संस्मरण : ग़ालिब छुटी शराब (भाग 1)

‘ग़ालिब’ छुटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में

13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्‍ती में कभी-कभार भाँगड़ा भी हो जाता और अंत में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाजत दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज दोस्‍तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्‍यंजन पुस्‍तिका पढ़ कर छोले भटूरे कम न बनाए होंगे।

कालिया जी धुर काँग्रेसी थे और मेरी छवि काँग्रेस विरोधी की थी

Sant Sameer : भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक और एक विशाल पाठक वर्ग के चहेते साहित्यकार रवीन्द्र कालिया जी के देहावसान के कई दिन बाद आज जाकर यह मानसिकता बना पा रहा हूँ कि बतौर श्रद्धांजलि उनकी याद में अपने दिल की कुछ बातें बयान करूँ। असल में, मेरी भी मानसिक बनावट कुछ अजीब सी है। परिचितों का दायरा तो सबका ही आमतौर पर बहुत बड़ा होता है, पर नज़दीकी रिश्ते कम ही लोगों से बन पाते हैं।

मैं ही हूं रवींद्र कालिया

IIMC पास करने के कुछ दिनों की बात है। पत्रकारिता का नया-नया रंगरूट था। नौकरी नहीं करने का फैसला किया था। फ्रीलांसिंग शानदार चलती थी और लगता था ज़िंदगी में और क्या चाहिए। मोहन सिंह प्लेस कॉफी हाउस में बैठे हुए कुछ लोगों के बीच इलाहाबाद का ज़िक्र छिड़ा। और मेरे मन में तुरंत इलाहाबाद जाने की हुड़क मच गई। ऐसी हुड़क कि मैंने कॉफी हाउस से सीधे इलाहाबाद की ट्रेन पकड़ने का फैसला किया। कोई रिजर्वेशन नहीं, कोई तैयारी नहीं। दूसरा दर्जा तब कैटल क्लास के नाम से कुख्यात नहीं हुआ था।