अजय कुमार, लखनऊ
एक बार फिर बसपा सुप्रीमों मायावती ने छोटे राज्यों की वकालत करते हुए प्रदेश को चार राज्यों में बांटने का शिगूफा छोड़ दिया है। वैसे,यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में जब भी चुनावी बिगुल बजता है तो प्रदेश के बंटवारें की मांग करने वाले और इसका विरोध करने वाले नेता और दल आमने-सामने आ जाते हैं। यूपी की सियासत में यह एक सहज चलने वाली प्रकिया बन गई है। उत्तराखंड इसी की देन है। केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान उत्तराखंड अस्तित्व में आया था। उत्तराखंड की तर्ज पर ही पूर्वांचल, बुंदेलखंड, रूहेलखंड, अवध प्रदेश और हरित प्रदेश(पश्चिमी उत्तर प्रदेश) बनाये जाने की मांग लम्बे समय से चली आ रही है।
बसपा यूपी के बंटवारे के पक्ष में खड़ी दिखती है तो समाजवादी पार्टी के एजेंडे में कभी भी प्रदेश का बंटवारा नहीं रहा है। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त दल बीजेपी- कांग्रेस इस मुद्दे पर एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली सियासत के सूत्रधार हैं। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही छोटे राज्यों की वकालत तो करते है, लेकिन उनका तर्क होता है कि बंटवारे के लिए ठीक से अध्ययन होना चाहिए। उक्त दल राज्य पुनर्गठन आयोग बनाने की भी वकालत करते हैं। इस कड़ी में राष्ट्रीय लोकदल(रालोद) का नाम लिये बिना बात अछूरी ही लगेगी। रालोद लम्बे समय से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मांग छेड़े हुए है और वह डंके की चोट पर अलग हरित प्रदेश मांगता है।
गौरतलब हो प्रदेश का विभाजन करके छोटे राज्य बनाने का मुद्दा नया नही है। आतादी के बाद से ही बंटवारे की मांग शुरू हो गई थी। सबसे पहले 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य डॉ. के0एम0 पणिक्कर ने प्रदेश के विभाजन की जोरदार वकालत की थी, लेकिन उस समय इस मांग को ज्यादा जन-समर्थन नहीं मिल पाया था। जिस कारण यह मसला ज्यादा सुर्खिंया नहीं बटोर सका। यह सिलसिला करीब चार दशकों तक ऐसे ही चलता रहा,लेकिन बंटवारे की मांग करने वालों को करीब दो दशक पूर्व उत्तराखंड राज्य के रूप में पहली सफलता मिली। उत्तराखंड के बनने का असर यह हुआ कि हरित प्रदेश, पूर्वांचल और बुंदेलखंड की मांग करने वाले नेताओं और दलों को उत्तराखंड के रूप में नया ‘आक्सीजन’ मिल गया था। हरित प्रदेश की मांग करने वाले चौधरी अजित सिंह, पूर्वांचल की मांग करने वाले शतरूद्ध प्रकाश और बुंदेलखंड के पक्ष में बिगुल बजाने वाले शंकर लाल महेरोत्रा जैसे आंदोलनकारी एक साथ,एक मंच पर आ गये। हालांकि, यह साथ लंबा नहीं चल सका, लेकिन इससे अलग राज्य के आंदोलन को बल जरूर मिला। कई संगठन छोटे राज्यों की मांग उठाने लगे।
इस सियासत में वर्ष 2011 में तब नया मोड़ आया,जब विधान सभा चुनाव से कुछ समय पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने विधान सभा के आखिरी सत्र में प्रदेश को चार हिस्सों पूर्वांचल पश्चिमी यूपी, अवध और बुंदेलखंड में बांटने का प्रस्ताव पारित कराकर उस समय केन्द्र की मनमोहन सरकार को इस आश्य के साथ भेज दिया कि वह आगे की कार्रवाई करेंगे। चुनावी मैदान में माया के इस सियासी कदम का जबाव विरोधियों को देना मुश्किल पड़ गया। माया के प्रस्ताव के बाद अलग राज्य की मांग करने वाले कुछ संगठन भी सिर उठाने लगे थे,लेकिन इससे मायावती को कोई चुनावी फायदा नहीं मिला। वह चुनाव हार गईं और छोटे राज्यों का समर्थन नहीं करने वाली समाजवादी पार्टी को उम्मीद से अधिक सीटें हासिल हुईं। इसके बाद बंटवारे का मुद्दा ठंडा पड़ गया,जिसे संभवता 2017 के चुनाव में फिर से गरमाने का मूड बसपा सुप्रीमों मायावती ने बना लिया हैं। आगामी विधान सभा चुनाव से पूर्व बसपा प्रमुख मायावती इस मुद्दे को हवा दे रही हैं तो इसकी वजह भी है। मायावती के पास इस समय चुनावी मुद्दो का अभाव है। इसी लिये वह हर उस मुद्दे को हवा देती रहती हैं जिसको लेकर उन्हें जरा भी आशंका होती है कि यह सियासी मुद्दा बन सकता है। बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दल जब विकास के दावे करती है, तो इसकी काट के लिए माया प्रदेश का बंटवारा,तीन तलाक,नोटबंदी, सिमी आतंकवादी एनकांउटर, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे को उछलना शुरू कर देती हैं।
बसपा सुप्रीमों मायावती जानती हैं कि जब छोटे राज्यों की वकालत करेंगी तो उन्हें समर्थन मिलने में देर भी नहीं लगेगी। इसका प्रमाण हैं बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के संयोजक राजा बुंदेला। वह कहते हैं बसपा सुप्रीमों की बात सही है। बुंदेलखंड बनना चाहिए। बुंदेला कहते हैं, बीजेपी तो छोटे राज्यों के पक्ष में नहीं रही है, लेकिन उसके कई नेता छोटे राज्यों के निर्माण के लिये आंदोलन चला चुके हैं। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फडनवीस विदर्भ के आंदोलन से जुडे़ रहे है। ललितपुर की रैली में केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने अलग बुंदेलखंड की मांग को दोहराया था।
प्रस्तावित राज्यों का खाका और पक्ष-विपक्ष के बोल
उत्तर प्रदेश का बंटवारा करके छोटे राज्य बनाने के लिये आंदोलन चलाने और बयानबाजी का पराक्रम तो खूब देखने को मिल रहा हैै,लेकिन इसके लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये हैं। फिर भी कुछ लोंगो ने जो खाका तैया किया है,उसके अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 700 वर्ग किमी और जनसंख्या 06 करोड़ होगी। संभावित जिलों की संख्या 26 बताई जा रही है। इसी प्रकार अवध प्रदेश का क्षेत्रफल 6000 वर्ग किमी जनसंख्या 05 करोड, संभावित जिले 15 हैं। पूर्वांचल का क्षेत्रफल 85,844 वर्ग किमी0 जनसंख्या 6.66 करोड संभावित जिल 27 हैं। बुंदेलखंड का क्षेत्रफल 29418 वर्ग किमी0 जनसंख्या 1.10 करोड संभावित जिले 13 ( सात यूपी छह मध्य प्रदेश के ) हैं। बहरहाल, यहां यह बता देना जरूरी है कि यूपी भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। यूपी की कुल आबादी करीब 21 करोड़ है। इस बात को और कायदे से समझना हो तो कहा जा सकता है कि आबादी के लिहाज से सबसे बड़े तीन देशों के बाद यूपी का नंबर आता है। ये तीन देश चीन,अमेरिका, और इंडोनेशिया है। ब्राजील की आबादी यूपी के लगभग बराबर है, जो पांचवे नंबर पर है।
बंटवारे के पक्ष में तर्क देने वाले कहते हैं अगर राज्य छोटा होगा तो आर्थिक विकास तेजी से होगा। पिछले दो दशकों मे जितने भी नए राज्य बने, उन सबकी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया । इसके अलावा क्षेत्रीय संतुलन बनेगा तो संसाधनों का समान वितरण होगा। प्रशासनिक व्यवस्था और प्रबंधन बेहतर होगा। सरकार की जनता तक और जनता की सरकार तक पहुंच आसान होगी। तहसील से राज्य मुख्यालय और कोर्ट कचहरी तक हर काम के जनता को लबीं दौड़ं लगानी पड़ती है। अगर छोटे राज्य होंगे तो इससे छुटकारा मिल जायेगा। वही बंटवारे की मुखालफत करने वालों का तर्क है कि राज्य छोटे होंगे तो विकास के नाम पर संसाधनों का दोहन होगा। इससे दीर्धकालीन समस्या पैदा हो सकती है।
वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो न तो बंटवारे के पक्ष में हैं और न विरोध में। इस वर्ग का कहना हो जो भी फैसला लिया जाये वह सोच समझ कर लिया जाना चाहिए। अगर बंटवारा करना जरूरी ही हो तो सभी संसाधनों को ध्यान में रखकर बंटवारा किया जाए। खासतौर से नदियों के आसपास के क्षेत्र में बंटवारा इस तरह हो कि बाद में पानी को लेकर राज्यों के विवाद न बढ़े। पूर्वांचल बने तो गंगा और अन्य नदियों के दोनों ओर हिस्सा उसमें शामिल हो इसमें कुछ बिहार का हिस्सा भी हो सकता है। पूर्वांचल में वाराणसी, इलाहाबाद जैसे शहर जरूर हो, जो शैक्षिण और पर्यटन की दृष्टि से अर्थव्यवस्था को गाति दे सकें। बुंदेलखंड बनाने के लिए भी कुछ जिले मध्य प्रदेश के भी शामिल किए जाएं जहां समान भौगोलिक और भाषाई परिस्थितियां है। देखना यह है कि 2017 के विधान सभा चुनाव में बंटवारे की सियासत क्या गुल खिलाती है।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.