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पत्रकारों के सीट पर बैठने की टाइमिंग नोट करने वाले डिवाइस को लेकर द डेली टेलीग्राफ में बवाल

लन्दन के ‘द डेली टेलीग्राफ’  के पत्रकारों ने उनके डेस्क पर लगाए गए OccupEye नामक मोशन सेंसर एक ही दिन में हटाने पर मज़बूर कर दिया। ये सेंसर इस बात को रेकॉर्ड करते थे कि पत्रकार अपनी डेस्क पर कितने घंटे, मिनट और सेकण्ड्स बैठे। अख़बार प्रबंधन ने यह हिमाक़त कार्यालय में एसी / बिजली की खपत का अंदाज़ लगाने  के बहाने की थी। भारी विरोध के चलते सोमवार की सुबह लगाये गए मोशन सेंसर एक ही दिन में हटा लिए गए। 1855 में शुरू हुआ था लन्दन का  ‘द डेली टेलीग्राफ एंड कोरियर’, लेकिन उसके ‘मालिकों’ की मानसिकता आज भी 1855 की ही है।  अखबार के नाम, मालिक और सदियाँ बदल गईं, पर मानसिकता नहीं।

<p>लन्दन के 'द डेली टेलीग्राफ'  के पत्रकारों ने उनके डेस्क पर लगाए गए OccupEye नामक मोशन सेंसर एक ही दिन में हटाने पर मज़बूर कर दिया। ये सेंसर इस बात को रेकॉर्ड करते थे कि पत्रकार अपनी डेस्क पर कितने घंटे, मिनट और सेकण्ड्स बैठे। अख़बार प्रबंधन ने यह हिमाक़त कार्यालय में एसी / बिजली की खपत का अंदाज़ लगाने  के बहाने की थी। भारी विरोध के चलते सोमवार की सुबह लगाये गए मोशन सेंसर एक ही दिन में हटा लिए गए। 1855 में शुरू हुआ था लन्दन का  'द डेली टेलीग्राफ एंड कोरियर', लेकिन उसके 'मालिकों' की मानसिकता आज भी 1855 की ही है।  अखबार के नाम, मालिक और सदियाँ बदल गईं, पर मानसिकता नहीं।</p>

लन्दन के ‘द डेली टेलीग्राफ’  के पत्रकारों ने उनके डेस्क पर लगाए गए OccupEye नामक मोशन सेंसर एक ही दिन में हटाने पर मज़बूर कर दिया। ये सेंसर इस बात को रेकॉर्ड करते थे कि पत्रकार अपनी डेस्क पर कितने घंटे, मिनट और सेकण्ड्स बैठे। अख़बार प्रबंधन ने यह हिमाक़त कार्यालय में एसी / बिजली की खपत का अंदाज़ लगाने  के बहाने की थी। भारी विरोध के चलते सोमवार की सुबह लगाये गए मोशन सेंसर एक ही दिन में हटा लिए गए। 1855 में शुरू हुआ था लन्दन का  ‘द डेली टेलीग्राफ एंड कोरियर’, लेकिन उसके ‘मालिकों’ की मानसिकता आज भी 1855 की ही है।  अखबार के नाम, मालिक और सदियाँ बदल गईं, पर मानसिकता नहीं।

11 जनवरी, सोमवार की सुबह जब अखबार के पत्रकार कार्यालय पहुंचे, तब उन्हें सूचना मिली कि कार्यालय में उन सभी की  डेस्क के नीचे सिगरेट की एक डिबिया जितना बड़ा  डिवाइस ( मोशन सेंसर) फिट किया गया है, ताकि पता चल सके कि उस डेस्क  का उपयोग हो रहा है या नहीं, यह व्यवस्था चार हफ्ते के लिए है और इसका उपयोग लाइट और एयरकंडीशनिंग की खपत का अंदाज़ लगाने के लिए हैं। यह मोशन सेंसर विज्ञापन, प्रशासन और दूसरे सभी विभागों के डेस्क के नीचे लगा था। इस अख़बार में 1100 स्टाफ़र हैं और यह मोशन सेंसर सिगरेट की एक डिबिया जितना बड़ा.

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पत्रकारों को यह बात नागवार गुज़री और कई पत्रकारों ने डिवाइस की बैटरी ही निकालकर फैंक दी।  पत्रकारों ने इसे बेहूदा, भद्दा और शर्मनाक बताया। कहा — यह तो ‘बिग ब्रदर’ जैसा मामला है। हमारा काम देखो, काम की क्वालिटी-क्वांटिटी देखो; यह क्या कि हम डेस्क का उपयोग कर रहे हैं या नहीं?  कई पत्रकारों ने  सोशल   मीडिया पर इसका जमकर विरोध किया। इसे आम लोगों का भारी समर्थन मिला। यूके के नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स ने भी अखबार के रवैये की कड़ी भर्त्सना की। यह विरोध इतना तगड़ा लगा कि शाम होते-होते ही फैसला वापस लेने का निर्णय हुआ और मंगलवार को मोशन सेंसर डिवाइस हटा लिए गए। अखबार प्रबंधन ने कहा कि हमने तो स्टाफ़ का फीडबैक देखकर फैसला लिया है और अब कोई और वैकल्पिक रास्ता अपनाएंगे।

टेलीग्राफ ग्रुप में सैकड़ों की संख्या में फ्रीलांसर भी काम करने आते हैं और उनके पारिश्रमिक का निर्धारण ऑफ़िस की ‘डेस्क पर मौजूद रहने के’ घंटों के आधार पर होता है। लन्दन में एक व्यक्ति के ऑफिस में बैठने और काम करने की जगह का औसत खर्च करीब 15000 पॉउण्ड प्रति माह आता है, जो काफी महंगा पड़ता है। लन्दन  टेलीग्राफ का यह कार्यालय महंगा किराया देता है और दो साल में ही इसमें दोगुनी बढ़ोतरी हुई है। टेलीग्राफ ग्रुप का यह अखबार ब्रिटेन में टाइम्स और गार्जियन की तरह ही प्रतिष्ठित है और मुनाफा कमा  रहा है, लेकिन घटते हुए प्रसार और कम हो रहे विज्ञापनों की आय से प्रबंधन चिंता में है। यह ग्रुप दैनिक और साप्ताहिक अखबार के अलावा पत्रिकाएं भी प्रकाशित करता है और इसका ऑनलाइन कारोबार भी अच्छा खासा है।

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वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी के पोर्टल से साभार.

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