Om Thanvi : राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पूर्णपीठ ने तय किया है कि न्यायाधीशों को लॉर्ड या लॉर्डशिप कहकर सम्बोधित न किया जाय। सर (महोदय) की सम्मान-अभिव्यक्ति काफ़ी है। माननीय न्यायाधीशों ने क़ानून की दुनिया में दूरी पाटने की ओर बड़ा क़दम उठाया है।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब दा ने “हिज़ एक्सिलेंसी / महामहिम” के प्रयोग को प्रोटोकॉल से हटा दिया था। हालाँकि बग्घी, घुड़सवार अंगरक्षकों आदि का प्रयोग समारोहों में रहा। अपनी तारीफ़ न समझें तो बताऊँ कि जनसत्ता में मुझे अक्सर हर पत्र / नोट / आवेदन आदि में “सम्पादकजी” सम्बोधित किया जाता था। मेरी नज़र में यह सम्बोधन दूरी बढ़ाता था। मैंने लिखकर नोटिसबोर्ड पर लगाया कि कृपया यह परिपाटी बंद करें। नाम से पुकारें, थानवीजी भी चलेगा। हालाँकि इसमें पूर्ण सफलता शायद नहीं मिली; कुछ साथी डेस्क की आपसी बातचीत में आदत से विवश थे।
ऐसे ही, कुलपति होने पर विश्वविद्यालय के पत्राचार आदि में Hon’ble पढ़ा तो यहाँ भी साथियों से जनसत्ता वाला आग्रह निवेदित किया। हमें स्वीकार हो तो दूसरे लोग भारी विशेषण प्रयोग करेंगे (जब-तब मैं भी करता हूँ)। रिवायत तोड़ने को पहल हमें ही करनी होती है। यानी सम्बोधित को।
कुछ रिवायतें हम बग़ैर विचारे ढोते चले जाते हैं। दफ़्तरों में कुरसी पर सफ़ेद तौलिया क्यों लदा रहता है? दफ़्तर में टीवी का क्या काम; आज के दौर में क्या हम मोबाइल से अपडेट नहीं रह सकते? कामकाज वाले कमरे में जहाँ एक छोटा कमरा उपलब्ध हो वहाँ तख़्त क्यों ढाल कर रखा जाता है? दफ़्तर काम करने जाते हैं, या सोने? सुनते हैं, यह अंगरेज़ों की सौग़ात है। दोपहर थोड़ा आराम फ़रमा लेते थे। पर कितने अंगरेज़?
वरिष्ठ पत्रकार और कुलपति ओम थानवी की एफबी वॉल से.