उत्तर प्रदेश के मख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी इन दिनों ताबड़तोड़ तरीके से विज्ञापनबाजी कर जनता को लुभाने में जुटे हैं. ‘फर्क तो साफ है’ सीरिज विज्ञापनों में एक विज्ञापन महिलाओं को परेशान करने वालों से सख्ती से निपटने से संबंधित है. इस विज्ञापन के जरिए बताया गया है कि योगी से पहले यूपी में महिलाओं के साथ खुलेआम छेड़खानी की जाती थी लेकिन योगी राज में पुलिस की सख्ती से छेड़खानी करने वाले, रेपिस्ट टाइप लोग डर कर शांत हो गए हैं या जेल भेज दिए गए हैं.
इस विज्ञापन को देश भर के अखबारों में छपवाया जा रहा है. लखनऊ से लेकर दिल्ली तक में होर्डिंग्स लगाए गए हैं. जनता का अरबों रुपये योगी का चेहरा चमकाने पर फूंका किया जा रहा है. उधर जनता है कि पुलिस थाने में एक अदद एफआईआर लिखाने के लिए नाक रगड़ रही है और कोर्ट का सहारा लेना पड़ रहा है.
योगी सरकार के महिला सुरक्षा से संबंधित विज्ञापन उनको तो अच्छा लग रहा है जो यूपी से दूर हैं और जमीनी स्थिति से अनजान हैं. पर जो उत्पीड़न टार्चर झेल रहा है, उसे सच्चाई बहुत अच्छे से पता है. यूपी में इस वक्त जनता अगर सबसे ज्यादा परेशान किसी से है तो वह खुद पुलिस विभाग है. जेनुइन शिकायतों को न तो सुना जाता है और न कंप्लेन दर्ज किया जा रहा है. सत्ताधारी पार्टी से जुड़े गुंडों और ताकतवरों को पुलिस पूरा संरक्षण दे रही है.
इसी कड़ी में खबर गोरखपुर से है जिसे सीएम सिटी भी कहा जाता है. यहां एक रेपिस्ट खुलेआम घूम रहा है. पुलिस वाले जान बूझ कर उसे गिरफ्तार नहीं कर रहे हैं. बताया जाता है कि इस रेपिस्ट पर किसी खास आदमी का विशेष हाथ है इसलिए पुलिस अपना हाथ डालने से डर रही है.
आरोपी रेपिस्ट का नाम विकास सिन्हा है जो एक अस्पताल का संचालक है. उसके खिलाफ रेप/छेड़छाड़ के दो मामले पहले से हैं. तीसरा मामला ताजा ताजा है जो कोर्ट के आदेश पर पुलिस ने दर्ज किया है. सोचिए, महिला सुरक्षा की बात करने वाली योगी सरकार के राज में रेप की शिकार एक महिला को थाने में एफआईआर दर्ज कराने के लिए कोर्ट का सहारा लेना पड़ रहा है.
पढ़ें कंप्लेन की कॉपी….
पूरा प्रकरण समझने के लिए इसे भी पढ़ें-
योगी के जिले में एक बलात्कारी हैट्रिक लगा चुका है और पुलिस चिलम मारकर बैठी है!
कुछ प्रतिक्रियाएं-
Rajesh Yadav
मुंबई के अखबारों में पूरे फ्रंट पेज पर योगी सरकार के विज्ञापन छप रहे हैं। दिल्ली मेट्रो में स्क्रीन चल रही है।
Gajendra Singh
योगी जी को पता है उनके वोटर दिल्ली और मुम्बई में भी रहते हैं और काफी तादाद में रहते हैं उनके वोट को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
मनोज रैदास कबीर
दिल्ली में यूपी वालों की संख्या बहुत है और उन्हें वोट डालने जाना ही है। इसी तरह से मुम्बई और गुजरात के सूरत जैसे शहरों में ये संख्या काफी बड़ी है। इसे आप माइक्रो मैनेजमेंट भी कह सकते हैं।
Qamar Ali Misbahi
मैंने भी देखी है हुड्डासीटी सेंटर से चलने बाली मेट्रो पूरी तरह से योगी जी के परचार से पुती हुई होती है।
Dr. Rakesh Pathak
अमरीका के अख़बार में भी विज्ञापन छप चुके हैं जोगी जी के।
Hamid Ali Khan
यह तो छोडि़ए, दिल्ली के अखबारों में महीनों से पूरे पृष्ठ के विज्ञापन छप रहे हैं। सुना है कि कई महीने पहले अतिरिक्त विज्ञापन के लिए 500 करोड़ रुपये का प्राविधान किया गया था। आखिर विज्ञापन पर इतना पैसा बहाने की क्या ज़रूरत थी? यह तो अखबारों के मालिकान की जेब में गया जो पहले ही काफी मालदार हैं। इन विज्ञापनों से जनता का क्या फायदा होने वाला है।
Neeraj Singh
वर्तमान सत्ता पूरे अट्ठहास के साथ मुनादी पीट रहा है। “बर्बादियों का जश्न मनाना फ़िजूल था, बर्बादियों का जश्न मैं मानता चला गया”। मूर्ख जनता सिर्फ गाने का आनंद ले रही है, और यह बात संघियों को पता है कि उनके साथ जनता संगीत का आनंद ले रही है।
Kavindra Tewari
जगह जगह होर्डिंग्स,बैनर लगाकर भाजपा अपनी हवा बनाने के प्रयास में है,इसी कार्य पर करोड़ों रुपए बहाया जा रहा है,सरकारी पैसे की इतनी बरबादी जनता को भी नहीं दिखती है ,वह भी चमक दमक से झांसे में आ जाती है।
Sanjay Singh Jaunpur
अगर आप टीवी खोलते हैं तुरंत आंखों के सामने या तो पंजाब की चन्नी साहब होते हैं या छत्तीसगढ़ के धर्म सांसद मुख्यमंत्री या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल. यह कुछ दिनों से नहीं शुरू हुआ है सालों से मैं देख रहा हूं. पंजाब और उत्तर प्रदेश में तो चुनाव है लेकिन छत्तीसगढ़ और दिल्ली की कोई भी व्याख्या कोई भी आदमी समझा दे.
Mintu Kumar Yadav
सिर्फ लूट खसोट दमदार है जुमला महाराज
Mohd Saleem
Aakhir apni marketing jo krni hai..aour satta hai to pure khjane ko mnmane tareeke se kharch krne ka jo adhikar mil jata hai..
ऐसे विज्ञापन का क्या मतलब?
Sanjaya Kumar Singh
कोई निर्वाचित सरकार ज्यादातर राज्य के बाहर प्रसारित होने वाले किसी अखबार में पहले पन्ने पर आधे पन्ने का ऐसा विज्ञापन छपवाए और वह भी चुनाव की घोषणा से पहले तो यह उसकी हताशा के अलावा और कुछ नहीं है। पर यहां मुद्दा यह है कि ऐसा दावा करने का आधार क्या है? आप सरकार में हैं तो कुछ भी दावा करेंगे या कोई आधार होगा? वैसे तो आरोप यह भी है कि इस विज्ञापन के जरिए धर्म विशेष के व्यक्ति को दंगाई बताने की कोशिश की गई है और मुझे लगता है कि बिना आधार वाले इस विज्ञापन का मकसद यही है। वरना यह कोई दावा नहीं है कि कोई बहुमत वाली निर्वाचित सरकार करे।
उत्तर प्रदेश में काम कर चुके रिटायर पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय की पुस्तक सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस की भूमिका में कहा है, …. दंगों से जूझने वाले पुलिसकर्मी लड़ने वाले समुदायों में से किसी एक के सदस्य होते हैं। बिना किसी पक्षपात के शुद्ध पेशेवराना तरीके से सांप्रदायिक दंगों को कुचलना और संघर्षरत दोनों समुदायों का विश्वास अर्जित करना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती होता है।
ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार के इस विज्ञापन में यह दावा किसका है? उस मुख्यमंत्री का जिसने अपने खिलाफ मुकदमे वापस ले लिए? जिसकी सरकार ने अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले एक आईपीएस अधिकारी को नौकरी से निकाल दिया, जेल में डाल दिया। क्या मतलब है ऐसे दावे का? कहने की जरूरत नहीं है कि दंगे तभी होंगे जब एक पक्ष दूसरे को मुकाबले का समझेगा वरना मारा जाएगा। अभी होता यही है कि जो मारा जाता है वही मुकदमे में फंसाया जाता है। भले ही बाद में बरी हो जाए। उसके बाद भी यह शर्मनाक दावा।
यह दिलचस्प है कि विभूति नारायण राय की उपरोक्त पुस्तक की चर्चा करते हुए सिब्बल चटर्जी ने आउटलुक में लिखा था और यह पुस्तक के कवर पर है कि, गृहमंत्रालय और पुलिस ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट तथा अपने सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों के विस्तृत विश्लेषण पर आधारित यह शोध बताता है कि प्रत्येक दंगे के 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम होते हैं और जो लोग गिरफ्तार किए जाते हैं उनमें भी लगभग 90 प्रतिशत अल्पसंख्यक ही होते हैं। श्री राय के अनुसार, यह तर्क विरुद्ध है। अगर 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम हैं तो होना यह चाहिए कि गिरफ्तार लोगों में 70 प्रतिशत हिन्दू हों। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार के पैसे से दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार में दंगों का (नहीं दंगाइयों का) खौफ खत्म होने और माफी मांगने का दावा किया जाए तो दिल्ली के दंगों की चर्चा कर लेना भी लाजमी रहेगा। आपको याद होगा, दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले दिल्ली में भी दंगे हुए थे। उत्तर प्रदेश में जो हुआ था उसकी चर्चा जान बूझकर नहीं की है ताकि जो हो रहा है उसकी चर्चा ज्यादा की जाए।
दिल्ली दंगों का सच पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित पुस्तक है। यह दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की जांच रिपोर्ट का हिन्दी अनुवाद है ताकि आम लोग पुलिस द्वारा प्रायोजित खबरों के दूसरे पहलू को भी जान सकें। अनुवाद स्थापित अनुवादकों का है। इसमें कहा गया है, पुलिस का इतना सांप्रदायिक, एकपक्षीय और झूठा स्वरूप कभी नहीं देखने को मिला – स्पेशल सेल में पूछताछ के लिए बुलाए जा रहे अधिकांश लोग यह कहते पाए गए कि लगता ही नहीं है कि कोई पुलिस वाला सवाल जवाब कर रहा है – लगता है कि कोई दंगाई खुद को बेगुनाह साबित करने को आरोप लगा रहा है। अभी तक की जांच में पुलिस स्थापित कर रही थी कि दिल्ली में नागरिकता कानून के किलाफ 100 दिन से चल रहे धरनों में ही दंगों की कहानी रची गई।
वैसे भी नागरिकों की जान दंगों में जाए या महामारी में या इलाज के अभाव में – फर्क क्या पड़ता है। हरेक के पीछे सरकारी लापरवाही ही है। दंगे रोकने का दावा करने का क्या मतलब है जब लाखों लोग महामारी में मर चुके हैं। और उसे छिपाने के लिए श्मशान की दीवार ऊंची करानी पड़ी थी। अपराध की खबर न छपे इसके लिए पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है तो ऐसे विज्ञापनों से चुनाव भले जीत लिया जाए यह कितना अनैतिक है यह कौन बताएगा? कहने की जरूरत नहीं है कि दंगे रोकने और अगर हो जाएं तो निष्पक्ष कार्रवाई की जाए उस दिशा में कुछ किया गया होता तो उसे बताना लाजमी था। पर यह दावा तो निराधार है।
फोटो ध्यान से देखिए और समझने की कोशिश कीजिए… दंगाई जिन कपड़ों में “वांटेड” (पीछे) था उन्हीं कपड़ों में मिल गया? या कुछ और खेल है? 2017 से पहले सब ‘काला’ था बाद में बहुत कुछ ‘भगवा’ हो गया है।
Prashant
January 4, 2022 at 12:06 pm
Aaj ka samay marketing our advertisement ka hai. jiski marketing kasi huyee our asardar huyee uska product bikne ka % jayada hota hai.
Magar ye election hai. election 5 saal ke liye ek aisi sarkar chunane ka jo janata our state ka vikas kare.
Partiyan to vigyapan karenge hi. Magar ye hame (janata) ko samajhna hoga ki ham is marketing ke jaal me fanse ya fir vastavikta ke aadhar par vote daale, Bhale trishanku sarkar bane.
Halaki ye baate har koi ek dusare ko roj bolta hai, magar kabhi to janata ko akal lagana hoga ki is mandir masjid se hamara vikas hoga ya education our employement se. Hamre liye mandir masjid jaruri hai ya industries.
ye bhi yaad rakhen mandir masjid ke naam par kharch hone wala paisa aasman se nahi aa raha balki ye hamari aapki mehanat ki kamayee par diye gaye TAX ka paisa.
Baaki jiski jasi soch.