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सुख-दुख

ठेके के किसानों की वही गति होगी जो ठेके के पत्रकारों की हुई है

गुंजन सिन्हा-

ठेके पर खेती से किसान को महान फायदे! भडैंती न्यूज़18 पर चल रही है.

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याद दिलाएं – पहले हम अख़बारों में नियमित नौकरी करते थे. नौकरियां सेवा-शर्तों और श्रमजीवी पत्रकार क़ानून के अनुसार सुरक्षित थीं. सभी लोग प्रबंधन के दबाव से आज़ाद थे.

1990 के बाद नवभारत टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ने अपने पत्रकारों को ठेके पर आने के लिए दबाव देना शुरू किया. ऑफर दिए जाने लगे कि सालाना कॉन्ट्रैक्ट पर आ जाइए तो तनखा दूनी दी जाएगी. जो नहीं मान रहे थे उन्हें तंग किया जाने लगा. तनखाहें पहले ही काफ़ी कम थीं तो दूनी का ऑफर आकर्षक लगने लगा.

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यूनियन के विरोध के बावजूद अंततः सारे लोग कॉन्ट्रैक्ट पर आ गए. अब प्रबंधन जिसे चाहता निकाल देता. तनखा भी अब उसकी मर्जी की. वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट निरर्थक हो गया. उसमें नियम था कि पत्रकारों से रोजाना छः घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता. अब हर जगह 10/12 घंटे ड्यूटी होती है. ठेके पर नौकरी असुरक्षित है अतः ठेकाकर्मी कानूनी अधिकार का दावा नहीं कर सकते. कानूनी हक़ श्रम अदालत से हासिल करने का विकल्प हवा हो गया. नकेल प्रबंधन के हाथ में है.

प्रबंधन को मानदंड से नहीं, प्रॉफिट से मतलब है. पत्रकारिता के मानदंड बेमानी हो गए. नतीजा पूरा समाज भुगत रहा है. असुरक्षित डॉक्टर ठीक इलाज नहीं कर सकता. असुरक्षित सैनिक देश की रक्षा नहीं कर सकता. ठेके पर बहाल शिक्षक रीढ़ और आत्मसम्मान खो देता है. वैसे ही असुरक्षित पत्रकार सही खबर देने का दायित्व नहीं निभा सकता. लोग पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए पत्रकारों को दोष देते हैं. शिक्षा के गिरते स्तर के लिए शिक्षक को दोष देते हैं. नहीं समझते कि इस दयनीय स्थिति की वजह है सेवा शर्तों, नौकरी की सुरक्षा और यूनियन का ख़त्म हो जाना.

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ठेके की नौकरी प्रबंधन की दया पर है. ठेके के किसान की भी वही गति होगी जो अन्य ठेकाकर्मियों की होती है – रीढ़ गायब हो जाएगी. हर दिन समझौते करते करते वजूद घिसता जाएगा. बताते चलें, न्यूज 18 सहित तमाम मीडिया-घरों में लोग लगातार निकाले जा रहे हैं और कम से कम तनखा पर नए लोग लिए जा रहे हैं. सवाल है 40/45 की उम्र में पहुँच कर बेरोजगार हुए हजारों पत्रकार अब कहाँ जाएं? क्या करें?

वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा की एफबी पोस्ट.

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