-अनिल सिंह-
- आवेदन पत्र में गलत सूचनाएं दिये जाने के बावजूद दे दी गई नियुक्ति
- जांच के बाद हटाये जाने के आदेश, फिर भी कर रहे हैं नौकरी
- विस सचिवालय में लंबे समय से चल रहा है गलत नियुक्तियों का खेल
- ताकतवर लोगों के रिश्तेदारों को नौकरी देकर साधते हैं प्रमुख सचिव
लखनऊ : बीते एक दशक में विधानसभा सचिवालय में हुई नियुक्तियों की उच्च स्तरीय जांच करा दी जाये तो उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा नियुक्ति घोटाला सामने आ सकता है। विस सचिवालय में ऐसी कोई नियुक्ति नहीं हुई, जो भ्रष्टाचार और गड़बड़ी के आरोपों से परे रही हो। बसपा और सपा के शासनकाल में नियुक्तियों में इस कदर धांधली की गई कि शैक्षिक एवं उम्र की अर्हता नहीं रखने वालों का चयन कर उन्हें नियुक्ति दे दी गई। जब शिकायत हुई तो जांच में इन लोगों को दोषी भी पाया गया, और उन्हें रिमूव करने का आदेश जारी हुआ, लेकिन वे आज भी विधानसभा में अपनी सेवा दे रहे हैं।
इतना ही नहीं, इन लोगों ने अपने आवेदन पत्र में कई गलत जानकारियां भी दीं। गलत सूचनाएं भरी, लेकिन नियुक्ति देते तक इनकी एक भी गलती पकड़ी नहीं गई। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इन लोगों को नियुक्ति देने से पहले इनके अंक पत्रों, प्रमाण पत्रों, शैक्षिक योग्यता एवं उम्र की जांच नहीं कराई गई? या सब कुछ जानते हुए यह खेल किया गया? दरअसल, प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे के कार्यकाल में हुई ज्यातदार नियुक्तियों पर सवाल उठा, लेकिन अपनी पहुंच और पकड़ से वह हर बार मामले को दबाने में सफल रहे। इस सरकार में भी वह अजेय बने हुए हैं।
जानकारी के अनुसार वर्ष 2006 में सहायक समीक्षा अधिकारी के पद के लिये भर्तियां निकली थीं। इस पद के लिये न्यूनतम उम्र 21 साल एवं अधिकतम 40 साल थी। नीरज अवस्थी, जिनकी उम्र एक जुलाई 2006 को 18 साल थी, ने भी इस पद के लिये आवेदन किया। उन्होंने आवेदन पत्र पर गलत तरीके से अपनी उम्र 29 साल 3 माह 17 दिन बताई। आवेदन करने के अंतिम दिन तक उनके पास निर्धारित शैक्षिक योग्यता नहीं थी, लेकिन नीरज से गलत तरीके से सारी जानकारियां छुपाकर फार्म भरा। उन्होंने आवेदन पर तारीख भी नहीं लिखा ताकि खेल की गुंजाइश बनी रहे।
आश्चर्यजनक तरीके से उम्र और अर्हता नहीं रखने के बावजूद नीरज अवस्थी का चयन सहायक समीक्षा अधिकारी के पद पर कर लिया गया। सरकारी नौकरी में प्रोवेशन पीरियड के दौरान शिक्षा अभिलेखों की जांच और सूचनाओं का मिलान किया जाता है ताकि गलत सूचना पकड़ी जा सके, लेकिन नीरज के मामले में विधानसभा सचिवालय धृतराष्ट्र बन गया। यह जानबूझकर किया गया या अनजाने में यह तो जांच का विषय है, लेकिन फर्जी तरीके से आवेदन करने वाले नीरज को 25 फरवरी 2009 को नियुक्ति दे दी गई और 2 मार्च 2009 को उन्होंने कार्यभार भी ग्रहण कर लिया।
दूसरा मामला भी सहायक समीक्षा अधिकारी कम्प्यूटर से जुड़ा हुआ है। बांदा के रहने देवेंद्र सिंह का है। देवेंद्र सिंह भी नीरज अवस्थी की तरह आवेदन के समय उम्र एवं निर्धारित शैक्षिक अर्हता पूर्ण नहीं करते थे, लेकिन उसी तरह सब गलत सूचनाओं एवं निर्धारित अर्हता की अनदेखी करते हुए उनकी नियुक्ति कर दी गई। 25 फरवरी 2009 को नियुक्ति पत्र जारी हुआ और 4 मार्च 2009 को देवेंद्र सिंह ने कार्यभार ग्रहण कर लिया। इस मामले का भी खुलासा नहीं हुआ होता, अगर अपनी जांच से बौखलाये नीरज अवस्थी ने जांच अधिकारी से देवेंद्र की लिखित शिकायत नहीं की होती।
नीरज अवस्थी ने 12 अगस्त 2013 को जांच अधिकारी को पत्र भेजकर आरोप लगाया कि देवेंद्र सिंह भी नियुक्ति के समय न्यूनतम आयु सीमा धारित नहीं करते थे। दरअसल, यह दोनों मामले खुलते भी नहीं अगर नरेंद्र प्रताप सिंह चौहान ने नीरज अवस्थी की नियुक्ति में धांधली किये जाने का आरोप लगाकर राज्यपाल को शिकायती पत्र ना भेजा होता। श्री चौहान ने 19 दिसंबर 2011 को अपना शिकायती पत्र राज्यपाल समेत कई लोगों को भेजा। इस मामले को पहले दबाने का प्रयास किया गया, लेकिन लगातार शिकायत के बाद 7 मई 2012 को जांच का आदेश देते हुए जांच अधिकारी की नियुक्ति की गई।
इस मामले को दबाने के लिये कई जांच अधिकारी बदले गये, लेकिन यह इतना खुला हुआ भ्रष्टाचार था कि बचाव संभव नहीं था। आखिरकार जांच अधिकारी ने 31 दिसबंर 2013 को अपनी जांच आख्या दी। जांच आख्या में नीरज अवस्थी को आवेदन पत्र निर्धारित प्रारुप ना भेजने, आयु गलत लिखने, आवेदन पत्र पर तिथि अंकित ना करने, आवेदन पत्र में सेकेण्डरी स्कूल परीक्षा 2002 एवं सीनियर स्कूल सर्टिफिकेट 2004 की परीक्षाओं की उत्तीर्ण श्रेणी गलत अंकित किये जाने, आवेदन पत्र प्राप्त होने की अंतिम तिथि को पद हेतु निर्धारित क्षैक्षिक योग्यता ना रखने, आवेदन पत्र के प्राप्ति हेतु निर्धारित अंतिम तिथि के बाद निर्गत अभिलेखों को आवेदन पत्र के साथ संलग्न करने तथा गलत घोषणा करने का दोषी पाया गया।
इसी तरह देवेंद्र सिंह मामले में भी जांच अधिकारी ने 13 अक्टूबर 2014 को अपनी जांच आख्या दी। जांच में देवेंद्र सिंह को 1 जुलाई 2006 को आगणित आयु आवेदन पत्र में गलत अंकित किये जाने, निर्धारित टंकण गति (हिंदी में) धारित ना करने, आवेदन पत्र पर तिथि अंकित ना करने, आवेदन पत्र प्राप्त होने की अंतिम तिथि को पद हेतु निर्धारित कम्प्यूटर पर कार्य करने का न्यूनतम एक वर्ष का अनुभव धारण न रखने, आवेदन पत्र के प्राप्ति हेतु निर्धारित अंतिम तिथि के बाद निर्गत अभिलेखों को आवेदन पत्र के साथ संलग्न करने तथा गलत घोषणा करने का दोषी पाया गया। बड़ा सवाल यह था कि टंकण गति नहीं होने के बावजूद देवेंद्र इस परीक्षा में पास कैसे कर दिये गये?
उक्त दोनों मामलों में भ्रष्टाचार, कदाचार एवं असत्य बोलने के दोषी पाये गये नीरज अवस्थी तथा देवेंद्र सिंह को प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने 16 जून 2017 को जारी वैभागिक आदेश में दोषी पाया तथा आदेश जारी किया कि उक्त दोनों प्रकरणों में नीरज एवं देवेंद्र सिद्ध आरोपों के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली 1999 के नियम -3 के अंतर्गत दोषी पाया गया है, लिहाजा उक्त नियमावली के नियम -3 में वर्णित दीर्घ शास्तियों के खंड – तीन के प्रावधान के अनुसार सेवा से तत्काल प्रभाव से हटाया (Remove) जाता है, जो भविष्य में नियोजन से निरर्हित नहीं करेगा।
सेवा से हटाये जाने के इस प्रकरण में भी खेल किया गया। प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने इस दौरान उनसे शासकीय धन वसूली का कोई आदेश जारी नहीं किया, जबकि ऐसे मामलों में सरकारी धन की वसूली किये जाने का प्रावधान होता है। जाहिर है, कि इन दोनों लोगों की नियुक्ति में बिना उच्च स्तर पर मिलीभगत के कतई संभव नहीं था। यदि उच्च स्तर से मिलीभगत नहीं होती तो एक बार आवदेन जमा किये जाने के उपरांत बाद में मिली डिग्री के अभिलेखों को संलग्न किया जाना संभव नहीं था। विभागीय सूत्र बताते हैं कि इस आदेश के बाद भी उपरोक्त दोनों आरोपी कर्मचारी अभी भी विधानसभा सचिवालय में कार्यरत हैं।
दरअसल, विधानसभा सचिवालय में होने वाली नियुक्तियों में भ्रष्टाचार की शिकायत होने के बावजूद जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई तो इसका एकमात्र कारण है कि प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे तीनों प्रमुख दलों के नेताओं के रिश्तेदारों, अधिकारियों के रिश्तेदारों तथा सिस्टम के ताकतवर लोगों के परिजनों को विधानसभा सचिवालय में नौकरी दे रखी है। पहले ही सुखदेव राजभर के दामाद, माता प्रसाद पांडेय के रिश्तेदारों के बाद नई सरकार में कई नेताओं के नजदीकियों को आर्थिक लाभ देकर साध रखा है।
सीएम योगी आदित्यनाथ के एक ओएसडी के पुत्र को भी संविदा पर लगा रखा है, जिसे पर्मानेंट किया जाना है। बताया जा रहा है कि इस ओएसडी के प्रभाव से ही विधानसभा सचिवालय में हुए भ्रष्टाचार, नियुक्ति में गड़बड़ी, आर्थिक कदाचार समेत तमाम शिकायतें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की टेबल तक नहीं पहुंच पा रही हैं। शिकायतें सीएम तक नहीं पहुंच पाने के चलते ही विधानसभा सचिवालय में पिछले एक दशक से चल रहे भ्रष्टाचार एवं नियुक्तियों में गड़बड़ी पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हो पाई है। शिकायत करने वाले इस सरकार में भी निराश और परेशान हो रहे हैं। (जारी..)
इसके पहले की कहानी पढ़ें-
विधानसभा (एक) : योगी भी नहीं हिला सकते रिटायर प्रमुख सचिव की कुर्सी!
इसके बाद की कहानी पढ़ें-
विधानसभा (तीन) : प्रदीप दुबे ने खुद पर लगे आरोपों की खुद की जांच, और हो गये बरी
लखनऊ से अनिल सिंह की रिपोर्ट.