सारी कारस्तानी देख रहा है विजयी विश्व तिरंगा प्यारा….
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा सब देख रहा है कि मजीठिया वेतनमान मार कर खुशी के गीत गा रहे मीडिया के मसखरे किस तरह आजादी मिलने के दिन को विज्ञापनों के टकसाल में ढालने पर आमादा हैं, झंडोत्तोलन पर सरगना सलामी ले रहा है और भ्रष्टाचार की वैतरिणियों में तैर रहे अपराधियों के गिरोह तालियां बजा रहे हैं, दुःशासनों के झुंड स्त्री-विमर्श और दलित चेतना की वकालत में व्यस्त हैं, चप्पलों पर तिरंगा छाप रहे हैं, उसे उल्टा लटका रहे हैं।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा सब देख रहा है कि लोकतंत्र की आत्मा किस तरह झकझोरी जा रही है। जात-पांत के मदारी, मजहबों के ठेकेदार, विश्व-विमर्श में तल्लीन अमीरों के पैरोकार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लुटेरे किस तरह उसकी अस्मिता से खेल रहे हैं, मालदारों के रखवाले कितनी शिद्दत से कदम से कदम मिलाते हुए स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की कुर्बानियां लज्जित कर रहे हैं।
विजय विश्व तिरंगा प्यारा सब देख रहा है कि हवाला के हरकारे, स्विस बैंक में जमा धन पर चुप्पी साधे मौसेरे भाई, एक तरफ दाने दाने को मोहताज करोड़ों लोग, रोजी-रोजगार खोजते लाखों युवा और दूसरी तरफ घाटों, मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों पर हाथ फैलाए भिखारियों का बढ़ता हुजूम, आत्महत्या करते किसान, छंटनी के शिकार श्रमजीवी, तीसरी तरफ दान-पेटियों के भरोसे जटा-जूट बढ़ाकर पेट फुलाए डोल रहे हजारों निठल्ले और खादी पहन कर राजकोष पर डकैतियां डालते परजीवियों के क्या खूब ठाट हैं।
विजय विश्व तिरंगा प्यारा सब देख रहा है कि तोंदियल पुलिस वाले पत्रकारों को जिंदा जला रहे हैं, ट्रैफिक से गुजर खास के आगे खीसें निपोर रहे हैं और आम लोगों को लूट रहे हैं, नाना प्रकार के सुर-ताल, शब्दों में गूंजते, नकाबपोषित जयहिंद के महापुरुष राष्ट्रभक्ति के प्रहसन में अहा-अहा हो रहे हैं, जंतर-मंतर किस तरह हांफ रहा है और गंदी सियासत के जादूगर बगल के पंचहाल में ठहाके लगा रहे हैं।
विजय विश्व तिरंगा प्यारा सब देख रहा है कि मुट्ठी भर हुक्मरानों की साजिश से आज आदमी कितने मुल्कों, कितनी जातियों, टोलियों, समुदायों, समूहों, कितने वर्गों, कितनी तरह की अर्थव्यवस्थाओं, कितनी तरह की नफरतों का हंसते-हंसते शिकार हो रहा है, मंचों पर कव्वाल शब्दों की भाड़-भड़ैती में मस्त हैं, मुफलिसों के मरघट पर बाजार का दैत्य दुंदभी बजा रहा है… पिछले सात दशक इस हाहाकार से गुजरता तिरंगा इतना थक चुका है कि ऊंचा रहे भी तो कैसे! बस जन-गण-मन में, और शायद कहीं नहीं बचा रह सका है वह!
लेखक जयप्रकाश त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं.
vishu
August 17, 2015 at 10:07 am
Apke sabdo ki jitni tarif ki jaye kam hai. is tarah samaj] samaja ke tekedaro ko aina dikha te rahiye.