मुकुंद हरि-
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ की पत्नी डॉ पद्मावती दुआ उर्फ़ चिन्ना दुआ का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में शुक्रवार रात करीब 10:30 को निधन हुआ। वे लगभग 56 वर्ष की थीं।
वे कुछ हफ्ते पहले श्री विनोद दुआ को हुए कोविड इंफेक्शन के बाद स्वयं भी कोविड से संक्रमित होने के कारण अस्पताल में भर्ती हुई थीं। कोविड निमोनिया से उनके फेफड़े अत्यधिक क्षतिग्रस्त हो गए थे।
कोविड निगेटिव होने के बावजूद सेकेंडरी इंफेक्शन से दुबारा निमोनिया होने से स्थिति और बिगड़ गयी थी। स्ट्रोक आने के कारण उनके दिमाग में खून के थक्के जम जाने से उनकी स्थिति अत्यधिक गंभीर हो चुकी थी। उन्हें बचाया नहीं जा सका।
उधर, विनोद दुआ कोविड से ठीक होने के बाद हुए फंगल इंफेक्शन के कारण दुबारा अस्पताल में भर्ती हैं। उनकी छोटी बेटी मल्लिका कोविड से ठीक होकर अपने पिता की सहायिका के रूप में अस्पताल में उनकी देखरेख में लगी हुई हैं।
विनोद-चिन्ना को गाते हुए सुनें देखें, इस लिंक पर क्लिक करें- https://www.facebook.com/100023309529257/posts/945107319609577/?d=n
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी की ये पोस्ट पढ़ें-
उन्हें रेडियोलॉजिस्ट डॉ पद्मावती के रूप में हमने कभी नहीं जाना। परिजनों के बीच वे सदा चिन्ना थीं। उनका जाना मित्र विनोद दुआ को अधूरा कर गया है। लेकिन दुआ परिवार का दायरा बहुत बड़ा है। हम भी उनमें अपने को शरीक़ मानते हैं। चिन्ना भाभी चली गईं, हमारी दुनिया भी छोटी हो गई है।
विनोद दुआ — जिन्हें मैं हिंदी टीवी पत्रकारिता का आदिपुरुष कहता हूँ — और चिन्नाजी कई दिनों से मेदांता अस्पताल में चिकित्साधीन थे। कुछ रोज़ पहले विनोदजी ने फ़ेसबुक पर लिखा कि चिन्ना की दशा नाज़ुक है। बाद में उन्होंने बताया कि वे बेहतर हैं। दरअसल विनोद वार्ड में हैं, चिन्ना आइसीयू में रोगशैय्या पर थीं। बाहर जानकारी छनकर ही आया करती है। अफ़सोस इसका भी कि जीवट भरा एक लम्बा संघर्ष सफल न हो सका।
विनोद दुआ से मेरी दोस्ती कोई तीस साल पहले हुई। वे और मशहूर पियानोवादक ब्रायन साइलस चंडीगढ़ आए थे। मित्रवर अशोक लवासा — पूर्व निर्वाचन आयुक्त — के घर जलसा था। विनोद अशोकजी के सहपाठी रहे हैं। हमें नहीं मालूम था कि विनोद गाते भी हैं। हम खाना खाकर निकलने लगे तो विनोदजी ने बड़ी आत्मीयता से रास्ता रोकते हुए, मगर तंज में, कहा कि हम सीधे दिल्ली से चले आ रहे हैं और आप महफ़िल को इस तरह छोड़कर निकल रहे हैं। और उस रोज़ की दोस्ती हमारे घरों में दाख़िल हो गई।
दिल्ली में बसने पर चिन्ना भाभी को क़रीब से जाना। उनमें विनोदजी वाली चंचलता और शरारत ज़रा नहीं थी। कम बोलती थीं, पर आत्मीय ऊष्मा और मुस्कुराहट बिखेरने में सदा उदार थीं। दक्षिण से आती थीं, मगर हिंदी गीत यों गातीं मानो इधर की ही हों। दोनों किसी न किसी दोस्ताना महफ़िल में गाने के लिए उकसा दिए जाते थे। तब लगता था दोनों एक-दूसरे के लिए अवतरित हुए होंगे। दिल्ली में विनोदजी से कमोबेश रोज़ मिलना होता था। कई दफ़ा तो दो बार; पहले टीवी स्टूडियो में, फिर आइआइसी में। लेकिन घर की बैठकें भी बहुत हुईं। चिन्ना भाभी के दक्षिण के तेवर जब-तब भोजन में हमें तभी देखने को मिले।
दस साल पहले जब हमारे बेटे मिहिर और ऋचा का जयपुर में विवाह हुआ, दुआ दम्पती घर के सदस्यों की तरह खड़े रहे। इतना ही नहीं, लंगा मंडली के गायन के अंतराल में विनोदजी और चिन्ना भाभी ने गीत गाए। सिर्फ़ राजस्थानी ढोल और करताळ की ताल पर, क्योंकि वही संगत उपलब्ध थी! (राजेंद्र बोड़ा जी ने दो गाने ‘इशारों इशारों में दिल लेने वाले’ और ‘उड़ें जब-जब ज़ुल्फ़ें तेरी’ मोबाइल पर रेकार्ड कर लिए थे जो उसी रात यूट्यूब पर साझा भी किए; वहाँ अभी भी सुने जा सकते हैं)। प्रेमलताजी को रात को इस निधन की सूचना देने को मन नहीं हुआ।
अभी मार्च के महीने में चिन्ना भाभी और विनोदजी नाना-नानी बनी थीं। दोहिते से खेलने-खिलाने के दिन थे। ऐसी घड़ी में यह विदाई और भी दुखी कर गई है। दोनों बेटियों बकुल और मल्लिका का माँ से इतना जुड़ाव था कि समझना मुश्किल है वे काल का यह निर्दय प्रहार कैसे झेल पाएँगी।
विनोदजी और परिवार को सांत्वना देने को शब्द नहीं हैं। चिन्ना भाभी को आदर के साथ हमारा स्मृतिनमन।
रवीश कुमार का लिखा पढ़ें-
चिन्ना दुआ याद आ रही हैं। मैंने एक स्पेशल शो बनाया था। विनोद दुआ एंकरिंग कर रहे थे। आख़िरी पंक्ति में उन्हीं पर तंज था। व्यक्तिगत नहीं लेकिन दौर के बदलने से व्यक्ति की स्थिति कैसे बदल जाती है, उस पर था। अचानक आई उस पंक्ति को सुन कर विनोद दुआ को भी समझ नहीं आया कि कैसे हैंडल करें लेकिन एंकरिंग के माहिर उस्ताद ने अपना बल्ला सँभाल लिया। विनोद ने लाइव तारीफ़ कर दी कभी उसका बुरा नहीं माना और न कहा। न मैंने उसे लेकर बात की।
उस रोज़ एक फ़ोन आया। चूँकि मैंने उस शो में बहुत सारे नियम तोड़ दिए थे तो घबराहट भी थी कि पता नहीं किसका फ़ोन आ जाए। ऑन एयर से पहले न किसी को दिखाया था और न बताया था। एक स्पेशल शो बनना था। स्पेशल शो के लिए बैठके होती थीं।थीम से मैं सहमत नहीं था। संपादक का ख़ौफ़ किसे नहीं होता है। तो मैंने एक रास्ता निकाला। कहा कि शो को लेकर विनोद दुआ के संपर्क में हूँ। विनोद दुआ को भी नहीं बताया कि कैसे बना रहा हूँ। एक दिन सुबह छह बजे के क़रीब दफ़्तर पहुँचा और कोई दस बीस मिनट में कुछ टाइप कर दिया। साथ में वंदना चोपड़ा बैठी थीं। हमने कहा देखिए तो। वो ख़ुश हो गई और प्रिंट आउट लेकर घर ले गईं। शायद उनके पिताजी ने पढ़ा और ख़ूब तारीफ़ की। समस्या फिर भी थी कि मीटिंग की ब्रीफ़ से 360 डिग्री उल्टा शो है। वापस जाकर किसी को बताने की हिम्मत नहीं हुई। करें तो करें क्या करें।
तो तय किया कि अपने करियर का आख़िरी शो बनाता हूँ !
बना दिया। मेरे जैसे कमजोर दिल के इंसान के लिए बहुत बड़ा दांव था। पर कहानी की माँग कलाकार की हैसियत नहीं देखती है। कहानी हर चीज़ से बड़ी होती है। उस दिन जाना था हिम्मत आने से पहले बहुत घबराहट होती है और उसके बाद भी।
तो फ़ोन की घंटी बज रही थी। नंबर अनजान। तब दफ़्तर के सभी लोगों का नंबर सेव करने का चलन भी नहीं होता था।
लिहाज़ा फ़ोन उठाने में झिझक हो रही थी। उठा लिया। मैं
चिन्ना बोल रही हूँ। विनोद दुआ का हवाला दिया। फिर तारीफ़ करते हुए कहा कि विनोद के काम पर तंज करने का साहस कम लोगों में है। वो भी ऑन एयर। यह बड़ी बात है। मैंने भी कभी इस तरह से नहीं सोचा था। इस हिम्मत को बचा कर रखना। आगे जाओगे। इसके लिए बधाई देना चाहती हूँ। तुम्हारा शो क्लास का था। लैंडमार्क है। मेरी जान में जान लौट आई । नया नया था। जोखिम उठाना आज़मा रहा था।
मैं आपको उस दिन की आवाज़ से ही जानता हूँ। अलविदा।