अमीश राय-
चुनाव से इतर कुछ बात कहना चाहूंगा. दिल्ली से नजदीकी के चलते पश्चिमी यूपी में जो खुशहाली आई है इसका अंदाजा भी पूर्वी यूपी वालों को नहीं है.
पूर्वी यूपी का एक किसान जितना अपनी बेटी की शादी के लिए जीवनभर में बचाता है उतने की पश्चिमी यूपी, खासकर नोएडा जैसी जगहों के किसान हर साल गाड़ी खरीद लेते हैं.
बेशक यहां भी गरीबी है लेकिन कैश क्रॉप ने इन्हें काफी हद तक मजबूत बना रखा है.
हमारे यहां के मजबूत कद काठी के लड़के दिल्ली-एनसीआर की फैक्ट्रियों में आकर अपनी हड्डी गलाते हैं और समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं.
दिल्ली से करीबी का विकास का ये मॉडल सही नहीं है. फेडरल सिस्टम यानी संघीय व्यवस्था में सबको बराबरी का हक मिलना चाहिए.
पिछले दिनों Saurabh Kumar Shahi भाई ने एक अहम बात कही. वो बात थी शिक्षा के अंतर की. हमारी पीढ़ी तो जैसे-तैसे संघर्ष करके निकल रही है लेकिन यह खाई और चौड़ी हुई है. पता नहीं पूरब की अगली पीढ़ी ‘नए अंग्रेजों’ के सामने कैसे टिकेगी.
विकास के इस मॉडल को चैलेंज किये जाने की जरूरत है. एनसीआर का मॉडल नहीं चलेगा. सरकार को चाहिए कि रोजगार सृजन बलिया, ग़ाज़ीपुर, बनारस, भदोही, इलाहाबाद जैसी जगहों पर भी हो, इसकी व्यवस्था करे.
पूरब को पूरा हक है त्योहार अपने घर में बैठ मनाने का. ग़म और खुशी के क्षण को अपनों के साथ बिताने का. बित्ते भर के फ्लैट (फ्लैट भी कहना मुनासिब नहीं) में जीवन को राख करना सिर्फ पूरब के भाग्य में ही लिखा है क्या?
अच्छे अस्पताल यहां होंगे, अच्छे स्कूल यहां होंगे, सब अच्छाई यहां होगी और पूरब में क्या होगा? बूढ़े होते परिजन, बीमार बुजुर्ग, बिना उद्देश्य की तरुणाई, भटकता बचपन?
इसपर सोचना पड़ेगा. हमें ही सोचना पड़ेगा.