सुना है कि फ्रेडरिक ऐंगेल्स की एक पुस्तक है ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’. भड़ास4मीडिया पर एक खबर पढ़ी तो अचानक इस पुस्तक की याद आ गई. जिस तरह से बंदर से मनुष्य बनने में श्रम की भूमिका महत्वपूर्ण रही है, उसी तरह से कई संस्थानों में आगे बढ़ने के लिए काबिलियत की नहीं, चमचागीरी की बड़ी भूमिका रहती है. अगर ऐसा नहीं होता तो 1991 में एक बड़े पत्रकार से शुरू हुआ अखबार सालों साल तक एक घटिया पत्रकार के कंधे पर टिका रहता. तब उन घटिया पत्रकार को पत्रकारिता की दुनिया में कोई जानता नहीं था.
जब वे इसी संस्थान में ब्यूरो में रिपोर्टर थे तो इनसे कई वरिष्ठ ब्यूरो में थे और लगभग आधे दर्जन डेस्क पर. पर इन्हें स्थानीय संपादक बना दिया गया, वो भी राजधानी लखनऊ का. कहने का मतलब इस संस्थान को काबिल लोग नहीं चमचे चाहिए. चमचे आये. चमचों को रखा. आगे बढाया. चमचों से ही घिरे रहे. मसलन महाप्रबंधक के रूप में एक सज्जन आए. ये खुद लाला थे तो डीटीसी और प्रिंटिंग में अधिकतर लालाओं को रखा. संपादक थे ब्राह्मण तो एडिटोरियल में ब्राह्मणों की भरमार कर ली. सारे के सारे ब्राह्मण महत्वपूर्ण भूमिका में. बाद में ठाकुर साहब संपादक बनाये गए तो इन्होंने अधिकतर ठाकुर भर दिये.
बहरहाल बात नए बने समूह संपादक जी की. अब यह निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ कि शिष्टाचार के नाते अपने पुराने इस सहकर्मी को बधाई और शुभकामनाएं देने की औपचारिकता निभाऊं या निष्पक्ष समीक्षा करूँ. एक कहावत है कि “पूत के पांव पालने में हमेशा नहीं रहते”. इनके लक्षण भी तबसे दिखने लगे जब दूसरे लोग मैनेजर और संपादक हुआ करते. तब ये महोदय अधिकारी के करीबी होने, कान भरने और लड़ाने भिड़ाने में उस्ताद थे. यही नहीं अपने वरिष्ठ की चुगली करने और टांग खींचने में भी महारत हासिल थी. अगर ये सब खूबियाँ ना होती तो पटवारी की नौकरी से पत्रकारिता में आकर समूह संपादक तक कतई न पहुंचते. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अखबार की नौकरी से पत्रकारिता में आये उप संपादक के रूप में.
प्रसंगवश इस संस्थान में महीनों हुई हडताल को हैंडिल न कर पाने की वजह से संस्थान के मुखिया अपने तमाम बडे अधिकारियों से खफा थे. बताते हैं कि उसी दौरान इस नए बने समूह संपादक ने लखनऊ के स्थानीय संपादक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
यहाँ यह बताना मौजू है कि पटवारी की नौकरी से कतिथ रूप से निकाले गए इस शख्स की अपने बॉस के विरोधी खेमे में ज्यादा पूछ थी. बॉस के विरोधियों के विश्वास पात्रों में से एक थे. धीरे धीरे बडे अधिकारियों के दरबार में उठना बैठना हो गया. जो भी अधिकारी बाहर से लखनऊ आता उसके बच्चों का एडमिशन कराना इन महोदय का “नैतिक” फर्ज था. अपने साथियों के ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवाते रहे. दूसरे “खेमे” के अधिकारी को भी साधे रहते थे.
शायद यही वजह थी कि तमाम वरिष्ठ अधिकारियों के होने के बावजूद इन्होंने स्थानीय संपादक की कुर्सी हासिल कर ली. कुछ समय के लिए ये हटाये गए लेकिन अपने खास लोगों के पावर में आने के बाद इनकी शानदार वापसी हुई. बताया जाता है कि इन पर मैनेजमेंट के कुछ लोगों का वरदहस्त था और अब भी है. वैसे नए बने समूह संपादक महोदय जी के विषय में एक कहावत प्रचलित है कि गिरगिट भी उतने रंग नहीं बदल पाता जितने की ये बदल लेते हैं. ये वही शख्स हैं जिन्होंने प्रबंधन के सेफ एग्जिट प्लान को न केवल स्वीकार कर फुल ऐंड फाइनल पेमेंट लेकर “पतली गली से निकल गये” बल्कि अपने विरोधियों को पानी पी पी कर कोसते रहे. पर अच्छे दिन आने से भला कौन रोक सकता है. आजकल की पत्रकारिता में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के लिए अच्छे दिन आने का रास्ता बुरी नीतियों से होकर गुजरता है.
(जिन सज्जन ने उपरोक्त पत्र भेजा है, उन्होंने अपना एक फर्जी नाम ‘कुमार कल्पित’ रखा है. साथ में ये संदेश भेजा है- ”अगर इसे स्थान देते हैं तो मेरा काल्पनिक नाम ही दीजिएगा। सवाल निजी संबंध का भी है। इस संस्थान से निकाले जाने के बाद अब मैं सेवानिवृत की अवस्था में हूँ इसलिए नए समूह संपादक महोदय से कोई खुन्नस नहीं है।” यहां यह बता देना उचित होगा कि लेखक ने संस्थान से लेकर मनुष्यों तक के सारे नाम ओरीजनल भेजे थे लेकिन ऐसी भड़ास का रस तभी है जब उसे थोड़ा छिपा-ढुका के छापा जाए. दूसरी बात ये है कि लेखक में खुद इतना गूदा नहीं है कि वह अपने ओरिजनल नाम से छपवा सकें तो फिर कहानी के पात्रों का भी नाम काल्पनिक कर देना ठीक रहता है क्योंकि बना वजह किसी की लंका नहीं लगाई जानी चाहिए.)