सत्येंद्र पी एस-
आज मजदूरों, मेहनतकशों पर बहुत चर्चा हो रही है। मेहनत करने वालों की बड़ी तारीफ भी हो रही है। होनी भी चाहिए।
मेहनतकश समझने वाली बात होती है कि आपकी नजर में मेहनतकश है कौन? जो लोग समझते हैं कि ये गारा माटी ढोने वाले, खेत में काम करने वाले, रिक्शा चलाने वाले मेहनतकश हैं तो वह उसी लेवल के मेहनतकश बन जाते हैं। इस तरह का मेहनतकश बनने में कोई श्रम नहीं करना होता है, मजबूरी में फंसेंगे तो बनना पड़ता है। अधिकतम आबादी वही है।
असल मेहनतकश मुकेश अम्बानी, गौतम अडानी, नरेंद्र मोदी और इनके जैसे लोग हैं। सामान्य चिरकुट मानव एक बैंक कर्ज के डर से सुसाइड कर लेते हैं, वहीं यह अम्बानी, अदाणी, मोदीजैसे मेहनतकशों से कर्ज मांगते रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता, बैंक वालों को ही सुसाइड करना होगा।
सामान्य चिरकुट मानव को पड़ोसी या सब्जीवाला गाली दे दे तो कई दिन तक वह खून जलाता रहता है। इन मेहनतकशों को 91 गालियों का भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जिंदगी में चाहे जितना तनाव आए, यह लोग झेल लेते हैं।
तो पंचों आपको जैसा मेहनतकश बनना है, उसी की जय जय करें। जो सत्ता के साथ है वह सत्ता के मजे लेता है। जो किचकिचाता रहता है, उसकी जिंदगी इसी में खप जाती है। किचकिचाने को अगर धंधा बना लें तो उसका कारोबार भी अच्छा है।
अभी बहुत तेज बारिश हो रही है। दो विकल्प हैं, इंज्वाय करें या रोएं।
रोने के टॉपिक्स यह हैं कि खेती बागवानी के लिए यह आंधी बारिश ठीक नहीं है। कीचड़ हो गया। काम पर कैसे जाएं।
खुश होने के टॉपिक्स यह है कि मौसम ठंडा और सुहाना हो गया, हाइवे पर ड्राइविंग में कितना मजा आएगा। बालकनी में चाय पकोड़े खाते हुए प्रेमिका के साथ कितना आनन्द आ रहा है।
सो इंज्वाय योर लाइफ फ्रेंड्स। हैप्पी लेबर्स डे।
समर अनार्या-
वामपंथ ही नहीं, पूरे सेकुलर खेमे की की कुछ बड़ी कमज़ोरियों में से एक ‘धार्मिक कर्मकांडों का विकल्प न दे पाने’ की असफलता भी है।
माइकल इग्नाटिफ की यह बात दरअसल बहुत बड़ी बात है- कोई भी समाज, कोई भी आंदोलन लगातार युद्ध की तैयारी में नहीं रह सकता- उसे आराम के क्षण, उत्सव के क्षण, ख़ुशी के क्षण भी चाहिए ही होते हैं।
दुनिया की तमाम दक़ियानूसी ताक़तों को देखिए- वे सबसे पहले अपने उत्सव ईजाद करते हैं। फिर हमें- एरिक हॉब्सबॉम के शब्दों में कहें तो मई दिन, मज़दूर दिवस, शायद वह अकेली चोट है जो सेकुलर समाज धार्मिकता और उसके कर्मकांडों से बंधे त्योहारों की संस्कृति पर पँहुचा पाए हैं. अब इसमें अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस और जोड़ लें तो रोज़ संघर्षों वाले हमारे जीवन में ले देकर दो ही उत्सव हैं हमारे पास।
ख़ैर, कमाल यह कि यह दिन किसी तोहफे या भीख में नहीं मिले हैं बल्कि समाज के सबसे गरीब मगर जुझारू तबके ने हुक्मरानों के खिलाफ शहीदाना संघर्षों से जीते हैं। नीचे एरिक हॉब्सबॉम का वह लेख लगा रहा हूँ जो आज पढ़ा ही जाना चाहिए!
http://libcom.org/history/birth-holiday-first-may
मजदूर दिवस जिन्दाबाद
मजदूर संघर्षों को लाल सलाम
Anil Karki-
मजदूर दिवस पर मेरे प्रिय कवि सबीर हाका की कविताएं…. सबीर हका की कविताएं तड़ित-प्रहार की तरह हैं। सबीर इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं। उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं और ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं लेकिन कविता से पेट नहीं भरता, पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है। एक इंटरव्यू में सबीर ने कहा था, ”मैं थका हुआ हूं, बेहद थका हुआ, मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं। मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी, मैं तब से ही एक मज़दूर हूं। मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं। उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है।” – गीत चतुर्वेदी (अनुवादक)
शहतूत..
क्या आपने कभी शहतूत देखा है,
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए
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ईश्वर…
ईश्वर भी एक मज़दूर है
ज़रूर वह वेल्डरों का भी वेल्डर होगा,
शाम की रोशनी में
उसकी आंखें अंगारों जैसी लाल होती हैं,
रात उसकी क़मीज़ पर
छेद ही छेद होते हैं।
बंदूक़…
अगर उन्होंने बंदूक़ का आविष्कार न किया होता
तो कितने लोग, दूर से ही,
मारे जाने से बच जाते.
कई सारी चीज़ें आसान हो जातीं.
उन्हें मज़दूरों की ताक़त का अहसास दिलाना भी
कहीं ज़्यादा आसान होता।
मृत्यु का ख़ौफ़…
ताउम्र मैंने इस बात पर भरोसा किया
कि झूठ बोलना ग़लत होता है
ग़लत होता है किसी को परेशान करना
ताउम्र मैं इस बात को स्वीकार किया
कि मौत भी जि़ंदगी का एक हिस्सा है
इसके बाद भी मुझे मृत्यु से डर लगता है
डर लगता है दूसरी दुनिया में भी मजदूर बने रहने से।
आस्था…
मेरे पिता मज़दूर थे
आस्था से भरे हुए इंसान
जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे
अल्लाह उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था।
इकलौता डर…
जब मैं मरूंगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया,
मेरे नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्य के प्रति डर के लिए
मैं लेटा रहूंगा, मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था
इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा –
‘अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है’