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साहित्य

एक प्रकाशन संस्थान का सफरनामा

यह पोस्ट जानलेवा बीमारियों से लंबे अरसे से जूझ रहे और अब उन पर जीत हासिल करने की कशमकश में लगे पंजाब के प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी और पंजाबी पत्रकार तथा साहित्य में भी अच्छी-खासी दखल रखने वाले अमरीक ने 8 नवंबर को लिखी थी। इस पोस्ट को ‘आधार प्रकाशन’ के कर्ताधर्ता और चर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘पल प्रतिपल’ के संपादक देश निर्मोही ने अपने फेसबुक वॉल पर प्रकाशित किया। इस पोस्ट में अमरीक की जिजीविषा की प्रेरक कथा समाहित है।

अमरीक सिंह

सुबह के सात बजने को हैं, जब यह पोस्ट लिख रहा हूं। डेढ़ साल की लंबी बीमारी के बाद यह मेरी पहली पोस्ट है। लिखने के बहानों में फिलवक्त एक ही शुमार है कि सुबह का इंजेक्शन देने वाले सहायक डॉक्टर और उनके कंपाउंडर का इंतजार कर रहा हूं। अपनी अलहदा पहचान रखने वाले पंचकूला/चंडीगढ़ के ‘आधार प्रकाशन’ का स्थापना दिवस मनाए जाने की सूचना दो दिन पहले मिली थी। शिरकत करना संभव नहीं क्योंकि लीवर सिरोसिस, पैंक्रियाज, अनवरत जौंडिस, शुगर, सीओआरडी तथा न्यूरो की समस्याओं से बीते लगभग डेढ़ साल से जूझ रहा हूं। कुछ हफ्ते पहले लगा कि यादाश्त खो रहा हूं। डॉक्टरों को बताया। पहले काउंसलिंग और फिर मशीनी जांच के बाद डॉक्टरों ने दवाओं के लंबे-चौड़े प्रिसक्रिप्शन के बाद कहा कि लगभग 20 फ़ीसदी याददाश्त जा चुकी है लेकिन फौरी तौर पर समझ नहीं आ रहा कि ‘आधार प्रकाशन’ से वाबस्ता स्मृतियों ने कैसे मस्तिष्क के नाजुक कोने में जगह बना रखी है।

तीन दशक से भी ज्यादा वक्त की बातें याद आ रही हैं। स्मृतिदोष की जो बीमारी है, उसमें अक्सर ऐसा होता है कि नई बातें याद नहीं रहतीं और पुरानी कई बार फिल्म की तरह चलने लगती हैं। इस संस्थान के ‘पल प्रतिपल’ की आधारयात्रा मानों सामने खड़ी है। अभी आधार प्रकाशन की विधिवत नींव रखी जानी थी, जब तीन दशक से भी ज्यादा अरसा पहले देश भाई से मिलना- जुलना शुरू हुआ। वह उन दिनों सीएसडी की सरकारी मुलाजमत में थे और उनसे मामूली व औपचारिक मुलाकात के बाद मिलने अक्सर ऑफिस या उनके घर पंचकूला जाया करता था। वह भी अक्सर चंडीगढ़ मेरे फ्लैट में आते थे। उन दिनों श्रीमती मृणाल पांडे के संपादकत्व में निकलने वाली हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की पत्रिका ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के लिए रक्तरंजित पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के लिए नियमित काम करता था। इन्हीं प्रदेशों की प्रमुख घटनाओं की जमीनी रिपोर्टिंग के लिए ‘द संडे मेल’ का विशेष प्रतिनिधि था।

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‘जनसत्ता’ के लिए भी बदस्तूर लिखता था। बाहरहाल, देश निर्मोही से बातों का सिलसिला लंबा चलता था। उन दिनों निर्मोहीजी आधार प्रकाशन का ढांचा विधिवत खड़ा करने की प्रक्रिया में थे और अक्सर उन सपनों की बात किया करते थे–जो खुली और बंद आंखों से आधार के लिए देखे जा रहे थे या उनके पास चले आते थे। तब प्रकाशन जगत ने अबकी मानिंद संगठित माफिया की शक्ल अख्तियार नहीं की थी और रचनात्मकता, चिंतन व चेतना से जुड़ा यह काम एक किस्म का सामाजिक आंदोलन–सा था, जिसमें ईमानदारी एवं पवित्र आस्था जैसा कुछ (भी) था।

डॉ सत्यपाल सहगल, प्रमोद कौंसवाल, हरवंश दुआ, रुस्तम, डॉ रमेश कुंतल मेघ, निरुपमा दत्त और लाल्टू सहित कई प्रियजनों से भी वह इस प्रस्तावित और अति महत्वाकांक्षी प्रकाशन की रूपरेखा की बाबत अति गंभीर चर्चा किया करते थे। एक दिन उनके सरकारी ऑफिस गया तो पता चला कि देश भाई फलां तारीख को नौकरी से इस्तीफा दे रहे हैं और अपना तमाम सामर्थ्य-समय और पूंजी ‘आधार प्रकाशन’ की स्थापना व उसे सशक्त करने में लगाएंगे। उनकी (बल्कि हम सबकी) पत्रिका पल प्रतिपल भी नया आकार लेने लगी थी। उन्होंने सरकारी नौकरी त्याग कर, अकेले चलने का बहुत बड़ा जोखिम उठाया था और कुछ मित्र उनके इस फैसले से असहमत थे। समर्थकों में मैं भी था। पत्रिका के कामकाज के सिलसिले में उनके दिल्ली दौरों ने रफ्तार पकड़ ली थी। वहां पत्रिका तथा आधार प्रकाशन को लेकर उनकी चर्चा दिवंगत मंगलेश डबराल, असद जैदी, विष्णु नागर और प्रयाग शुक्लजी से होती थी। ज्ञानरंजनजी से भी इस बाबत उनका संपर्क बना हुआ था। देश भाई तब युवा थे और उनके सपनों का आकाश अनंत था लेकिन धरती को छू रहा था।

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सीमित साधनों तथा आंदोलनकारी तार्किक जिद के साथ ‘आधार प्रकाशन’ बाकायदा वजूद में आ गया। मैंने खुद देखा है कि उन दिनों (इन दिनों की मैं नहीं जानता), देश भाई पांडुलिपियां ऐसे लेते व संभालते, जैसे मां नवजात शिशु को गले लगाती है या गोद में लेती है। एकाएक पंचकूला/चंडीगढ़ का आधार प्रकाशन चौतरफा चर्चा का विषय बन गया। उसने अपना अलहदा जनपक्षीय, प्रगतिशील और जनवादी सांचा बनाया। नई पहचान और नक्श–नुहार के साथ।सुदूर प्रदेशों के जाने-माने बड़े लेखक देश निर्मोही की इस मुहिम का हिस्सा बने। कुछ नाम–कुछ चेहरे याद आ रहे हैं। सर्वश्री विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, ज्ञानरंजन, विष्णु नागर, कुमार विकल, डॉक्टर चमन लाल, राजकुमार राकेश, लक्ष्मेंद्र चोपड़ा, एसआर हरनोट, ज्ञानपीठ विजेता प्रोफेसर गुरुदयाल सिंह..…।

फेहरिस्त लंबी है।

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आगे जाकर कतिपय लब्धनिष्ठ कहलाए कवि-कथाकारों की प्रथम कृतियों का जन्म आधार प्रकाशन से हुआ। बहुतेरों की संभावनाशील रचनात्मकता को निष्पक्ष होकर परखने वाले मुख्यधारा के नामवर आलोचकों के उल्लेखनीय नोटिस मिले। जिसके बलबूते वे गौरवशाली साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित होकर बहुतचर्चित हुए। यकीनन उन्हें स्वाभाविक प्रशंसा, औपचारिक बड़े सम्मान तथा साहित्यिक–सांस्कृतिक दुनिया में पहले दर्जे की नागरिकता भी हासिल हुई। सामाजिक सरोकारों के लिहाज से उनकी स्कूलिंग में आधार घराने का बहुत बड़ा हाथ जग–जाहिर है। दीगर है कि इनमें से कुछेक आधार प्रकाशन और देश निर्मोही की भूमिका को आज–अब बिसरा चुके हैं। पर इस सच/तथ्य की जड़ें बेहद गहरी हैं और जानने वाले जानते हैं।

देश भाई के साथ-साथ उनके परिवार ने भी आधार और पत्रिका पल प्रतिपल के लिए जोरदार संघर्ष किया। गुरदयाल सिंह, नाटककार गुरशरण सिंह, कवि लाल सिंह दिल और पाश पंजाबी साहित्य की आधारयात्रा का गौरवशाली इतिहास हैं और संपूर्ण तौर पर इन्हें हिंदी साहित्यिक संसार के कोने-कोने तक पहुंचाने का श्रेय यकीनन आधार प्रकाशन को है। भगत सिंह, सांप्रदायिक जहरवाद, वैज्ञानिक सोच एवं शोध से लबरेज किताबें किफायती दाम पर पुस्तक प्रेमियों तक पहुंचाईं। हिंदी कविता के विश्व स्तरीय हस्ताक्षर रघुवीर सहाय पर किताब तो छापी ही, उनकी स्मृति में वार्षिक सम्मान भी संभावनाशील तथा स्थापित लेखकों को देना शुरू किया। रघुवीर सहाय स्मति सम्मान से सम्मान से सम्मानित किए गए कुछ लेखक वह भी थे, जो खेमेबाजी से परे नागवार हालात और हाशिए को हासिल थे।

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समकालीन पंजाब में (अब) हिंदी लेखन का बड़ा हिस्सा अप्रसांगिक और महज छपास रोग से ग्रसित है। ज्यादातर, आत्ममुग्धता का शिकार लोग खुद को लेखक मानकर कागजों के कातिल बने हुए हैं। कायदे से हिंदी तक नहीं आती। नया क्याााााााा लिखा जा रहा है, इसे तो जाने दीजिए, पुराने से भी बहुतेरे नावाकिफ हैं। मस्तराम, कर्नल रंजीत, गुलशन नंदा आदि पढ़े हों तो कह नहीं सकता। (बेशक इक्का-दुक्का अपवाद भी हैं)। बहुत पहले पंजाब का हिंदी लेखन हाशिए को हासिल हो गया था। यह व्यक्ति विशेष टिप्पणी नहीं है। गुलेरीजी, यशपाल, उपेंद्रनाथ अश्क, मोहन राकेश और रवीन्द्र कालिया और रमेश बत्रा के बाद कुमार विकल, जगदीश चंद्र व विनोद शाही, डॉ सेवा सिंह और तरसेम गुजराल, डॉ राकेश कुमार आदि ने अपने-अपने तईं गौरवशाली परंपराओं को मौलिकता के साथ सच्चे साहित्यिक–सांस्कृतिक जनसरोकारी आधार रखे और अपनी अति महत्वपूर्ण एवं हस्तक्षेपकारी अभिव्यक्ति तथा उपस्थिति के लिए ‘आधार प्रकाशन’ को चुना। कुमार विकल का संपूर्ण काव्य आधार प्रकाशन की देन है। इसी तरह जगदीश चंद्र रचनावली। विनोद शाही व डॉ सेवा सिंह का निरंतर शाब्दिक बहुआयामी चिंतन!

अब कुछ नए नाम जुड़े हैं। निरंतरता के इस सिलसिले में विलक्षण प्रतिभास्तंभ श्री जंग बहादुर गोयल तथा देवेंद्र पाल। सबकी किताबें आधार प्रकाशन ने बेहद ऐहतराम के साथ हिंदी समाज को एक बड़े तोहफे की मानिंद उपलब्ध करवाईं हैं।

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आर्थिक दिक्कतों और सीमाओं के बावजूद देश निर्मोही ने पंजाबी प्रकाशन जगत में भी कदम रखा है। इसके लिए अलग से उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं। नाचीज का अनुभव कहता है कि इस शुरुआत अथवा कोशिश की सुगंध सुदूर देशों तक फैलेगी! प्रसंगवश, मूल पंजाबी में लिखा (पंजाबी के मुक्तिबोध माने जाने वाले) नवतेज भारती का 1000 पृष्ठों का काव्य प्रबंध ‘लीला’ हिंदी में (अनुवाद: देवेंद्र पाल) देश निर्मोही लेकर आ रहे हैं। यह उनकी हिम्मत और दूरदृष्टि है।

(इस पोस्ट को लिखते-लिखते इंजेक्शन लग गया है और गोलियां तथाा कैप्सूल बाद में फांक लूंगा। लंबी पोस्ट के लिए माफी चाहता हूं लेकिन बची हुई स्मृतियों में जो था उसे सामने रखना भी ईलाज का एक हिस्सा हो गया, ऐसा मुझे लगता है)।

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बेहद-बेहद खुशी की बात है कि प्रियंवद और शिवमूर्ति जैसे विलक्षण लेखक भी ‘आधार प्रकाशन’ का हिस्सा बन गए हैं। स्थापना दिवस पर उन दोनों की नईं किताबों का विमोचन भी प्रस्तावित है।

अभी-अभी दिवंगत हुए डॉक्टर मैनेजर पांडे की कुछ चर्चित किताबें आधार से आई हैं।

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अलामत का असर है कि सारे नाम इस पोस्ट में प्रसंग के साथ लिखने थे लेकिन छूट गए और इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं। देश भाई के साथ गुरबख्श सिंह मोंगा जैसे जुझारू–प्रतिबद्ध लोग भी खड़े हैं। अकेले एक शख्स का काफिला बहुत लंबा–गहरा तथा सार्थकता से, तमाम आर्थिक दुश्वारियां के बावजूद चल रहा है। देश भाई आपकी इस उम्र में ऐसी सक्रियता हम बीमारों को सार्थक प्रेरणा देती है। इंजेक्शन के असर में तारतम्य टूट रहा है। बदन भी। दिमाग थक गया है लेकिन खुशी है कि मैं ‘आधार प्रकाशन’ के सफर का एक अदना–सा ग्वाह रहा हूं। लगभग मौत की कागार पर बैठा, इसके लिए अपनी सारी शुभकामनाएं, शुभइच्छाएं देता हूं। दिल से।

साहित्य-आकाश और प्रकाशन जगत का सदाबहार व जरूरी स्तंभ–हस्ताक्षर सदैव रहेगा ‘आधार प्रकाशन’ और ‘पल प्रतिपल’। और हां, देश भाई ये इदारे सिर्फ आपके नहीं, हमारे भी हैं। चलते-चलते कहता ही जाऊं कि इस पोस्ट के लेखक को ट्रोल भी किया जाएगा (साहित्य की दुनिया में भी यह संक्रमण फैला हुआ है!) लेकिन परवाह नहीं क्योंकि आतंकवादियों की हत्यारी ‘हिटलिस्ट’ में आज भी कहीं न कहीं नाम है और जिंदा रहा तो दोबारा शिखर पर होगा (पंजाब और देश के हालात ऐसे ही हैं)। जानता हूं कि इसे किसी चमचे का प्रलाप भी कहा जाएगा। 

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उन्हें भी बता दूं कि शायद 20 साल से ज्यादा हो गए, देश निर्मोही से मिला तक नहीं। यदा-कदा फोन पर बात हुई है तो मुख्तसर– सी और साल में एकाध बार! अंत में देश भाई को एकबारगी फिर दिली शुभकामनाएं कि पुस्तक क्रांति के आंदोलन को इसी मानिंद विस्तार देते रहिए और ‘आधार प्रकाशन’ का मंच फैलता रहे। ‘पल प्रतिपल’ के लिए भी यही भावना है। उन तमाम रचनाकारों को भी शुभकामनाएं तथा साधुवाद जिन्हें आधार के जरिए पढ़ने का मौका मिलेगा या मिला था। जो जिस्मानी तौर पर अब नहीं हैं, वे आधार के पन्नों पर जिंदा हैं!

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1 Comment

1 Comment

  1. Suresh Hans

    December 14, 2022 at 7:21 am

    आपकी जिजीविषा को सलाम !
    शैलेन्द्र के गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं …..तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर !
    इसी एक पंक्ति में सब समाया है |

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