वाराणसी : मेडिकल की भाषा में कहें तो मुर्दा वो है, जिसकी दिल की धड़कनें और सांसें थम जाती हैं, पर मुझे समझ में नहीं आता ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखा जाए, जो सब कुछ जानते-देखते और समझते हुए भी खामोशी का आवरण ओढ़े दूसरों की मजबूरी को तमाशा बना कर रख देते हैं। जो दिखावे के लिए मंदिर में सैकड़ों रुपये पुजारी के हाथों में दान स्वरूप रख देते हैं, पर अपने ही किसी कर्मचारी के गिड़गिड़ाने पर घर पर रखी उसके बेटी की लाश के कफन तक के पैसे देने से इन्कार कर देते हैं, भले ही वो कर्मचारी अपनी मेहनत और हक के पैसे मांग रहा हो। ये कहानी है वरिष्ठ पत्रकार आर. राजीवन की। आर. राजीवन की जुबानी सुनिए उनके शोषण और दुख की कहानी…
‘आज’ अखबार वाराणसी में काम करते हुए मुझे कई झकझोर देने वाले दृश्यों से रूबरू होना पड़ा है। बार-बार ये सोचना और समझना पड़ा है कि लोगों तक देश-दुनिया की घटनाओं, संवेदना-वेदना की खबर पहुंचाने वाले अखबारों के पन्नों के पीछे की जिंदगी का कड़वा सच क्यों इतना बेगाना और अंजाना रह जाता है? ‘आज’ अखबार के मालिक और संपादक शार्दूल विक्रम गुप्त और उनकी हां में हां मिलाने वाले लोग भी पत्रकार और कवि रघुवीर सहाय के शब्दों में कहूं तो चलते-फिरते शवों की श्रेणी में ही आते हैं क्योंकि इन्हें किसी की जरूरतों से कोई लेना-लादना नहीं।
अपनी स्मृतियों को खंगालता हूं, तो बीते कल की कितनी ही बातें ताजा होकर सामने खड़ी दिखती हैं। मैंने ‘आज’ अखबार के वाराणसी स्थित कबीरचौरा कार्यालय में वो दृश्य भी देखा है कि प्रेस के एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की बेटी की मौत होती है, घर पर बेटी का शव छोड़कर अपने बकाये पैसे के लिए कर्मचारी आज कार्यालय आता है। अपने ही हक के पैसे यानि बकाया वेतन के लिए रोता-गिड़गिड़ाता है। यहां तक कहता है कि कफन भर के लिए पैसे तो दे दीजिए, पर जवाब मिलता है, नहीं। बिटिया के शोक में डूबा बाप इससे पहले कुछ कहे, सुनने को मिलता है कि कार्यालय की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। अंत में मैं और अन्य कुछ सहयोगी कार्यालय में चन्दा इकट्ठा कर उस कर्मचारी को सौंपते हैं ताकि वो अपने बेटी का अंतिम संस्कार कर सके।
इसी क्रम में नरेश भी याद आता है। चपरासी के पद पर कार्य करने वाला नरेश एक दिन मालिक शार्दूल विक्रम के केबिन के बाहर स्टूल पर बैठे-बैठे लुढ़क जाता है, सांसें साथ छोड़ जाती हैं, काम करने वाले लोग जुट जाते हैं, नरेश….. नरेश पर कोई जवाब नहीं मिलता। इतने में सुनने को मिलता है कि क्या हुआ, भीड़ क्यों लगा रखी है, भैया जी यानी (शार्दूल विक्रम गुप्त) के आने से पहले हटाओ इसे! दुनिया भर के लोगो की वेदनाओं और संवेदनओं की यात्राओं का साक्षी होने का दंभ भरने वाला अखबार का मालिक-प्रबंधन कितना निष्ठुर और भावहीन हो सकता है, इन घटनाओं से पता चलता है।
जिस आज के संस्थापक शिवप्रसाद गुप्त जैसे दानवीर रहे हो, जिस अखबार ने देश की आजादी के आन्दोलन में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया हो, उन्हीं के वंशज शार्दूल विक्रम गुप्त उन्हीं के अखबार में काम कर रहे एक कर्मचारी की बेटी की मौत पर कफन के चंद रूपये भी देने से मना कर देते हैं। घृणा होती है, ऐसे मालिक और संपादक की मानसिकता पर जो देश-दुनिया की घटनाओं को संवेदना और सच्चाई के साथ छापने का दावा करता है, पर अपने ही कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों की वेदना-संवेदना और जरूरतों को कुछ नहीं समझता।
अब मैं क्या निष्कर्ष निकालूं। खुद आप सोच कर देखिए कि लाश उसे कहा जाए, जिसका जिस्म ठंडा हो जाए, जिसमें कोई हरकत न हो या फिर उसे जो दूसरों की मेहनत और हक का पैसा दबाकर अपने आस-पास ऐसे लोगो का चापलूस तंत्र विकसित कर ले कि हक और सच की आवाज को सुना ही न जाए। सच बोलने वालो को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, फैसला आपके हाथों में है, मैं आगे भी कहता रहूंगा उस सच को, जिसके एवज में शायद कल मेरी हत्या हो जाए या फिर फर्जी मुकदमा। चाहे जो भी हो, आगे भी कहूंगा ऐसे संपादक की कंलक कथा।
आज तो सच्चाई से कागज का घर भी छिन गया
ऐसे-वैसे लोग अखबारों के मालिक हो गए।
((वरिष्ठ पत्रकार आर. राजीवन से उनका दुख-दुर्द खुद जानना-सुनना चाहते हैं या उनकी कोई मदद करना चाहते हैं तो उनसे संपर्क उनके मोबाइल नंबर 07800644067 के माध्यम से कर सकते हैं.))
इस रिपोर्ट के लेखक वाराणसी के युवा और तेजतर्रार पत्रकार भाष्कर गुहा नियोगी हैं जिनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
rakesh kumar
July 13, 2015 at 6:49 am
शार्दूल विक्रम गुप्त ने अपने कर्मचारियों का जो शोषण किया उसके बारे में जितना लिखा जाय कम है और उसका परिणाम वे आज खुद भी भोग रहे हैं लेकिन आर.राजीवन इस दास्तां को बयान करें, यह तो घड़ियाल के अभिनय जैसा है क्योंकि राजीवन खुद उस व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे हैं। योग सिखाने के नाम पर गुप्त परिवार के करीबी बनने वाले राजीवन ने लम्बे समय तक आज के फीचर विभाग में जो गैर पेशेवर और अराजक माहौल बना रखा है, उसके लिए वे खुद भी बराबर के जिम्मेदार हैं। राजीवन ने आज में आने के बाद कितने ही योग्य लोगों को निकलवा दिया और चापलूसों की जमात तैयार की। उसके जैसा घटिया आदमी मिलना मुश्किल है। शार्दूल विक्रम गुप्त की बुराई करना भी उसकी चाल है क्योंकि वह उनकी पत्नी और बेटे के पक्ष में माहौल बना रहा है। गौरतलब है कि आज पर कब्जा जमाने की जो जंग चल रही है उसमें शार्दूल विक्रम गुप्त एक ओर और उनकी पत्नी-बेटे दूसरी ओर हैं। राजीवन शुरू से दूसरे पक्ष में है।
Gopalji
July 13, 2015 at 9:56 pm
दोस्त, ऐसे ही ना जाने कितने ही काले और बदनुमा दाग़ के सायों में कितनी ही लेखनियों की स्याही सूख गई और लेखनी को चलाते-चलाते अँगुलियाँ शिथिल पड़ गईं, ख़बर की खोज करते-करते खुद क़बर बन गए, खुद दफन हो गए लेकिन इन जैसे संपादकों के रंग और लाल होता गया। भी लोग लेखक और लेखनी को कोसते हैं। इन मेहनतकश पत्रकारों के अंदर के दर्द और टीस को कोई नहीं महसूस करता, मरहम तो क्या लगाएंगे। वास्तव में पत्रकारिता आज इन्ही के दम पर ज़िंदा है।
आनंद शर्मा, शिमला।
July 15, 2015 at 2:36 am
देश में पत्रकारिताजगत इस तरह के किस्सों से भरा पड़ा है। परिवार के पालन पोषण की मजबूरी में अधिकांश पत्रकार बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं। देश में दास प्रथा का यह नया रूप है और इस स्थिति में सुधार की निकट भविष्य में कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही। भूखे पेट कोई आंदोलन भी कैसे कर सकता है?