संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में कोई कॉमन लीड नहीं है। मतलब कोई ऐसी खबर नहीं है जिसे लीड बनाने की मजबूरी या आनंद हो। ऐसे में पहले पन्ने की कुछ खबरों की चर्चा दिलचस्प होगी। उदाहरण के लिए, टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया है कि महुआ मोइत्रा के लोकसभा अकाउंट में दुबई से 47 लॉगइन हुए। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सरकारी सूचना है और निजी तौर पर उपलब्ध नहीं होनी चाहिये। लीक की या कराई गई है। चिन्ता इसकी होनी चाहिये पर इसकी है कि महुआ मोइत्रा ने अपना पासवर्ड किसी ‘गैर’ को दे दिया। अगर दिया ही था तो उसका दुरुपयोग नहीं हुआ, अदाणी के खिलाफ सवाल पूछे गये जिसका जवाब नहीं है और सरकार को पसंद नहीं है इसलिए महुआ को बदनाम करने वाली इस ‘खबर’ को इतनी प्रमुखता मिली है जबकि मामला इतना बड़ा नहीं है। दुखद यह कि अब यह सब छिपाने या शर्माने की बात नहीं है। यह मेरी खबर यह है। आप ऐसी खबरें पढ़ना चाहें तो यहां आते रहें।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर में बताया है कि महुआ मोइत्रा ने स्वीकार किया है कि उन्होंने मेल आईडी तथा पासवर्ड हीरानंदानी से साझा किये थे। पर कहा है कि यह ‘कुछ भी’ करने के लिए नहीं था और सांसदों के लिए यह सामान्य है कि दूसरों को अपने लॉगइन उपयोग करने देते हैं। पाठक को लगेगा कि जब स्वीकार ही कर लिया तो क्या बात है, अपराध हुआ ही है। पर टाइम्स ऑफ इंडिया को इतने से तसल्लली नहीं है। शिकायतकर्ता निशिकांत दुबे का यह दावा भी छापा गया है कि लॉगइन साझा करना एनआईसी के साथ सांसदों के करार का उल्लंघन है। इस लिहाज से यह ‘खबर’ जरूर है। पर सांसदों के शपथ पत्र का कितना पालन हो रहा है कितना सच है और कितने मामले लंबित हैं, यह चर्चा करने की जरूरत नहीं है। पैसे लेकर सवाल पूछने, दो पैन कार्ड, फर्जी डिग्री आदि के मामलों पर कोई बोल नहीं रहा है तो टाइम्स ऑफ इंडिया पहले पन्ने पर नहीं छापेगा। महुआ मोइत्रा अदाणी और निशिकांत दुबे के खिलाफ हैं और रही हैं इसलिए निशिकांत दुबे सांसदों से एनआईसी के करार की शर्त बतायेंगे (जिसका महुआ को अपराधी साबित करने की कोशिश के अलावा आम आदमी से कोई संबंध नहीं है) तो वह पहले पन्ने पर छपेगा। यह है संपादकीय चयन।
वह भी तब जब महुआ मोइत्रा कह चुकी हैं और कहा है तो सही ही होगा वरना वह भी छपना चाहिये था कि बचने के लिए झूठ बोल रही हैं। पर झूठ बोलना भी अखबारों के लिए मुद्दा तो है नहीं। कायदे से बड़े लोगों खासकर नेताओं के झूठ की पोल खोलना अखबारों का काम है। फिर भी, महुआ मोइत्रा के अनुसार यह तथ्य है कि सवाल पोस्ट करने से पहले ओटीपी डालना होता है और ओटीपी उनके मोबाइल पर ही आता है। इसलिए उनकी जानकारी में होता है और अगर उनकी ओर से कोई सवाल टाइप कर देता है तो इसमें गलत क्या है। वैसे भी, हम सब लोग किसी दूसरे कंप्यूटर से या दूसरी जगह से अपना हॉटमेल, जीमेल अकाउंट खोलते हैं तो अलर्ट आता है और दूसरे कंप्यूटर पर बैंक अकाउंट खोलना भी मुश्किल होता है। एनआईसी अगर जरूरी समझे तो ऐसी व्यवस्था कर सकता है कि संसद भवन से बाहर से सवाल पोस्ट नहीं किये जा सकें। पर यह सब नहीं करके महुआ मोइत्रा को बदनाम करने का मकसद समझा जा सकता है। कौन लोग किसलिये यह सब कर रहे हैं, समझना मुश्किल नहीं है।
इसीलिए उनका पक्ष अदंर के पन्ने पर होने की सूचना इस खबर के अंत में है। कहने की जरूरत नहीं है कि महुआ मोइत्रा अपना लॉगइन पासवर्ड साझा नहीं कर सकती हैं पर संपादक किस खबर को ऊपर छापे किसे नीचे और किसे अंदर तय कर सकता है। किस बकवास को ‘खबर’ बनाना है यह तो तय करता ही रहा है। महुआ मोइत्रा कहती रही हैं कि उनके खिलाफ आरोप बिना सबूत के हैं। इसलिए इसे स्वीकार ही नहीं किया जाना चाहिये था और स्वीकार किया गया है तो फैसले का इंतजार किया जाना चाहिये था पर बदनाम करने का अभियान चल रहा है और इसमें उनका पक्ष गौण है कि वे आरोप के समर्थन में स्वेच्छा से शपथपत्र जारी करने वाले से जिरह करना चाहती है। इसलिए, आरोप लगाने वाले को भी बुलाया जाये पर यह खबर आज अखबारों में नहीं है। इसे द टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा है। महुआ ने यह आरोप भी लगाया है कि एथिक्स कमेटी सब कुछ मीडिया को लीक कर रहा है और इसीलिए वे भी करती रही हैं पर उसका काम सांसद के लिए कोड ऑफ कंडक्ट बनाना है जो बना ही नहीं है और साल से तो बैठक भी नहीं हुई। पर यह सब खबर नहीं है, खबर यह है कि निशिकांत दुबे ने कहा है कि एनआईसी की शर्तों के अनुसार लॉगइन, पासवर्ड किसी से साझा नहीं किये जा सकते हैं।
ऐप्पल (आईफोन) के अलर्ट के बारे में मैं कल लिख चुका हूं। आज हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर खबर है कि संसद की समिति ऐप्पल को अपना पक्ष रखने के लिए कह सकती है। आप जानते हैं कि ऐप्पल के अलर्ट में ही लिखा है कि यह गलत चेतावनी हो सकती है और आपको पहले भी अलर्ट मिला है तो हैकिंग से बचने के लिए अपने सॉफ्टवेयर अद्यतन करा लें। अलर्ट पर विवाद इसलिए हुआ है कि यह विपक्ष के नेताओं को ही मिला है। मीडिया में भी उन लोगों को मिला है जो सरकार विरोधी माने जाते हैं। महुआ मोइत्रा को भी मिला है और उसमें ‘राज्य प्रायोजित’ लिखा है। इसके अलावा यह बहुत सामान्य कारोबारी प्रचार या बिक्री की कोशिश या बेहतर सेवा देने का हिस्सा भी हो सकता है। भले इसके लिए ऐप्पल को परेशान भी किया जा सकता है लेकिन दुनिया भर में इसका क्या संदेश जायेगा उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सरकार कर रही है। मेरा मानना है कि इसमें ‘राज्य प्रायोजित’ सबसे महत्वपूर्ण है और इसका संबंध पेगासस वाले राज्यों से हो सकता है लेकिन पूछताछ में यह मुद्दा होगा कि नहीं स्पष्ट नहीं है। वैसे भी यह राज्य या सरकार का मु्द्दा है, संसद का नहीं।
आज के अखबारों में सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इलेक्ट्रल बांड का मुद्दा भी है और ये सब सवाल भी वैसे ही हैं जैसे मनीष सिसोदिया के मामले में थे। अखबारों ने तब भी इन्हें प्रमुखता से छापा था लेकिन सिसोदिया को जमानत नहीं मिली अब इस मामले में देखना है फैसला क्या होता है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को लीड बनाया है और इसके साथ बताया है कि सरकार ने दान देने वाले की निजता को मतदाता के जानने के अधिकार से ऊपर रखा है और खुद को छूट दे दी है। तकनीकी तौर पर यह ठीक भी लगता है। लेकिन सरकार जब किसी से जबरन वसूली करेगी या किसी को मिले लाभ का हिस्सा पार्टी को चंदे के रूप में लेगी तो दान देने वाले को गोपनीयता की जरूरत है या सरकार अथवा सत्तारूढ़ पार्टी को। बेशक यह व्यवस्था वसूली और मिलीभगत को आसान बनाएगी। कहने की जरूरत नहीं है कि कोई पार्टी किसी सेठ को भरपूर लाभ दिलाकर उससे अपना हिस्सा वसूल सकती है और सारे सौदे को गोपनीय रख सकती है।
इसके मुकाबले अगर दिल्ली सरकार की उत्पाद नीति को रखा जाये तो पैसे लिये नहीं गये हैं या उसका सबूत कम से कम अभी तक नहीं मिला है लेकिन कई निर्वाचित जनप्रतिनिध जेल में हैं। संभव है नीति से बना लाभ इलेक्ट्रल बांड के रूप में आये और इसीलिए बनाया गया हो (जैसे अदानी को लाभ पहुंचाये गये हैं और उससे मिलने वाले इलेक्ट्रल बांड की गोपनीयता सुनिश्चित की जा रही है)। सत्तारूढ़ पार्टी के लिये यह सही और दूसरी पार्टियों के लिए गलत नहीं हो सकता है। वह भी तब जब सत्तारूढ़ पार्टी को पता होगा कि दूसरे दलों को किसने कितना दान दिया है और हमेशा यह कहा जा सकेगा कि फलाने ने फलानी नीति के लिए दिया है। नीति बनाना सरकार का काम है और सही हो या गलत किसी को फायदा किसी को नुकसान होता ही है। ऐसे में सरकारें ऐसे काम करेंगी जो विपक्ष और लोकतंत्र का क्या होगा? अगर यह सब अखबारों-संपादकों को नहीं समझ में आ रहा है तो इसे मिलीभगत क्यों न माना जाये? सवाल यह है कि अखबार सरकारी खबर देगें या जनहित देखेंगे? सरकारी खबर दे रहे हैं तो क्यों। और क्या अखबारों पर विज्ञापनों के बदले ऐसी खबरें छापने का दबाव है? यह सब कौन देखेगा और मुद्दा क्यों नहीं है?