अजय प्रकाश-
मैं यह बातें लगातार अपने साथियों के साथ होने वाली बैठकों, परिवारिक – मित्रवत मुलाकातों और भाषणों – सेमिनारों में भी कहता रहता हूं। आज करीब-करीब उसी भावना और समझदारी को बताने के लिए सुंदर पिचई का एक लेख शेयर कर रहा हूं…
सुंदर पिचई तकनीकी और वर्चुअल कम्युनिकेशन का बेताज बादशाह है, वह खुद क्या सोचता है…
अगर आप मेरी पूछें तो मैं कहूंगा कि एफबी, यू ट्यूब और ट्विटर ने हम करोड़ों लोगों को जो कि खुद को समझदार, जानकारी वाला बंदा समझते थे उन्हें एक बंदर बनाकर छोड़ा है, हमें कहीं का नहीं छोड़ा है…खैर आप गांधी मार्ग में छपी पिचई की टिप्पणी को पढ़िए.. 👇🏼
सुंदर पिचाई-
मेरा बचपन बेहद सादगी में बीता. उस वक्त को मैं आज की अपनी दुनिया की तुलना में काफी बेहतर मानता हूं. हम जिस मामूली घर में रहते थे वह किराएदारों से भरा था. हम लिविंग रूम के फर्श पर सोते थे. जब मैं बड़ा हो रहा था, तो सूखे से सामना करना पड़ा. वह सच्चाई इतनी ठोस थी कि मेरे मन में जमकर बैठ गई. आज भी मैं पानी की बोतल अपने सिरहाने रखकर सोता हूं. तब दूसरों के घरों में रेफ्रिजरेटर हुआ करते थे. जब यह रेफ्रिजरेटर हमारे घर आया, तो लगा जैसे बहुत बड़ी बात हो गई है.
मैं पढ़ाकू था. जो भी मेरे हाथ आता, मैं पढ़ने लग जाता. दोस्त थे, तो उनके साथ क्रिकेट खेलना और किताबें पढ़ना… बस, यही जिंदगी थी ! इस जिंदगी में किसी तरह की कमी कभी महसूस नहीं होती थी. मैंने बड़े होते हुए एक-एक बदलाव को महसूस किया है. फोन के लिए लंबा वेटिंग पीरियड मैंने देखा है; अपने दादा-दादी के ब्लड टेस्ट रिजल्ट लेने के लिए एक घंटे का सफर जाते और एक घंटे का सफर आते वक्त किया है. कई दफा यह भी हुआ कि मैं जब अस्पताल पहुंचा तो उन्होंने कह दिया कि आज रिपोर्ट तैयार ही नहीं हुई है.
फिर हमारी दुनिया में फोन की एंट्री हुई. मैं फोन करके पूछ लेता था कि रिपोर्ट तैयार हुई है या नहीं. यह मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव था. आसपास के
लोग भी हमारे घर कॉल करने आया करते थे. मैंने हमेशा महसूस किया कि टेक्नोलॉजी कैसे सामुदायिक भावना का विकास करती है और कैसे समुदायों को जोड़े रखती हैं. बड़े होकर, मैंने भी इसमें जोड़ने की कोशिश की. तब इंटरनेट तेजी से फैल रहा था. मैं इस बदलाव का हिस्सा बनना चाहता था. आर्थिक कारणों से भी मुझे जॉब करना ही था. इसलिए स्टेनफोर्ड से पढ़ाई के बाद मैंने काम शुरू किया.
काम के दौरान धीरे-धीरे मैं समझा कि टेक्नोलॉजी दरअसल एक माध्यम भर है. समाज तो दरअसल लोगों का है! समाज को यह देखना ही होगा कि हम टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कहां-कहां और किस हद तक कर सकते हैं. टेक्नोलॉजी लोगों को अकेला कर दे, यह अच्छी बात नहीं है. आज आप लोगों को मोबाइल में उलझा हुआ देखते हैं. ऐसा लगता है जैसे टेक्नोलॉजी उन्हें जबरन खुद में उलझा कर अकेला कर रही हैं. हमारी जीवनशैली में यह मोबाइल टेक्नोलॉजी उस तरह फिट नहीं हुई है, जैसा उसे होना चाहिए. मैं बहुत जरूरी मानता हूं कि मनुष्य अपनी समस्याओं के स्वाभाविक हल निकाले व उसे सामाजिक रूप से स्थापित करे. टेक्नोलॉजी तो आपकी मदद के लिए हैं. उस पर पूरी तरह निर्भरता ठीक नहीं. अगर आप टेक्नोलॉजी से ठीक से डील नहीं करेंगे, तो यह आपको अकेला करती जाएगी. हमारी समझ व सोच में जब एक संतुलन आएगा, हम सामाजिक दृष्टि से विचार करना सीखने लगेंगे तो आज का असंतुलन कम होने लगेगा. फिर हम टेक्नोलॉजी को कोसना कम कर देंगे.
हम लगातार तेजी से विकास कर रहे हैं. आने वाले वक्त में ऐसा होगा कि आप कान में बड्स पहनेंगे और उन लोगों से बातें कर पाएंगे, जिनकी भाषा आप नहीं जानते. जब आप ऐसी टेक्नोलॉजी की दहलीज पर खड़े होंगे तो कई ऐसी जिम्मेवारियां आपके कंधों पर आ पड़ेंगी, जिनका आपको अंदाजा नहीं है. जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी की दखलंदाजी बढ़ेगी, उसकी तैयारी करनी होगी. मूल बात क्या है, मैं आपको बताऊं? एकदम सरल-सी बात है कि हर बात के लिए मशीन का मुंह देखना, टेक्नोलॉजी की बैसाखी उठाना गलत है. टेक्नोलॉजी तेजी से दुनिया को लोगों से दूर करती जा रही है. वह लोगों को बोझ साबित करना चाहती है जबकि सच यह है कि अनावश्यक टेक्नोलॉजी ही अपने आप में बोझ है. हर बात के लिए टेक्नोलॉजी का मुंह नहीं देखना है. हमें सोच का दायरा बढ़ाना है. इसे अपने जीवन में वही जगह देनी है, जहां यह वाकई जरूरी है. और …. सबसे अहम बात, दुनिया स्क्रीन नहीं है. इसे स्क्रीन से अलग करके देखना हैं. हम इंसान हैं हमें इंसान ही बने रहना है. मशीन हमसे अलग ही होनी चाहिए.