूटर ने पूरे दफ्तर को अपने कब्जे में ले लिया था और मुझे कंप्यूटर चलाना नहीं आता था। अयोध्या दफ्तर में कुछ कोशिश करता था लेकिन वहाँ दो सिस्टम थे और काम ज्यादा था। ऑपरेटर दिन भर लगे रहते थे।

मैं 1998 में वापस लखनऊ आ चुका था। सुबह मीटिंग से निकल कर फील्ड में जाता। दोपहर में लौटकर हाथ से कॉपी लिखता। एक दिन मैं रिपोर्ट लिख रहा था। तभी दिनेश (दुबे सर का सेवक) ने आकर इशारा किया कि बॉस बुला रहे हैं। उस जमाने में दिनेश जिस ओर घूम जाता लोग सिहर जाते थे। क्योंकि दुबे सर ऊपर से सख्त बहुत थे, नारियल की तरह अंदर से एकदम सॉफ्ट लेकिन इसे पहचानने में किसी को भी वक्त लग सकता है।

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खैर, मैं दुबे सर के कक्ष में पहुँचा। बोले-क्या हो रहा है। मैंने स्वरक्षार्थ बोला-सर, बड़ी खबरें अभी लिख रहा हूँ, जिससे डेस्क को जल्दी दे सकूँ और छोटी-छोटी खबरें शाम को कम्प्यूटर पर लिखता रहूँगा। वे मुस्कुराए और बोले बाहर जाइये। एक पेज पर इस्तीफा लिखकर लाइये। अगर एक हफ्ते में कंप्यूटर नहीं सीख लिया तो यही इस्तीफ़ा मंजूर हो जाएगा।

दुबे सर की अवहेलना करने की ताकत मुझमें नहीं थी। उन्होंने जैसा कहा, मैंने वही किया। इस्तीफा लिखकर दे दिया। बाहर आया। चेहरे पर तनाव था। अब मेरे पास दो रास्ते थे। एक-कंप्यूटर सीख लूँ। दो-दूसरी नौकरी तलाश करूँ।

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आकर कुर्सी पर बैठा। मई-जून का महीना था। एसी में भी पसीने-पसीने। बिना कुछ सोचे जो पहला काम हुआ, वह यह था कि जो खबरें मैंने हाथ से लिखी थीं। एक-एक कार फाड़ता और फेंकता गया। मेरे और दुबे सर के बीच में केवल एक ग्लास था। मैं चाहता था कि मेरी यह हरकत सर जरूर देख पाएं। मुझे आजतक नहीं पता चल पाया कि उन्होंने देखा या नहीं, पर मैंने कोशिश पूरी शिद्दत से की।

उसके बाद की-बोर्ड का प्रिंट माँग कर ले आया। फिर एक ऊँगली से कंपोजिंग शुरू की। लगभग डेढ़ घण्टे के प्रयास के बाद मैं कोई 450 शब्द की एक खबर बनाने में कामयाब हुआ। प्रिंट निकाला और संपादक जी के सामने पेश हुआ। स्पेशल स्टोरी संपादक जी को दिखाने की परंपरा थी। उन्होंने कॉपी पढ़ी और अपनी कलम से कुछ करेक्शन किया। पेज वन मार्क किया। फिर कुर्सी से उठे। न्यूज रूम तक आये। भीड़ नहीं थी लेकिन जो भी थे उन सबके सामने पूरा किस्सा बयाँ करते हुए सराहना की। यह भी कहा कि सीखने की यही प्रवृत्ति किसी को आगे लेकर जाती है। तुम भी आगे जाओगे और वह हुआ भी।

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मैं अब से कंप्यूटर पर कॉपी लिखने लगा और कुछ दिन में ही स्पीड भी बहुत अच्छी हो गयी। बाद में तो डेस्क शब्द सीमा बताती और मैं उतना ही लिखने लगा। दो-तीन सप्ताह बीत चुका था। फिर दिनेश हाजिर और बॉस का बुलावा। यद्यपि मेरे लिए यह सामान्य घटना हो चुकी थी। मैं केबिन में पहुँचा। सर ने एक कागज मेरी ओर बढ़ाया और बोले-इसे अपने हाथ से फाड़ दो। तुम्हारा इस्तीफा है, जो तुमने लिखकर दिया था।

मैं अपना इस्तीफा फाड़ चुका था। सर ने बैठने का इशारा किया। चाय मंगवाई। उसके बाद उन्होंने सीखने-सिखाने की प्रवृत्ति पर कुछ बातें कीं, जो आज भी मेरे जीवन में काम आ रही हैं। अपने संपादकीय दायित्वों के निर्वहन के दौरान मैंने कई बार ऐसे प्रयोग किये और वे कामयाब भी रहे।

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कंप्यूटर, लैपटॉप, साधारण फोन, स्मार्ट फोन से निकलकर नाचीज टेबलेट तक का सफर आराम से कर रहा है। अब तो लेख आदि के लिए डेस्कटॉप, लैपटॉप की जरूरत ही नहीं पड़ती। फोन से ही काम चल रहा है। मेरे निजी जीवन में आपका बड़ा स्थान है। हृदयतल से आभार और आपकी स्मृतियों को प्रणाम निवेदित करता हूँ।

जारी…

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पहला पार्ट ये है- मेरी पत्रकारिता और सुनील दुबे जी : …सीवी भेजो और लखनऊ में आकर मैडम से मिलो!

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