वीरेन दा का निधन पत्रकारिता ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य जगत की एक बड़ी क्षति है। वीरेन दा मेरे लिए तो एक पत्रकार और साहित्यकार से बहुत आगे बढ़कर ऐसे गुरू थे, जो अपने शिष्य को कार्य क्षेत्र की कमियों, खूबियों और बारीकियों से ही अवगत नहीं कराते बल्कि जीवन में आगे बढ़ने की शिक्षा व्यवहारिक धरातल पर देते हैं। मुझे जैसे हजारों लोगों को वीरेन दा ने बहुत कुछ सिखाया है।
वीरेन दा के विराट व्यक्तित्व से मेरा पहला परिचय अमर उजाला, बरेली में अपनी तैनाती के दौरान वर्ष 1985 में हुआ था। तब वीरेन दा अमर उजाला की संडे मैगजीन रविवासरीय का सम्पादन करते थे। उस वक्त इस चार पेज की मैगजीन में पढ़ने लायक बहुत कुछ होता था। हर बार दिल को छू जाने वाली कहानी के साथ ही धीर गंभीर आलेख होते थे। इनका चयन और सम्पादन वीरेन दा खुद किया करते थे। वे कई बार अच्छे लेखकों को फोन करके उनसे रचना भेजने का अनुरोध करते थे।
सम्पादन का गुर गंभीर दायित्व संभालने के बावजूद वीरेन दा सम्पादकों वाले गरूर से बहुत दूर थे। कुछ समय बाद मुझे सम्पादकीय पेज का सम्पादन सौंप दिया गया। उस वक्त प्रख्यात बाल कवि श्री निरंकार देव सेवक लीडर राइटर के रूप में संपादकीय लिखा करते थे। संपादकीय के विषय पर अतुल माहेश्वरी जी और वीरेन दा अक्सर पहले ही चर्चा कर लेते थे। सम्पादकीय पेज के प्रभारी रहे मेरे वरिष्ठ श्री विपिन धूलिया ने मुझे इस पृष्ठ का सम्पादन करना सिखाया था। उनके जाने के बाद मैं सम्पादकीय पृष्ठ के लिए लेखों का चयन करने में शुरू में बहुत हिचकता था। उस दौर में वीरेन दा ने विषय चुनने के ऐसे गुर सिखाए कि आज तक नहीं भूल सका हूं। इस दौरान वीरेन दा मुझे अपने अमर उजाला रविवासरीय संस्करण के कुछ लेख, कहानी, समीक्षा आदि सम्पादन के लिए देते थे।
नए पुराने लेखकों की रचनाओं से कई फाइलें भरी पड़ीं थी। नए आने वाले लेखों को इस्तेमाल करने के साथ ही फाइलों में रखी पुरानी रचनाएं भी निकाल कर छापी जाती थीं। उसी दौर में पहाड़ के एक लेखक की दो तीन रचनाएं काफी समय से पैंडिंग देखकर मैंने वीरेन दा से पूछा कि इन्हें जगह नहीं मिल पा रही है, तो क्या इन्हें वापस भेज दूं। वीरेन दा के उत्तर ने उनके बड़प्पन और सामाजिक उत्तरदायित्व के बोध का भी अहसास करा दिया। उनका जवाब था – इस लेखक को इस समय मदद की जरूरत है…. ये वाली छप सकती है, थोड़ा ठीक करके कम्पोजिंग में दे दो।
अमर उजाला में समीक्षा के लिए पुस्तकें आती रहती थीं। एक बार वीरेन दा ने मुझे समीक्षा करने के लिए ऐसी ही एक पुस्तक दी… पुस्तक में इस्तेमाल किए गए शब्दों पर मुझे बहुत आपत्ति थी। मैंने कई बार वह किताब पढ़ी और समीक्षा में लिख दिया कि यह पुस्तक शोहदों के पढ़ने लायक तो हो सकती है, कोई सुसंस्कृत व्यक्ति इसे अपने घर में रखना भी शायद पसंद नहीं करेगा। मेरी समीक्षा पढ़कर वीरेन दा मेरी साफगोई पर बहुत हंसे। एक-एक करके कई रविवार निकल गए, लेकिन वो समीक्षा कम्पोज होने के लिए नहीं गई। वो मेरी पहली समीक्षा थी, शायद आखिरी भी। वीरेन दा ने कभी यह भी नहीं कहा कि समीक्षा छपने लायक नहीं है….. आज सोचता हूं तो लगता है कि यह भी वीरेन दा का सिखाने का तरीका था कि सच को भी कड़ुवे अंदाज में नहीं बोलना चाहिए….।
लेखक प्रो. सुभाष गुप्ता से संपर्क [email protected] या 09412998711 के जरिए किया जा सकता है.
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